जब भी प्रधानमंत्री विपक्ष में परिवारवाद की बुराइयां गिनाते हैं ऊंची आवाज में, तो उनको याद दिलाया जाता है कि यह ‘बीमारी’ भारतीय जनता पार्टी में भी है। पिछले हफ्ते लाल किले से जब उन्होंने फिर से कहा कि परिवारवाद का मतलब यही है कि ‘आफ द फेमिली, बाय द फेमिली, फार द फेमिली’ यानी एक परिवार द्वारा अपने ही परिवार का भला (देश का नहीं), तो उछल-उछल कर विपक्ष के लोग गिनवाने लगे कि कितना परिवारवाद प्रधानमंत्री के अपने खेमे में है। कैप्टन अमरिंदर सिंह पूरे परिवार के साथ भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए हैं। सिंधिया परिवार के कई सदस्य भाजपा में हैं और कई सारे भाजपाई नेता अपने वारिसों को राजनीति में लाने की तैयारियों में लगे हुए हैं। कई सफल हो चुके हैं।

असली वंशवाद वह है जहां पूरा राजनीतिक दल राजनेता अपने वारिसों को सौंपता है

लेकिन इनमें से अभी तक कोई ऐसा व्यक्ति नहीं दिखा है, जिसने एक पूरे राजनीतिक दल को निजी जायदाद बना कर अपने वारिसों के हवाले किया है। यह बहुत बड़ा फर्क है, इसलिए कि असली वंशवाद तब देखने को मिलता है जब पूरा का पूरा राजनीतिक दल कोई राजनेता अपने वारिसों को सौंपता है। ‘आइएनडीआइए’ गठबंधन में एक भी ऐसा दल नहीं है, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा, जो विरासत में किसी को या तो मिला हो या विरासत में मिलने वाला न हो। ममता दीदी की अपनी कोई औलाद नहीं है, लेकिन भतीजा उनका वारिस है।

संजय गांधी के आदेश पर जबर्दस्ती नसबंदी का दौर चला, गरीबों की बस्तियां उजाड़ी गईं

जब इंदिरा गांधी ने कांग्रेस पार्टी की बागडोर अपने छोटे बेटे संजय के हवाले कर दी थी आपातकाल के दौरान, उस वक्त प्रेस पर कड़ी पाबंदियां लगी हुई थीं, तो हम उसके खिलाफ लिख नहीं सकते थे। मगर अखबारों के दफ्तरों में हम खबरें ध्यान से सुनते थे संजय गांधी की ज्यादतियों के। सुनने में आया था कि इंद्र कुमार गुजराल ने जब उनका हुकुम मानने से इनकार किया, तो उनको मंत्रिमंडल से बर्खास्त करके संजय ने विद्याचरण शुक्ल को सूचना प्रसारण मंत्री बना दिया था। सुनने में यह भी आया था कि जब दिल्ली को सुंदर बनाने के बहाने गरीबों की बस्तियां उजाड़ दी गई थीं और जबर्दस्ती नसबंदी का दौर चला था, तो ये दोनों चीजें हुईं संजय के आदेश पर।

राजीव गांधी के निधन के बाद सोनिया गांधी से पार्टी संभालने की विनती की गई

संजय के देहांत के बाद इंदिराजी ने अपने बड़े बेटे राजीव को वारिस बनाया। जब उनकी हत्या हुई तो कांग्रेस पार्टी इतनी कमजोर हो गई थी कि उसकी कार्यसमिति ने घुटनों के बल सोनिया गांधी के द्वार पर जाकर विनती की कि कांग्रेस अध्यक्ष का पद स्वीकार कर लें। उस समय वे न राजनीति के बारे में कुछ जानती थीं और न हिंदी बोल सकती थीं, सो उन्होंने मना कर दिया। मगर कुछ सालों बाद राजी हो गईं। इससे प्रेरणा लेकर लालू यादव जब जेल गए, तो उन्होंने अपनी पत्नी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया था।

कांग्रेस की नकल करके क्षेत्रीय राजनेता भी वंशवाद को अपनाने लगे। मेरा सौभाग्य समझिए या दुर्भाग्य कि मेरी मुलाकातें कई राजनीतिक वारिसों से हुई हैं। मैंने जब भी उनसे राजनीति में आने का कारण पूछा है, तो इस सवाल को ज्यादातर ने टाल दिया है या देश सेवा करने की इच्छा की झूठी बातें की हैं। मगर एक दो ऐसे भी मिले हैं, जिन्होंने ईमानदारी से माना है कि राजनीति उनके परिवार के लिए एक कारोबार बन गया है।

वंशवादियों के वारिसों के पास बेहिसाब धन हो गया, राजनीति के कारोबार में भारी मुनाफा हुआ

इस कारोबार में मुनाफा इतनी जल्दी कमाया जाता है कि देखते-देखते इन वारिसों के पास बेहिसाब धन आ जाता है। देखते-देखते उनके गरीब परिवार इतने अमीर हो जाते हैं कि दिल्ली-मुंबई के सबसे महंगे रिहाइशी इलाकों में इनके घर बन जाते हैं और उनके बच्चे विदेश में पढ़ने जाते हैं।

नुकसान होता है किसी का तो उस राजनीतिक दल का, जो इनको विरासत में मिला है। जहां पहले भर्तियां हुआ करती थीं ऐसे लोगों की, जिनको वास्तव में जनता की सेवा की इच्छा थी, फौरन होने लगती है भर्तियां सिर्फ दरबारियों की। राजनीति जब कारोबार बन जाती है, तो देश की सेवा नहीं, अपने और अपने परिवार की सेवा बन जाती है।

परिवारवाद का सीधा रिश्ता है भ्रष्टाचार से। सो, प्रधानमंत्री ने सच कहा अपने लाल किले वाले भाषण में कि भ्रष्टाचार देश में परिवारवाद के कारण फैल चुका है हर राजनीतिक दल में। ऐसा क्यों न हो, जब पंचायतों में भी यह रोग दिखने लगा है। सरपंच आजकल अपना पद तभी छोड़ते हैं, जब अपनी जगह अपने किसी रिश्तेदार को बिठा लेते हैं। ग्रामीण भारत में जो विकास के लिए पैसा आता है, उसका काफी हिस्सा गायब हो जाता है इस गलत प्रथा के कारण। जो हिस्सा लगता भी है सड़कें, खड़ंजे बनाने में, उनका अक्सर निर्माण सौंपा जाता है सरपंच साहब के रिश्तेदारों और दोस्तों को, ताकि कुछ हिस्सा उस धनराशि का वापस प्रधान साहब के पास आ जाए।

समस्या यह है कि मोदी इन गलत प्रथाओं को उन राज्यों में भी नहीं समाप्त कर पाए हैं, जहां उनके अपने मुख्यमंत्री हैं। जनता की सेवा में मुनाफा बनाने की संभावनाएं इतनी ज्यादा हैं कि इस प्रथा को समाप्त करना कठिन है। मोदी के दौर में फर्क इतना जरूर आया है कि प्रधानमंत्री लाल किले के प्राचीर से इन चीजों को समाप्त करने की इच्छा जताते हैं।

कभी न कभी, जैसे स्वच्छ भारत अभियान सफल हुआ था, प्रधानमंत्री के लाल किले वाले भाषण के बाद शायद दूर भविष्य में, देश के राजनीतिक ढांचे से भी परिवारवाद के रोग को हटा दिया जाएगा। लेकिन फिलहाल इसके समाप्त होने के आसार दूर तक नहीं दिखते हैं, तो यह कहना गलत न होगा कि देश का नुकसान होता रहेगा परिवारवाद के इस कारोबार से।