दिल्ली तो वैसे भी रोशनियों का शहर है लेकिन पिछले हफ्ते इतनी रोशनियों से भर गया था कि जैसे किसी बहुत बड़ी शादी में बहुत बड़ी बारात का इंतजार हो। हमारे विदेशी वीआइपी को सुरक्षित रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। सो इन रोशनियों को हम सबने सिर्फ टीवी पे देखा।
अतिथि देवो भव को इतनी गंभीरता से लिया गया कि जितनी तारीफ हो मोदी की मेजबानी की कम होगी। जहां झरने न थे अचानक दिखे, जहां मूर्तियां न थीं अचानक बन गईं। तारीफ इस बात की भी होनी चाहिए कि मोदी ने भारत के आम नागरिक को दिखाया कि भारत को जो जिम्मेदारी मिली थी जी20 की अध्यक्षता की उसे हमने दिल लगा कर पूरा किया।
शायद ही कोई शहर होगा देश में जिसकी दीवारों, चौराहों और बाजारों में इस शिखर सम्मेलन के पोस्टर न दिखे हों। इन पोस्टरों में अपने प्रधानमंत्री का न सिर्फ चेहरा दिखता है उनके विचार भी पाए जाते हैं- कभी यह याद दिलाते हुए कि धरती एक है, परिवार एक है हम सब का, और भविष्य भी एक है तो कभी याद दिलाते हुए कि लोकतंत्र का जन्मस्थान भारत है।
इतना प्रचार हुआ है इस शिखर सम्मेलन का कि मैंने राजस्थान के एक छोटे गांव में जब किसी से पूछा कि उनकी नजरों में जी20 क्या है तो पट जवाब मिला कि इसके लिए विदेशों से बड़े-बड़े राजनेता आएंगे और उनके साथ आएंगे हजारों निवेशक, जो भारत में निवेश करके रोजगार के अवसर बढ़ाएंगे। ऐसा वास्तव में होगा या नहीं समय बताएगा लेकिन ऐसा होने के लिए मोदी ने पूरा प्रयास किया है।
यहां तक कि विदेशी मेहमानों की खातिर दिल्लीवासियों के लिए दिल्ली में जीना मुश्किल कर दिया गया। इतना कि ये पूरा का पूरा महानगर गढ़ बना दिया गया वीआइपी मेहमानों की सुरक्षा के लिए। बाजार बंद कर दिए गए, सरकारी दफ्तर, स्कूल, कालेज सब बंद कर दिए गए उन इलाकों में जहां हमारे मेहमानों का आना-जाना था। और तो और छोड़िए जब विदेशी राजनेताओं के निजी विमान आने लगे तो दिल्ली के हवाई अड्डे पे उनके लिए खास पाबंदियां लगाई गईं, ताकि मामूली यात्रियों के होने से उनको कोई दिक्कत न हो।
न्यूयार्क में मैं कई बार उस समय रही हूं जब संयुक्त राष्ट्र का सालाना सम्मेलन होता है और यकीन मानिए कि इस सम्मेलन के होते इस महानगर की रोजमर्रा गतिविधियों में थोड़ी सी भी बाधा नहीं होती है बावजूद इसके कि दुनिया के सबसे बड़े राजनेता मौजूद होते हैं। हो सकता है कि दिल्ली में खास सुरक्षा का बंदोबस्त जरूरी था। हम कौन होते हैं सवाल पूछने वाले।
सवाल लेकिन ये जरूर पूछने का हमको अधिकार है कि दिल्ली को दुल्हन की तरह सजाने के लिए क्या ये भी जरूरी था कि इस शहर के सबसे गरीब लोगों की बस्तियां तोड़ी जाएं? जरूरी था क्या कि उनको बेघर किया जाए जिनके घर वैसे भी कच्चे थे? जरूरी था कि उन लोगों की छोटी मोटी दुकानों को तोड़ा जाए जो गुजारा करते हैं दिहाड़ी की कमाई पे?
जी20 की रोशनियों ने हम देसी पत्रकारों को इतना प्रभावित किया कि हमने इन टूटी बस्तियों के बारे में जिक्र तक करना ठीक न समझा लेकिन सीएनएन जैसे विदेशी टीवी चैनलों को ऐसी कोई दिक्कत नहीं थी। सच पूछिए जब मैंने सीएनएन पे उन लोगों का हाल देखा जिनके घर तोड़े गए थे तो मुझे रोना आया।
जब देखा कि बड़ी बड़ी दीवारें खड़ी कर दी गईं थीं उन गरीब, बेहाल बस्तियों को ढकने के लिए जिनको तोड़ा नहीं गया था तो शर्म आई। दुनिया जानती है कि भारत के करोड़ों नागरिक गरीबी की रेखा के नीचे अपना पूरा जीवन बिताते हैं। दुनिया जानती है कि ऐसे लोग देश की राजधानी में भी रहते हैं तो इनकी गरीबी को ढक कर क्या हासिल हुआ है?
हासिल सिर्फ ये हुआ है कि इन बेजुबान लोगों को एक बार फिर एहसास दिलाया गया है कि उनकी गरीबी हमारे देश को शर्मसार करती है। वो भी ऐसे समय जब हमारे प्रधानमंत्री पूरी कोशिश कर रहे हैं दुनिया के सामने इस बात को साबित करने कि भारत अब गरीब देश नहीं एक ऐसा देश बन गया है जिसकी गिनती कुछ ही साल में विकसित देशों में हो जाएगी।
ऐसा संभव भी है लेकिन इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए हमको गरीबी को हटाना होगा गरीबों को नहीं। हम अगर चांद तक जा सकते हैं तो गरीबी को भी मिटा सकते हैं वो औजार लोगों को देकर जिनसे वो गरीबी की बेड़ियां अपने हाथों से तोड़ सकेंगे। ये औजार हैं उनको रोजगार देना। उनके बच्चों के लिए अच्छे स्कूल बना कर देना। उनकी बेहाल बस्तियों में बुनियादी शहरी सेवाएं उपलब्ध करवा के।
मोदी के शासनकाल में बहुत कुछ किया गया है गरीबों के लिए। उनको मुफ्त अनाज मिला है, गैस सिलिंडर मिले हैं सस्ते दाम पे, बिजली, पानी की सुविधाओं में निवेश हुआ है और प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत दूर-दराज ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों के घर बने हैं।
लेकिन ऐसा कहने के बाद ये भी कहना जरूरी है कि जो गरीब लोग हमारे महानगरों में बस जाते हैं रोजगार की जरूरतों के कारण वो अभी भी अदृश्य रहते हैं राजनेताओं की नजरों में। दिखते तब ही हैं जब महामारी आती है और वो बेरोजगार और बेघर होकर शहर छोड़ कर भागने पे मजबूर होते हैं। दिखते तब हैं जब विदेशों से बड़े-बड़े राजनेता आते हैं और उनकी मेजबानी के कारण उनकी बस्तियां तोड़ी जाती हैं ताकि दिल्ली की चमक में कोई धब्बा ना दिखे। ऐसा ही कुछ हुआ है इस महासम्मेलन के वास्ते। रोशनियों और चमकती इमारतों के पिछवाड़े में अंधेरे हैं जिनका सामना हमको कभी न कभी करना होगा।