फैज अहमद साहब के एक शेर से शुरू करती हूं, उसको थोड़ा बदल के। शेर है ‘बहार के आने पे’ और बहार की जगह मैं ‘चुनाव’ डाल रही हूं- ‘चुनाव आए तो खुल गए हैं, नए सिरे से हिसाब सारे’। वास्तव में लोकसभा चुनाव जब भी आते हैं, मैं बैठ कर हिसाब करती हूं कि पिछले पांच सालों में अच्छा क्या हुआ है देश के लिए। हमारे-आपके लिए भी। इन दो चीजों के बारे में सोच कर हमको तय करना है कि वोट अबकी बार किसको देना है।

हिसाब दिल्ली में बैठ कर नहीं किया जा सकता है। इसलिए करने से पहले मैंने दौरे लगाए राजस्थान, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के। इन दौरों पर मैं राजनेताओं की आम सभाओं में जानबूझ कर नहीं जाती हूं। आज के दौर में सारे राजनेताओं के सारे भाषण टीवी पर देखने को मिलते हैं और आनलाइन भी। मैं जाती हूं यह देखने कि पांच साल पहले यहां हाल क्या देखा था और परिवर्तन के तौर पर क्या हुआ है। मेरी कोशिश यह है कि जो परिवर्तन सामने आया है, उसके बारे में ईमानदारी से लिखूं।

इसलिए आगे बढ़ने से पहले स्पष्ट करना चाहती हूं कि मैं योगी आदित्यनाथ की कोई बहुत बड़ी प्रशंसक न कभी पहले थी और न अब हूं, लेकिन पिछले सप्ताह लखनऊ और उसके आसपास कुछ गांवों में घूम कर आई हूं और सबसे ज्यादा परिवर्तन मैंने यहां देखा है। हवाईअड्डा अभी तक वही पुराना-सा है, इसलिए मैंने सोचा था कि उत्तर प्रदेश भी वही पुराना होगा।

यानी गांवों में जाने के लिए गाड़ी को रोक कर पैदल जाना होगा, इसलिए मजबूत जूते पहन कर आई थी। हैरान हुई जब सड़कें इतनी अच्छी देखीं कि गाड़ी भीतर तक जा सकी। हैरान हुई देख कर कि जो सरकारी स्कूल कभी लगभग खंडहर होते थे, अब इतने अच्छे हो गए हैं कि निजी स्कूल जैसे दिखने लगे हैं। लोगों का कहना था कि अब निजी स्कूल में अपने बच्चों को भेजने की जरूरत नहीं है। स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में पूछा तो मालूम हुआ कि अभी भी ‘सीरियस’ मामला हो तो लखनऊ जाना पड़ता है, लेकिन निजी अस्पताल काफी खुल गए हैं।

कई गांवों में ‘नल से जल’ वाली योजना पूरी हो चुकी है और कई जगह पाइपें अभी बिछ रही हैं। लोगों ने कहा कि उनका वोट मोदी-योगी को जाएगा, इसलिए कि उन्होंने ‘काम’ किया है। एक मुसलिम बस्ती में मेरे मतदान से जुड़े सवालों का जवाब देने से लोग कतराए थे। लेकिन जब पूछा कि उनको गैस चूल्हे, मुफ्त राशन और अन्य समाज कल्याण योजनाओं का लाभ मिला कि नहीं तो उन्होंने माना कि ये सारी चीजें उनको मिली हैं।

लखनऊ शहर के पुराने इलाके में गई तो देखा कि जहां इमामबाड़ों के सामने सड़ते कूड़े के ऊंचे ढेर पड़े हुए थे, अब सफाई की गई है। ऐसा नहीं है कि लखनऊ अब पेरिस या लंदन बन गया है, लेकिन परिवर्तन जरूर आया है। कुछ अच्छा और कुछ बुरा भी। पुराने शहर को अगर थोड़ा और चमकाया जाए तो पर्यटन से जो कमाई जोधपुर के लोग करते हैं, वैसा लखनऊ के लोग भी कर सकेंगे।

यहां यह कहना जरूरी है कि जोधपुर में मैंने उतना परिवर्तन नहीं देखा, जितना लखनऊ में दिखता है। लखनऊ में मैंने एक करीबी रिश्तेदार से जब योगी के बारे में पूछा तो कहा उन्होंने कि जिस रफ्तार से विकास हो रहा है, आज उसकी कल्पना भी नहीं कोई कर सकता था। कभी पुलिस अफसर हुआ करते थे मेरे चाचा, इसलिए मैंने उनसे कानून-व्यवस्था के बारे में पूछा। जवाब मिला कि पहले पुलिस के हाथ बंधे रहते थे। अब ऐसा नहीं है।

हिसाब जब नुकसानदेह परिवर्तन का किया तो मेरी फेहरिस्त में सबसे ऊपर आया भाईचारा। हिंदुओं और मुसलमानों में अब एक गहरी खाई बन चुकी है, जिसके होते हुए देश का नुकसान ही हो सकता है, लाभ नहीं। हिंदुओं का कहना है कि उनको मुसलमानों से शिकायत यही है कि उनकी नजर में शरीअत सबसे ऊपर है और हिंदुओं की नजरों में संविधान सबसे ऊपर। मुसलमानों की नजर में मंदिर निर्माण और मंदिर-मस्जिदों के विवादों से ‘इस्लाम खतरे में है’। ऊपर से जब भाजपाई राजनेता शहरों के नाम बदलते हैं और उर्दू को विदेशी भाषा कहते हैं, उनकी सभ्यता को भी खतरा दिखता है।

भाईचारा दुबारा कैसे कायम होगा, कहना मुश्किल है। जो भी जीत कर लोकसभा में आएंगे, उनको गहराई से सोचना होगा। इसके अभाव से फायदा होता है सिर्फ देश के दुश्मनों को। आम मतदाताओं से बातें करने के बाद ऐसा लगा मुझे कि संविधान और लोकतंत्र को लेकर जो चिंताएं दिल्ली और मुंबई के राजनीतिक पंडितों में हैं, आम लोगों में नहीं हैं, लेकिन तनाव-सा जरूर है मुसलिम मतदाताओं में। मोदी की ‘तानाशाही’ के बारे में भी मैंने जिक्र तक न सुना।

शायद इसलिए कि उनके जीवन में लोकतंत्र खतरे में नहीं है। आपातकाल में जब इंदिरा गांधी ने बुनियादी अधिकार ताक पर रख दिए थे, तो आम मतदाता अच्छी तरह समझ गए थे लोकतंत्र का महत्त्व। फिलहाल उनको नहीं लगता है कि देश में ‘अघोषित आपातकाल’ की स्थिति बनी हुई है।

वापस दिल्ली जब लौट कर आई तो यूट्यूब पर प्रशांत किशोर का हाल में दिया गया इंटरव्यू देखा, जिसमें उन्होंने अनुमान लगाया कि भारतीय जनता पार्टी की सीटें कम अगर होंगी तो कुछ बीस-तीस ही होंगी। आगे उन्होंने कहा कि किसी दूसरे राजनीतिक दल या दलों की सरकार तभी बनेगी जब भारतीय जनता पार्टी की कम से कम सौ सीटें कम होंगी। मैं भविष्यवाणी करने से दूर रहती हूं, लेकिन इतना जरूर कहूंगी कि प्रशांत किशोर की इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूं।