पत्रकार आरवी स्मिथ लिखते हैं, “पटपड़गंज का नाम लेते ही लोग नाक-भौंह सिकोड़ने लगते हैं और पूछते हैं कि आखिर यह है कहां?” लेकिन जानकारी लिए बता दें कि यमुना से सटे जिस पटपड़गंज में आज रिहायशी और कारोबारी दुनिया बस गई है, वहां कभी भयंकर युद्ध हुआ था। 11 सितंबर, 1803 को अंग्रेजों के खिलाफ मराठा और मुगल सेना ने यहां युद्ध लड़ा था। तीन दिनों तक चले इस युद्ध में अंग्रेजों की जीत हुई थी और मुगल हार गए थे। स्मिथ ने इस बात का जिक्र अपनी किताब के एक चेप्टर ‘Patparganj- Then and Now’ में किया है।

वास्तव में अपनी जीत को याद रखने के लिए 1916 में अंग्रेजों ने एक ‘विजय स्तंभ’ भी बनाया। इस विजय स्तंभ पर उन्होंने युद्ध का ब्यौरा भी पेश किया। आज की तारीख में यह स्तंभ नोएडा गोल्फ कोर्स के बीचो-बीच स्थित है। हालांकि, इस जगह पर सिवाय गोल्फ खेलने वालों और कर्मचारियों के कोई भी नहीं जाता।

पटपड़गंज में हुए युद्ध की विस्तृत जानकारी के अलावा इसके नाम को लेकर भी काफी लोगों की रुचि बनी रहती है। मुगलकाल से पहले भी पटपड़गंज का अस्तित्व रहा है। लेकिन, इसका नाम पटपड़गंज कैसे पड़ा गया, इसको लेकर सभी उत्सुक नज़र आते हैं। 84 साल के उर्दू शायर और आलोचक शमसुर रहमान फारुक़ी पटपड़गंज के नाम का मतलब समझाते हैं। उनके मुताबिक, “उर्दू में ‘पटपड़’ का मतलब जमीन का नीचला समतल क्षेत्र होता है और इसमें खेती का काम नहीं किया जा सकता। जबकि, गंज का मतलब बाजार होता है। इस प्रकार से इस क्षेत्र का नाम ‘पटपड़गंज’ पड़ गया है।

फारुक़ी बताते हैं, “इस क्षेत्र में पहले घना जंगल था। जिसकी वजह से मराठा और मुगल युद्ध हार गए। दरअसल, उनका सैन्य दस्ता जंगल में तीतर-बीतर हो गया और उनके बीच का तालमेल खत्म हो गया। 19वीं सदी के आखिर तक यहां कोई खेती-बाड़ी काम भी नहीं होता था।” गौरतलब है कि फारुकी ने पटपड़गंज के युद्ध पर 2006 में ‘कई चांद थे सर-ए-आसमान’ नाम से किताब भी लिखी है।