सर्वोच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ ने 23 जुलाई, 2024 को जीएम यानी आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों की व्यावसायिक खेती के सिलसिले में विभाजित निर्णय दिया था। एक न्यायाधीश ने दूषित पर्यावरण और उसके मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के मद्देनजर जीएम सरसों की कारोबारी बिक्री के विरुद्ध निर्णय दिया। वहीं, पीठ में शामिल दूसरे न्यायाधीश ने जीएम सरसों की खेतों में परीक्षण करने की अनुमति कड़े सुरक्षा प्रबंधों के साथ देने का समर्थन किया। जीएम फसलों से संबंधित यह मामला वर्ष 2004 से न्यायालय में विचाराधीन है। इसको लेकर अनेक विवादित मुद्दे चर्चा में रहे, जबकि केंद्र सरकार जीएम फसलों की पैदावार के पक्ष में है।

अंतर्निहित जटिलताओं और विसंगतियों को देखते हुए न्यायालय ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि हितधारकों और विशेषज्ञों से परामर्श कर चार माह के भीतर कारगर राष्ट्रीय नीति बनाई जाए। दरअसल, दो दशक से जीएम फसलें भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में बहस और विवाद का विषय बनी हुई हैं। जहां इन्हें पारंपरिक खेती और किसानों के विरुद्ध माना जा रहा है, वहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियां इन्हें बढ़ती आबादी के अनुरूप पैदावार के अनुकूल मान कर चल रही हैं। इस बहाने वे दुनिया में बीज, फसल और खेती के कारोबार को अपने नियंत्रण में लेने की कवायद में लगी हैं।

देश में बीटी कपास से रुई उत्पादन के दो दशक बाद पहली खाद्य फसल जीएम बीज से सरसों की व्यावसायिक खेती को विशेषज्ञ समिति ने अनुमति दे दी है। इससे बहुप्रतीक्षित आधुनिक तकनीक आधारित सरसों की फसल का उत्पादन शुरू हो जाएगा। इस खेती को शुरू करने का कारण खाद्य तेल के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने का बताया जा रहा है। आनुवंशिक अभियांत्रिकी अनुमोदन समीति (जीईएसी) की 147वीं बैठक में समिति ने सरकार से इसकी खेती की जाने की सिफारिश की है।

बीज को खेतों में नहीं बोने की अपील

कृषि और जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में इसे क्रांतिकारी निर्णय के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन इस सिफारिश के तत्काल बाद स्वदेशी जागरण मंच और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े भारतीय किसान संघ (बीकेएस) ने जीएम बीज से सरसों की खेती करने की अनुमति दिए जाने पर कड़ा विरोध जताते हुए कहा है, ‘जीएम सरसों की खेती खतरनाक है। इसलिए केंद्र सरकार से अपील है कि वह तय करे कि इस बीज को खेतों में कभी न बोया जाए।’ दूसरी तरफ बीकेएस ने कहा है कि ‘भारत में किए गए किसी भी अध्ययन पर भरोसा किए बिना यह निर्णय क्यों लिया गया है।

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दरअसल, जैव तकनीक बीज के डीएनए यानी जैविक संरचना में बदलाव कर उनमें ऐसी क्षमता भर देता है, जिससे उन पर कीटाणुओं, रोगों और विपरीत पर्यावरण का असर नहीं होता। बीटी की खेती और इससे पैदा फसलें मनुष्य और मवेशियों की सेहत के लिए कितनी खतरनाक हैं, इसकी जानकारी निरंतर आती रही है। बावजूद इसके, इनके बीज और पौधे तैयार किए जा रहे हैं। भारत में 2010 में केंद्र सरकार द्वारा बीटी कपास की खेती की अनुमति दी गई थी। इसके नतीजे खतरनाक साबित हुए। एक जांच के मुताबिक जिन भेड़ों और मेमनों को बीटी कपास के बीज खिलाए गए, उनके शरीर पर रोएं कम आए और बालों का पर्याप्त विकास नहीं हुआ। उनके शरीर का भी संपूर्ण विकास नहीं हुआ। इसका असर ऊन के उत्पादन पर पड़ा। बीटी बीजों का सबसे दुखद पहलू है कि ये बीज एक बार चलन में आ जाते हैं, तो परंपरागत बीजों का वजूद ही समाप्त कर देते हैं।

सात फीसदी बची है कपास की परंपरागत खेती

बीटी कपास के बीज पिछले एक दो दशक से चलन में हैं। कई जांचों से तय हुआ है कि कपास की 93 फीसद परंपरागत खेती को कपास के ये बीटी बीज लील चुके हैं। सात फीसद कपास की जो परंपरागत खेती बची भी है, वह उन दूरदराज के इलाकों में है, जहां बीटी कपास अभी पहुंचा नहीं है। नए परीक्षणों से यह आशंका बढ़ी है कि मनुष्य पर भी इसके बीजों से बनने वाला खाद्य तेल बुरा असर डाल रहा है। बतौर प्रयोग, बीटी कपास के बीज जिन-जिन मवेशियों को चारे के रूप में खिलाए गए हैं, उनकी रक्त धमनियों में श्वेत और लाल कणिकाएं कम हो गईं। ऐसे दुधारू पशुओं के दूध का सेवन करने वाले मनुष्यों का स्वास्थ्य भी खतरे में है। महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में सबसे ज्यादा कपास की खेती की गई थी, किंतु देखने में आया कि सबसे ज्यादा किसानों ने इसी क्षेत्र में आत्महत्याएं कीं।

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जिस बीटी बैंगन के बतौर प्रयोग, उत्पादन की मंजूरी जीईएसी ने दी थी, उसे परिवर्धित कर नए रूप में लाने की शुरुआत कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय धारवाड़ में हुई थी। इसके तहत बीटी बैंगन, यानी ‘बोसिलस थुरिंजिएंसिस जीन’ मिला हुआ बैंगन खेतों में बोया गया था। इसके प्रयोग के वक्त जीएम बीज निर्माता कंपनी महिको ने दावा किया था कि जीएम बैंगन के अंकुरित होने के वक्त इसमें बीटी जीन सुई से प्रवेश कराएंगे, तो बैंगन में जो कीड़ा होगा, वह उसी में मर जाएगा। मसलन, जहर बैंगन के भीतर ही रहेगा और यह आहार बनाए जाने के साथ मनुष्य के पेट में चला जाएगा।

बीटी जीन में एक हजार गुना बीटी कोशिकाओं की मात्रा अधिक है, जो मनुष्य या अन्य प्राणियों के शरीर में जाकर आहार तंत्र की प्रकृति को प्रभावित कर देती है। इसलिए इसकी मंजूरी से पहले स्वास्थ्य पर इसके असर का प्रभावी परीक्षण जरूरी था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया था। बीटी बैंगन की ही तरह गोपनीय ढंग से बिहार में बीटी मक्का का प्रयोग शुरू किया गया था। इसकी शुरुआत अमेरिकी बीज कंपनी मोंसेंटो ने की थी। लेकिन कंपनी द्वारा किसानों को दिए भरोसे के अनुरूप जब पैदावार नहीं हुई तो किसानों ने शर्तों के अनुसार मुआवजे की मांग की। मगर कंपनी ने अंगूठा दिखा दिया।

भारत के कृषि और डेयरी उद्योग पर काबू करना चाहता है अमेरिका

दरअसल, अमेरिका भारत के कृषि और डेयरी उद्योग पर काबू करना चाहता है, ताकि यहां के बड़े और बुनियादी जरूरत वाले बाजार पर उसका कब्जा हो जाए। इसलिए जीएम प्रौद्योगिकी से जुड़ी कंपनियां और चंद कृषि वैज्ञानिक भारत समेत पूरी दुनिया को खाद्य तेलों के मामले में आत्मनिर्भर बनाने के बहाने इस तकनीक की मार्फत खाद्य सुरक्षा की गारंटी का भरोसा जताते हैं। पर इस परिप्रेक्ष्य में भारत को सोचने की जरूरत है, क्योंकि बिना जीएम बीजों का इस्तेमाल किए ही, पिछले ढाई दशक में हमारे खाद्यान्न उत्पादन में पांच गुना बढ़ोतरी हुई है। मध्यप्रदेश में बिना जीएम बीजों के ही अनाज और फल-सब्जियों का उत्पादन बढ़ा है। जाहिर है, हमारे परंपरागत बीज उन्नत किस्म के हैं और वे भरपूर फसल पैदा करने में सक्षम हैं। इसीलिए अब कपास के परंपरागत बीजों से खेती करने के लिए किसानों को कहा जा रहा है। आनुवंशिक परिवर्धित बीजों से खेती करने के बजाय, हमें भंडारण की समुचित व्यवस्था दुरुस्त करने की जरूरत है। ऐसा न होने के कारण हर साल लाखों टन खाद्यान्न खुले में पड़े रहने की वजह से सड़ जाता है।

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