राम मंदिर बन गया है। कल प्रधानमंत्री अयोध्या में शान और श्रद्धा से रामलला की नई प्रतिमा का प्राण प्रतिष्ठा करेंगे और हम सब अपने घरों मे दिए जलाएंगे, खुशियां मनाएंगे। क्या अब पूछ सकते हैं हम कि राम राज कब आएगा हमारे देश में? यह सवाल इसलिए पूछ रही हूं मैं, क्योंकि मैं ये लेख दावोस में बैठ कर लिख रही हूं, जहां सबसे विकसित, संपन्न देशों के राजनेता आते हैं हर साल दुनिया की समस्याओं पर मंथन करने।

भारत सरकार के कई मंत्री आए हुए हैं और कई सारे पत्रकार, लेकिन न महत्त्वपूर्ण चर्चाओं में दिखते हैं और न ही हमारी गिनती विकसित देशों की श्रेणी में की जा रही है।सो इस सुंदर पहाड़ी शहर में मुझे अजीब सी मायूसी महसूस हो रही है। मेरे होटल की बालकनी पर बर्फ जमी हुई है और बर्फीले पहाड़ों का नजारा बहुत खूबसूरत है। लेकिन मायूस हूं, इसलिए कि मेरी मेज पर पड़ा हुआ है न्यूयार्क टाइम्स अखबार, जिसके पहले पन्ने पर भारत के न्यायालयों की गंभीर समस्याओं पर एक लंबा लेख है।

इस लेख का शीर्षक है ‘पांच करोड़ मामले भारत के न्यायालयों में लटके हुए’। लेख पढ़ा तो मालूम हुआ कि इन मामलों को समाप्त करने में तीन सौ साल लग जाएंगे। कारण यही है कि भारत में न्याय बैलगाड़ी की चाल चलता है। दशकों तक मुकदमे लटके रहते हैं। हमारी जेलों में कोई 80 फीसद कैदी ऐसे हैं, जिनको अभी दोषी नहीं पाया गया है। एक कारण यह है कि जहां अमेरिका में 10 लाख लोगों के लिए 150 न्यायाधीश होते हैं, भारत में केवल 21 हैं।

भारत में समस्या यह भी है कि अदालतों तक पहुंचना इतना महंगा है कि आम नागरिक के लिए जाना असंभव है। एक समस्या यह भी है कि अदालतों में आधा से ज्यादा मुकदमे सरकारों की तरफ से डाले गए हैं। कई तो इतने मामूली हैं कि इनको लाया ही नहीं जाना चाहिए था। प्रधानमंत्री बदले हैं, सरकारें बदली हैं लेकिन न्याय की रफ्तार वैसी ही रही है, जो 30 साल पहले होती थी। इस बात को मैं इसलिए जानती हूं क्योंकि एक विशेषज्ञ ने उस समय एक रिपोर्ट तैयार की थी जिससे न्याय प्रणाली में सुधार लाया जा सकता था। यह रपट किसी धूल भरे डब्बे में डाल कर किसी सरकारी दफ्तर में भुला दी गई है।

कहने को तो हमारे राजनेता न्याय को लेकर संवेदनशील हैं। इन दिनों राहुल गांधी निकले हुए हैं ‘न्याय यात्रा’ पर, लेकिन उनके एक भी भाषण में हमने न्याय प्रणाली में सुधारों का जिक्र नहीं सुना है। उनकी ‘मोहब्बत की दुकान’ में कोई जगह नहीं है, उन गरीब बच्चों के लिए जो स्कूल तो जाते हैं औपचारिक तौर पर, लेकिन शिक्षा नहीं पाते हैं। इंडियन एक्सप्रेस में पिछले सप्ताह एक लेख छपा था, जिससे मालूम हुआ कि सरकारी स्कूलों में बच्चे साधारण गणित नहीं कर पाते हैं और साधारण लिखना पढ़ना भी उनके लिए मुश्किल है। मैंने अपने ग्रामीण दौरों पर कई सरकारी स्कूलों में तहकीकात करने पर इस कड़वे सच को अपनी आंखों से देखा है।

आजकल बातें हम बड़ी-बड़ी करते हैं भारत को विकसित देश बनाने की। लेकिन विकसित देशों में विकास तब ही आया है, जब शिक्षा और न्याय जैसी बुनियादी चीजों का अभाव समाप्त कर दिया गया। भारत की सबसे बड़ी आर्थिक समस्या है बेरोजगारी, लेकिन इस पर ध्यान दिया जाए तो मालूम ये पड़ता है कि नौकरियां तो बहुत हैं निजी उद्योग क्षेत्र में। लेकिन जो लोग इन नौकरियों के लिए भर्ती होने आते हैं उन में काबिलियत नहीं होती है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कुलपति ने मुझे बताया था कि उनके पास कुछ उद्योगपति आए थे नौकरियों के लिए भर्तियां करने। उन्होंने उनके सामने पेश किए कोई 1200 होनहार छात्र, जिन में से सिर्फ 50 काबिल पाए गए। ऐसे हाल में कैसे देख रहे हैं हम विकसित भारत के सपने? किस मुंह से बात कर सकते हैं हम राम राज की?

इन असली समस्याओं से ध्यान भटकाने के लिए हमारे राजनेता मस्जिद-मंदिर के झगड़े छेड़ देते हैं या जातियों की जनगणना को ऐसे उछालते हैं जैसे एक बार ये हो जाए तो भारत में समृद्धि और संपन्नता अपने आप आ जाएगी। एक तरफ हैं वे राजनीतिक दल, जो कह रहे हैं कि अगर लोकसभा चुनाव जीतते हैं और सरकार बनाने में सफल होते हैं तो उनका पहला काम होगा जातिगत जनगणना करवाना। दूसरी तरफ हैं वे लोग जो वादा करते हैं कि उनका मकसद है अयोध्या के बाद अब रुख करना मथुरा और काशी में मस्जिदों को हटा कर भव्य मंदिर बनाना।

ऐसी बातों से आम मतदाता का ध्यान भटक जाता है अपने बेहाल जीवन की असली समस्याओं से। भूल जाता है कुछ क्षणों के लिए कि उसके बच्चों के लिए न अच्छे स्कूल हैं, न रोजगार की संभावनाएं, न रौशन भविष्य की कोई उम्मीद। भूल जाता है कि उसका अपना घर (अगर घर हो) तो एक छोटी सी काल कोठरी है, जिसके आसपास गंदी गलियां हैं, सड़ते कूड़े के ढेर हैं, बदबूदार नालियां हैं। अगर वो इन चीजों के कारण बीमार पड़ जाता है तो अस्पताल में इलाज करने के लिए पैसे नहीं हैं। न्याय ढूंढने जाता है तो अदालतों में जाने की उम्मीद तक नहीं रख सकता क्योंकि न्याय की कीमत काफी ज्यादा है।

सो आज इस सुंदर, विकसित, बर्फीली शहर से जब मैं देखती हूं अपने भारत महान की तरफ मुझे दशकों तक राम राज के आने की कोई संभावना नहीं दिखती है। दोष है हमारे राजनेताओं का, लेकिन दोष हमारा भी है क्योंकि हम बहुत जल्दी बहल जाते हैं उनकी बातों से। बहुत जल्दी अहमियत देते हैं उन चीजों पर जिनकी अहमियत इतनी नहीं है।