क्या भारत में (आर्थिक) संपत्ति की बढ़ती असमानता आर्थिक विकास के रास्ते में रुकावट पैदा कर रही है? दुनिया के आर्थिक मंचों पर और नीति निर्धारकों-विशेषज्ञों के बीच इन दिनों यह सवाल शिद्दत से पूछा जा रहा है। बीते तीन दशकों में भारत की विकास यात्रा की कहानी दरअसल उपभोग आधारित रही है। नीति निर्धारकों के बीच यह विषय शोध का रहा है।
विशेषज्ञ विकास और निजी उपभोग के बीच गैर औपचारिक रिश्ते के प्रायोगिक विश्लेषण करते रहे हैं। हाल में भारतीय अर्थव्यवस्था में गिरावट और फिर 2020-21 के दौरान नकारात्मक विकास को ही क्रमश: निजी उपभोग व्यय वृद्धि में गिरावट और फिर खपत की मांग में कमी के लिए जिम्मेदार ठहराया गया। इन मुद्दों पर विश्व असमानता डेटाबेस के आंकड़े, विश्व बैंक, एडीबी के हाल में जारी आंकड़ों को लेकर सरकार और विशेषज्ञों में गंभीर मंथन शुरू हो गया है।
क्या है स्थिति
इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में आर्थिक असमानता बढ़ रही है। विश्व असमानता डेटाबेस के आंकड़ों से साफ है कि यह दोनों ही आय और संपत्ति की असमानता को लेकर सच है। यह तथ्य भी सामने आया है कि आय असमानता के मुकाबले में संपत्ति की असमानता ज्यादा तेजी से बढ़ रही है। साल 1991 और 2020 के बीच संपत्ति की असमानता काफी तेजी से बढ़ी है। साल 1961 और 1991 के मुकाबले उदारीकरण के दौर के बाद के दिनों में यह तेज गति से बढ़ी है। साल 1961 में शीर्ष की एक फीसद आबादी के पास 11.9 फीसद संपत्ति थी, जो 1991 में बढ़कर 16.1 फीसद हो गई।
साल 2020 में इसी आबादी के हिस्से के पास 42.5 फीसद संपत्ति आ गई। दूसरी ओर, 50 फीसद आबादी के पास जो संपत्ति थी, वह साल 1961 के 12.3 फीसद के मुकाबले गिरकर साल 2020 में 2.8 फीसद हो गई। इस कारण लोगों के बीच संपत्ति को लेकर भारी अंतर आ गया। दूसरी ओर, शुरू में 1961 और 1991 के बीच आय असमानता घट रही थी। यह 1991 के बाद बढ़ने लगी।
सकल घरेलू उत्पाद और उपभोग दर
भारतीय अर्थव्यवस्था में उच्च सकल घरेलू विकास (जीडीपी) दर को विशेष रूप से 1991 के बाद उपभोग में उच्च वृद्धि की अवधि के साथ मिला दिया जाता रहा है। वर्ष 1991 के बाद भी असमानता बढ़ी, लेकिन मौजूदा अवधि में किसी तरह की असामनता में बढ़ोतरी लंबी अवधि के लिए अर्थव्यवस्था में विकास को लेकर प्रतिकूल असर डाल रही है। इसमें दो राय नहीं कि आय और संपत्ति आपस में जुड़े हुए हैं, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर दोनों अलग हैं। आय किसी आर्थिक इकाई के लिए वित्तीय संसाधनों का प्रवाह है, जो एक खास साल में, गृहस्थ, फर्म आदि, मजदूरी से लेकर वेतन, लाभ, निवेश, सरकारी ट्रांसफर और दूसरे कई संसाधन का संयोजन है।
शीर्ष एक फीसद आबादी के हाथों में धन के कुल अनुपात में बढ़ोतरी दर्ज की गई है, हालांकि आय असमानता में इसी अनुपात में तेजी दर्ज नहीं की गई। जाहिर है, शीर्ष एक फीसद (शीर्ष 10 फीसद तक) आबादी द्वारा ऐतिहासिक रूप से जो आय अर्जित की गई, वह बचत का हिस्सा बन गई, या फिर संपत्ति बनाने में उसका इस्तेमाल हुआ। दूसरे शब्दों में, अमीर लगातार अमीर बनते जा रहे हैं- यह प्रवृति तेजी, लेकिन टिकाऊ विकास के लक्ष्य में बाधा पहुंचाती है।
उपभोग आधारित विकास की रणनीति
भारत जैसी कई उभरती अर्थव्यवस्थाओं द्वारा उपभोग-आधारित-विकास रणनीति का सहारा लिया गया है, जो अर्थव्यवस्था के भीतर निवेश और उत्पादन को बढ़ावा देने के कई दूसरे तरीकों में से एक है। चीन ने अपनी 14 वीं पंचवर्षीय योजना के तहत इस रणनीति को बढ़ावा दिया, लेकिन बाद में इससे पीछे हट गया। इस रणनीति के तहत मजदूरी और वेतन को बढ़ाया गया, जिससे नागरिकों की क्रय शक्ति में इजाफा हो सके। यह रणनीति निर्यात-आधारित-विकास से खपत-आधारित विकास में बदलाव और वैश्विक आर्थिक मंदी की वजह से सामने आई।
इसने साल 2008 के बाद ज्यादातर अमेरिका और यूरोपीय संघ को प्रभावित किया था, जिससे चीनी निर्यात की मांग में कमी आई। दूसरी ओर, भारत के लिए विकास को आगे बढ़ाने के लिए खपत की मांग पर जोर देना नीतिगत हस्तक्षेप के बजाय व्यवस्थित रूप से आगे बढ़ा। इसलिए अर्थव्यवस्था में तेजी के लिए साल 2020 में कोरोना महामारी के दौरान वित्तीय पैकेज की जरूरत पड़ी। अब अर्थशास्त्री चेतावनी दे रहे हैं कि निजी उपभोग की हिस्सेदारी को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
आंकड़ों के आईने में
भारतीय रिजर्व बैंक के उपभोक्ता विश्वास सर्वेक्षण के मुताबिक, उपभोक्ताओं का विश्वास अब तक के सबसे निचले स्तर पर आ गया है। उपभोक्ता विश्वास सूचकांक सितंबर में 49.9 पर आ गया जबकि ये जुलाई में 53.8 पर था। खाद्य मुद्रास्फीति दो अंकों में दर्ज की गई है। प्रोटीन आधारित सामान जैसे अंडे, मांस व मछली, तेल, सब्जियों और दालों की कीमतों के कारण महंगाई बढ़कर 11.07 फीसद तक पहुंच चुकी है। केंद्रीय बैंक ने कहा है कि भारत की अर्थव्यवस्था 1947 में आजादी के बाद पहली बार तकनीकी मंदी में प्रवेश कर चुकी है।
विशेषज्ञों का मानना है कि खाद्य मुद्रास्फीति की समस्या जितनी दिख रही है उससे कहीं ज्यादा बढ़ी है। उच्च मुद्रास्फीति, नौकरियों का जाना और वेतन कटौती उपभोक्ता की क्रय शक्ति को प्रभावित करने वाले हैं। फिलहाल त्योहारी सीजन के कारण अर्थव्यवस्था में मांग में तेजी दिखाई दे रही है।
तेजी जनवरी-फरवरी तक खत्म हो जाएगी, उसके बाद असली स्थिति सामने आएगी।
क्या कहते हैं जानकार
सरकार को चाहिए कि वह बाजार को सक्षम बनाए, जिससे अर्थव्यवस्था में नौकरियां पैदा की जा सकें और साथ ही पूंजी का निर्माण किया जा सके। आर्थिक विकास के लिए कहीं ज्यादा समन्वित दृष्टिकोण की जरूरत है-बजाय इसके कि विकास को सिर्फ अभाव की दृष्टि से ही देखा जाए।
- मैत्रीश घटक, अर्थशास्त्री, लंदन स्कूल आफ इकोनामिक्स में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर
पूर्णबंदी में छूट देने और आवाजाही बढ़ाने पर भी अगर खाद्य मुद्रास्फीति बनी रहती है तो ये दिखाता है कि समस्या ज्यादा जटिल है और भविष्य में भी बनी रहने वाली है। हम यह नहीं कह सकते कि मुद्रास्फीति अभी विकास को सीधे तौर पर प्रभावित कर रही है। अगर मुद्रास्फीति कई तिमाहियों तक ऊंची बनी रहती है तो यह अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाएगी।
- अनघा देवधर, अर्थशास्त्री