ना बांग्‍लादेश ना पाकिस्‍तान, मेरी आशा अरमान, वो पूरा पूरा हिंदुस्‍तान, मैं उसको ढूंढ रहा हूं’, भावनाओं से भरे इस शेर को भारत के मुस्लिम शायर मोहम्‍मद अकमल ने सार्वजनिक रुप से गाया था, हाल ही में भाजपा नेता ने उपमहाद्वीप को करने की जाे बात कही है वह इससे अलग नहीं है, यह एक पवित्र आशा है और इसका सही भावना से सम्‍मान किया जाना चाहिए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता किसने यह कहा है।

धर्म के नाम पर बंटवारे की मांग अनुचित थी और राजनीतिक सहूलियत के लिए ऐसा कर दिया गया। कुछ साल बाद आजाद होने की कीमत पर टाला जा सकता था और टाला जाना चाहिए था। नए बने इस्‍लामी गणतंत्र ने धर्म-राजनीति के मेल की गलतफहमी की वेदी पर लोकतंत्र और मानवाधिकारों की बलि चढ़ा दी। जल्‍द ही बंटवारे के रुप में उन्‍हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी और कृत्रिम रुप से तैयार दोनों देशों ने सैन्‍य शासन, लोकतंत्र के दमन, साम्‍प्रदायिक राजनीति, पंथवादी हिंसा, बढ़ते अपराध और ऐसी ही कर्इ गंभीर समस्‍याओं का सामना किया।

बंटवारे की आपदा के सबसे ज्‍यादा शिकार मुसलमान और सिख हुए, इनमें सिखों को जहां सीमा के उस पार से अपनी पवित्र जगहों को छोड़ना पड़ा तो मुस्लिमों को खून के रिश्‍तों के निर्दय बंटवारे का सामना करना पड़ा और बच्‍चे माता-पिता से, भाई बहनों से, बड़े छोटो से बिछड़ गए। अब सिखों को अपने पवित्र जगहों पर जाने के लिए और मुस्लिमों को अपनों से मिलने के लिए पासपोर्ट व वीजा लेना पड़ता है। यह हमारे बनाए इतिहास की वास्‍तविक त्रासदी है। मुसलमानों को अकसर पारिवारिक शादियों और इंतकाल के दौरान अपनों से मिलने के मोह को छोड़ना पड़ता है या फ‍िर कई सालों तक इंतजार करना पड़ता है जो कि उनसे केवल कुछेक दिनों की दूरी पर ही रहते हैं।

भारत ने पाकिस्‍तान के निर्माण को कभी नहीं भुलाया और पाकिस्‍तान हमेशा भारत को अपना दुश्‍मन मानता रहा। इतने सालों बाद भी आपसी अविश्‍वास और शक खत्‍म नहीं हुआ। मेल जोल और शांतिपूर्ण रिश्‍तों के सभी ईमानदार प्रयास असफल रहे। नेहरु-लियाकत समझौता, शिमला, आगरा और ऐसे ही कई समझौतों के बावजूद दोनों देशों की राजनीतिक विचारधाराओं ने दुश्‍मनी को बरकरार रखा।

भारत में हर कोई बंटवारे को ऐतिहासिक भूल के रुप में देखता है। दोनों देशों में कई ऐसे लोग होंगे जो यह मानेंगे कि यह नासमझी का कदम था और संयुक्‍त भारत में जिंदगी और हसीन होती। एक पाकिस्‍तानी शायर की इस उर्दू शेर पर गौर कीजिए : ‘आ गए सो ए हरम वैज के बहकने से हम, वरना राजी हम से बुतखाना था बुतखाने से हम।’ उस ऐतिहासिक भूल को ठीक करना और एक देश बनना काल्‍पनिक योजना होगी लेकिन दुनिया के इस हिस्‍से में हमें शांति कायम करने का काम करना चाहिए। इस पवित्र लक्ष्‍य की नींव मजबूत संघ के निर्माण में है। कई और अलग हुए देश अब एक हो चुके हैं। क्‍या उपमहाद्वीप जो कुछ सालों पहले तक एक ही देश था के लोग समझदारी के रास्‍ते पर चलते हुए एक संघ का निर्माण नहीं सकते? हम साझा इतिहास, भूगोल, सामाजिक मान्‍यताएं, दर्शन और मानसिकता, सोच और विचार, एक स्थिति विशेष में प्रतिक्रिया देने के तरीके में हिस्‍सेदार हैं। तीनों देश दुनिया के प्रमुख धर्मों हिंदू, बौद़्ध और इस्‍लाम की शाानदार विरासत के साझेदार हैं। सदियों तक तीनों देशों पर यूरोप की औपनिवेशिक ताकतों का शासन रहा और इसलिए हम कानून और न्‍याय प्रक्रिया की सामान्‍य विरासत को साझा करते हैं। कानूनी प्रक्रिया के इतना सामान्‍य होने से क्‍या उपमहाद्व़ीप को एक बाधारहित समाज बनाना इतना मुश्किल है, जिसमें सभी लोग शांति और सम्‍मान से भरी आपसी विश्‍वास, दोस्‍ताना रिश्‍तों और अटूट पारिवारिक रिश्‍तों के साथ रह सकते हैं। हम आने वाले भविष्‍य में इस अजीबोगरीब सपने को सच होते नहीं देख सकते लेकिन हमें इसका बीज बाेना चाहिए जिससे कि आने वाली पीढ़ियाें को इसका फायदा हो।