उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि जमानत नहीं मिलने की वजह से बड़ी संख्या में लोगों का लंबे समय तक जेल में पड़े रहना आपराधिक न्यायशास्त्र या समाज के लिये अच्छा नहीं है। शीर्ष अदालत ने न्यायाधीशों से कहा कि वे हिरासत के आदेश सुनाने के दौरान करुणा और मानवीय रवैया दिखाएं। शीर्ष अदालत ने कहा कि आपराधिक न्यायशास्त्र की बुनियादी अभिधारणा दोषी पाए जाने तक निर्दोष होने की है। कभी-कभार इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि आरोपी को जमानत से वंचित करना सही बात है जो मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ ने यह भी कहा कि जमानत की शर्त इतनी कठोर नहीं होनी चाहिये कि उसका अनुपालन ही नहीं हो सके, और जमानत भ्रम हो जाए।
पीठ ने कहा कि आपराधिक न्यायशास्त्र के महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक है कि जमानत दिया जाना सामान्य नियम है और व्यक्ति को जेल में डालना अपवाद है।पीठ ने कहा, ‘‘दुर्भाग्य से इन बुनियादी सिद्धांतों में से कुछ ने दृष्टि खो दी है, जिसका परिणाम है कि अधिक से अधिक लोग लंबे समय तक जेल में रखे जा रहे हैं। इससे न तो हमारे आपराधिक न्यायशास्त्र और न ही हमारे समाज का भला होगा।’’ पीठ ने कहा कि यद्यपि जमानत देना या नहीं देना पूरी तरीके से मामले पर सुनवाई कर रहे न्यायाधीश का विशेषाधिकार है, लेकिन न्यायिक विशेषाधिकार के इस्तेमाल को उच्चतम न्यायालय और देश के सभी उच्च न्यायालयों ने अपने कई फैसलों के जरिये सीमित किया है।
पीठ ने कहा कि जमानत याचिका पर फैसला करने के दौरान क्या आरोपी को जांच के दौरान गिरफ्तार किया गया, उसके अतीत की पृष्ठभूमि, अपराध में उसकी कथित भूमिका, जांच में शामिल होने की उसकी इच्छा और गरीबी या गरीब का दर्जा जैसे कई कारकों पर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। शीर्ष अदालत ने कहा, ‘‘संक्षेप में कहें तो संदिग्ध या आरोपी को पुलिस या न्यायिक हिरासत में भेजने के लिये आवेदन पर विचार करने के दौरान न्यायाधीश को मानवीय रवैया अपनाने की जरूरत है।