आर्टिकल 370 खत्म करने के केंद्र सरकार के फैसले का कई लोगों ने विरोध किया था। महाराष्ट्र के एक कॉलेज प्रोफेसर के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी क्योंकि उसने व्हाट्सएप स्टेटस में आर्टिकल 370 को निरस्त करने की आलोचना और पाकिस्तान को उसके स्वतंत्रता दिवस पर शुभकामनाएं दी थी। इसी मामले को लेकर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि यह भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमारी पुलिस को संवेदनशील बनाने और शिक्षित करने का समय है।

सभी को आलोचना का अधिकार- सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एएस ओका और उज्जल भुइयां की पीठ ने कहा, “भारत के प्रत्येक नागरिक को आर्टिकल 370 को निरस्त करने और जम्मू-कश्मीर की स्थिति में बदलाव की कार्रवाई की आलोचना करने का अधिकार है। जिस दिन इसे निरस्त किया गया उस दिन को ‘काला दिवस’ के रूप में मनाकर विरोध करना पीड़ा की अभिव्यक्ति है। यदि राज्य के कार्यों की हर आलोचना या विरोध को धारा 153A के तहत अपराध माना जाएगा, तो लोकतंत्र जीवित नहीं रहेगा।”

भारतीय दंड संहिता की धारा 153-A धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास, भाषा, आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना और सद्भाव बनाए रखने के लिए खिलाफ कार्य करने पर लागू होता है। पीठ का फैसला जावेद अहमद हजाम की याचिका पर आया, जो कोल्हापुर के एक कॉलेज में प्रोफेसर थे। 10 अप्रैल, 2023 को बॉम्बे हाई कोर्ट ने एफआईआर रद्द करने की उनकी याचिका खारिज कर दी थी।

जानिए पूरा मामला

13 अगस्त और 15 अगस्त 2022 के बीच, माता-पिता और शिक्षकों के एक व्हाट्सएप ग्रुप का हिस्सा रहे प्रोफेसर ने कथित तौर पर स्टेटस में दो पोस्ट किए। उन्होंने लिखा, “5 अगस्त काला दिवस जम्मू और कश्मीर और 14 अगस्त हैप्पी इंडिपेंडेंस डे पाकिस्तान।” इसके अलावा व्हाट्सएप स्टेटस में यह था, “अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया गया, हम खुश नहीं हैं।” आरोपों के आधार पर कोल्हापुर के हटकनंगले पुलिस स्टेशन द्वारा आईपीसी धारा 153-A के तहत एक FIR दर्ज की गई थी।

जस्टिस ओका और भुइयां की पीठ ने गुरुवार को अपने फैसले में कहा, “वैध तरीके से असहमति का अधिकार अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत है। प्रत्येक व्यक्ति को दूसरों के असहमति के अधिकार का सम्मान करना चाहिए। सरकार के फैसलों के खिलाफ शांतिपूर्वक विरोध करने का अवसर लोकतंत्र का एक अनिवार्य हिस्सा है। वैध तरीके से असहमति के अधिकार को अनुच्छेद 21 को सार्थक जीवन जीने के अधिकार के एक हिस्से के रूप में माना जाना चाहिए।”