सुषमा द्विवेदी अमेरिका की पहली महिला हैं, जिन्होंने शादी और अन्य अनुष्ठान कराने का काम शुरू किया है। वह समलैंगिकों से लेकर हर जाति, संप्रदाय, रंग, नस्ल आदि के लिए पूजा कराती हैं। उन्होंने जब शादियों में फेरे और अन्य धार्मिक अनुष्ठान करवाने की योजना बनाई तो पहले उन्होंने अपनी दादी से बात की। अपनी दादी के साथ मिलकर उन्होंने सारे मंत्र आदि दोहराए, जो विभिन्न अनुष्ठानों में दोहराए जाते हैं। फिर उनमें से वे मंत्र खोजे जो द्विवेदी की सोच और लक्ष्य से मेल खाते थे। सुषमा द्विवेदी ने ऐसी पुरोहित बनने की तैयारी की, जो किसी भी जाति, लिंग, नस्ल या यौन रुझान से ऊपर उठकर आशीर्वाद दे।
भारत और भारत के बाहर भी शादियों या अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में पूजा कराने का काम आमतौर पर पुरुष ही करते आए हैं। लेकिन उनकी दादी के पास जानकारी थी, जिसे उन्होंने अपनी पोती के साथ बांटा। अब अपनी इस पहल के जरिए सुषमा द्विवेदी हिंदू धर्म में हो रहे बड़े बदलाव का प्रतीक बन गई हैं। हिंदू धर्म में महिलाएं बढ़-चढ़कर नेतृत्व की भूमिका में आने लगी हैं। ऐसा सामुदायिक गतिविधियों और सांगठनिक भूमिकाओं के अलावा अगली पीढ़ी को ज्ञान के संप्रेषण के जरिए हो रहा है।सुषमा के दादा और दादी ही हिंदू धर्म का स्रोत थे। उन्होंने मांट्रियल में हिंदू मंदिर बनवाने में अहम भूमिका निभाई थी। यह मंदिर द्विवेदी के बचपन का अहम केंद्र रहा।
अमेरिका में सुषमा द्विवेदी को जो हासिल हुआ, वह हासिल करना आसान नहीं। फ्लोरिडा यूनिवर्सिटी में धर्म पढ़ाने वालीं प्रोफेसर वसुधा नारायण बताती हैं कि हिंदू धर्म में अलग-अलग मंदिरों के बोर्ड अलग-अलग होते हैं। वे कहती हैं, ‘मैं यह भी कहूंगी कि महिलाएं कई बार अलग-अलग तरीकों से अपने लिए जगह बनाती हैं। मसलन हिंदू टेंपल सोसायटी आफ नार्थ अमेरिका की अध्यक्ष हैं डाक्टर मैसोरकर हैं, जो अमेरिका में सबसे पुराने मंदिरों का संचालन करती हैं।’
मैसोरकर एक चिकित्सक हैं और 1980 के दशक में वह मंदिर प्रबंधन से जुड़ीं कई साल से वह इसके प्रबंधन में सक्रिय हैं और अलग-अलग कार्यक्रमों के जरिए समाज को सक्रिय रखती हैं। हालांकि शुरुआत में प्रबंधक बनना उनका लक्ष्य नहीं था। वह बताती हैं, मैं अध्यक्ष बनने के लिए सक्रिय नहीं हुई थी। लेकिन जब हालात ने मजबूर किया तो मैंने चुनौती स्वीकार की।
मैसोरकर मानती हैं कि महिलाओं में ज्ञान को दूसरों तक पहुंचाने की क्षमता होती है, खासकर बच्चों में। और इसी गुण के कारण वह नेतृत्व की भूमिका में आ सकती हैं। वह कहती हैं कि पुरातन समय से कितनी ही महिलाओं ने नेतृत्व किया है। और उनका योगदान एक मिसाल है। ऐसा नहीं है कि महिलाओं को पुजारी ही बनना पड़ेगा, उनमें ज्ञान के प्रसार की काबिलियत होनी चाहिए।