Sushma Swaraj Death News: दिग्गज बीजेपी नेताओं में शुमार सुषमा स्वराज का एक साल पहले इसी दिन निधन हो गया था। आज वे हमारे बीच नहीं हैं, पर पीएम नरेंद्र मोदी की मजबूत अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की आधारशिला रखने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई। सुषमा का विदेश मंत्री के तौर पर कार्यकाल बीजेपी के आलोचकों को भी एक बार चुप करा देता है। हालांकि, बहुत कम लोग ही जानते हैं कि मोदी के उदय के पहले से उनकी आलोचक रहीं सुषमा कैसे उनके ही मंत्रीमंडल में टॉप परफॉर्मिंग मंत्री बन गई थीं।
राजनीतिक जानकार मानते हैं कि सुषमा ने अपने आप में बड़ा बदलाव किया और वह विदेश मंत्री के तौर पर अच्छा काम करने के बावजूद लो प्रोफाइल बनी रहीं। बीजेपी की सबसे बड़ी नेताओं में रहीं सुषमा ने मोदी के साथ काम करने के लिए अपना रोल बदला और वह इसमें बेहतरीन तरीके से फिट होती गईं।
बात मई 2014 की है। मोदी की लोकप्रियता भुनाकर बीजेपी केंद्र की सत्ता में आई थी। टीम मोदी के ब्रेन अरुण जेटली इस कवायद में जुटे थे कि मोदी के मंत्रिमंडल का स्वरूप कैसे होगा। निवर्तमान लोकसभा में सुषमा स्वराज नेता विपक्ष थीं, लेकिन मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर उनसे कोई चर्चा नहीं की गई थी।
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मामले से जुड़े लोग मानते हैं कि स्वराज इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं थीं कि मोदी के मंत्रिमंडल में जगह मिलेगी या नहीं। राजनीतिक गलियारों में उनकी और जेटली की प्रतिद्वंद्विता की भी चर्चा होती थी। इसके अलावा, आरएसएस और मोदी से भी सुषमा की बातचीत कोई खास नहीं थी। कहा जाता है कि 2013 में जब मोदी को पीएम कैंडिडेट बनाए जाने का ऐलान हुआ था तो विरोध करने वाले लालकृष्ण आडवाणी को सुषमा ने भी समर्थन दिया था।
2002 में भी स्वराज ने अटल बिहारी वाजपेयी का समर्थन किया था, जब तत्कालीन पीएम ने गुजरात के दंगों के बाद मोदी को ‘राजधर्म’ के पालन की हिदायत दी थी। स्वराज ने किसी तरह मोदी को 2013 में अपना नेता स्वीकार कर लिया। स्वराज को ठीक ठाक मंत्रालय मिला, पर सरकार में उनकी हैसियत नंबर 3 की थी। उन्हें राजनाथ सिंह के बाद तीसरे नंबर पर शपथ दिलाई गई, जो अनुभव में उनसे जूनियर थे।
कहा जाता है कि शुरुआती महीने स्वराज के लिए बेहद मुश्किल रहे। मोदी अपनी विदेश कूटनीति के लिए सुर्खियां बटोरते रहे और स्वराज लो प्रोफाइल होकर काम करती रहीं। 31 मई को जब स्वराज ने एक साल का कार्यकाल पूरा कर लिया तो उन्होंने मीडिया से बातचीत में कहा था कि उनकी कामयाबी की वजह प्रेस से दूर रहना और वो काम करना है, जिसकी उन्हें जिम्मेदारी सौंपी गई है।
कहा जाता है कि स्वराज अपने विदेश मंत्री के कार्यकाल के दौरान यह सुनिश्चित करती रहीं कि ऐसी कोई अटकल जन्म न ले कि वह कभी पीएम पद की दावेदार बन सकती हैं। कहा जाता है कि आडवाणी के साथ भावनात्मक रिश्ते की कीमत उन्हें आगे चलकर पीएम पद के संभावित कैंडिडेट में शुमार न होने के तौर पर चुकाना पड़ा।
अब बात करते हैं हाल के सालों में मोदी और सुषमा के बदलते रिश्तों की। कहा जाता है कि जब ललित मोदी के साथ रिश्तों को लेकर सुषमा और उनका परिवार विपक्ष के निशाने पर था, उस वक्त पीएम नरेंद्र मोदी मजबूती के साथ सुषमा स्वराज के साथ खड़े रहे। वहीं, सुषमा ने भी दी गई विदेशमंत्री की जिम्मेदारी को बेहतरीन ढंग से निभाया। वह मेहनती थीं, जटिल मामलों की समझ रखती थीं, उनकी याददाश्त अच्छी थी और उनकी कई भाषाओं पर पकड़ थी।
सुषमा ने पासपोर्ट और वीजा जैसे आम लोगों से जुड़े मुद्दों को हल करने की ठानी। इसके अलावा, सुषमा गुपचुप विदेश दौरे करके विभिन्न देशों से रिश्ते भी बेहतर करती रहीं। उन्होंने विदेशों में फंसे भारतीयों की मदद करने की ठानी। टि्वटर पर भी मदद मांगने वालों के लिए पूरे सरकारी तंत्र को लगा देने वालीं सुषमा ने कुछ ही वक्त में मोदी सरकार के सबसे कामयाब मंत्रियों में अपना नाम शुमार करवा लिया।