कोरोना महामारी ने देखते-देखते मौत को एक असंवेदनशील आंकड़ा और चढ़ते-गिरते ग्राफ में तो बदल ही दिया, इसने दुनिया और समाज को मानसिक तौर पर खासा आघात भी पहुंचाया है। इस आघात के शिकार खासतौर पर छात्र और शिक्षक किस तरह हो रहे हैं, यह कोरोनाकाल का एक ऐसा त्रासद अनुभव है, जिससे लंबे समय तक हमें जूझना पड़ सकता है। महामारी के मौजूदा दौर में तालीम की दुनिया में पसरे तनाव पर विशेष

कोविड-19 के संकट को लेकर शुरुआत से ही यह बात कही जा रही है कि यह सेहत से आगे सभ्यता का संकट है। समाज, सरकार से लेकर मनुष्य के विकास और उसकी आधुनिकता ने इस संकट के आगे जिस तरह हाथ खड़े किए हैं, वह मानवीय इतिहास का एक नया अनुभव है। अब जबकि लोगों की जीवनचर्या थोड़ी पटरी पर लौटनी शुरू हो रही है तो वे सारे खतरे सामने नजर आ रहे हैं, जिसने इस महामारी के कारण रोजगार से लेकर शिक्षा की दुनिया को हमें विकल्पों में खोजने पर मजबूर कर दिया है।

और बातों को छोड़ अकेले छात्रों की बात करें तो कोरोनाकाल ने उनकी पूरी मनोवैज्ञानिक रचना बदल दी है। शिक्षण संस्थान और शिक्षक इस दौरान अपने विवेक और कर्तव्य के कारण छात्रों से ‘आनलाइन’ जरूर जुड़े हैं, पर इससे शिक्षण की सहजता बहाल होनी मुश्किल है।

अच्छी बात यह है कि अब हमारे आगे चुनौतियां क्या हैं और आगे करना क्या है, इस बारे में कुछ ठोस राय के साथ गहरे अनुभवों के भी हवाले हैं। इन चुनौतियों और अध्ययनों का अक्श सरकारी नीतियों में तो खैर इतनी जल्दी दिखने से रहा, पर ये अभिभावकों के साथ पूरे समाज को इस बात से जरूर आगाह कर रहे हैं कि एक असमान्य स्थिति का सामना करने के लिए नए विवेक और आंतरिक उत्साह की दरकार है। अगर अब भी हम सुबहके भूले को शाम घर लौट आने की तरह पुराने दिन और हालात की वापसी की बाट जोह रहे हैं, तो यह नई बनी परिस्थिति से सीधे-सीधे आंख चुराना है।

सजल अनुभव
‘आनलाइन क्लास’ का अनुभव कितना तनाव भरा है, इस बारे में अब कई अनुभव और अध्ययन हमारे सामने हैं। दिल्ली की एक स्कूल की प्राचार्या अनिता भारती एक ऐसे ही तकलीफदेह अनुभव का जिक्र करते हुए बताती हैं- पिछले दिनों मैं गणित की एक कक्षा का निरीक्षण कर रही थी। शिक्षिका जूम पर पढ़ा रही थी। मैंने उनसे कहा कि आपको अपने पढ़ाने के तरीके को थोड़ा और बेहतर बनाना चाहिए क्योंकि आप जैसे पढ़ा रही हैं तो मुझे ही समझ में नहीं आया तो बच्चों को क्या आएगा।

मेरी इस बात पर वे रोने लगीं। मैंने कहा कि आप रोने क्यों लगीं, मैं तो आपको बस सुझाव दे रही थी। उनकी उम्र 58 साल है। उन्होंने कहा कि बहू और बेटा बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करते हैं। वे दोनों घर से ही काम कर रहे हैं तो उनके बच्चे भी मुझे ही संभालने पड़ रहे हैं।

वे दोनों तो कंप्यूटर पर उलझे रहते हैं, अब मैं दादी हूं तो दो बच्चों को भी देखना पड़ रहा है और अपनी क्लास भी लेनी होती है। घर का काम भी बढ़ गया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने घर से काम करने की सुविधा तो दी है लेकिन आपको चौबीसों घंटे आनलाइन रहना पड़ता है।

उस शिक्षिका के लिए अपनी कक्षा लेने के लिए तकनीक से जूझना तो चुनौती है ही, एक दादी के तौर पर बच्चों को देखने की जवाबदेही भी सिर पर है। इसके साथ एक तनाव कोरोना महामारी का भी है कि खुद को स्वस्थ रखना है, संक्रमण से बचे रहना है।

दोतरफा संकट
साफ है कि महामारी के इस संकट के बीच अगर बच्चों के लिए पढ़ना मुश्किल है तो उन्हें पढ़ा रहे शिक्षकों की भी मुश्किल कम नहीं है। ‘आनलाइन शिक्षा’ और संवाद का आलम यह है कि बच्चे आधी रात को भी अपने शिक्षकों को फोन कर देते हैं। ज्यादातर शिक्षक इस बात के लिए बच्चों को डांटने-टोकने से परहेज करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि बच्चे भी ऐसा जानबूझकर या शरारतन नहीं कर रहे बल्कि उनके ऊपर भी पढ़ाई में पिछड़ने का बोझ है।

पूजा श्रीवास्तव बिहार के सिवान जिले में एक सरकारी स्कूल में पढ़ाती हैं। सोशल मीडिया पर तर्क और विमर्श की जो दुनिया रोज बन-बदल रही है, वह वहां भी सक्रिय है। कोरोना संकट के बीच शिक्षा और संवेदना के मोर्चे पर जिस तरह के तल्ख अनुभव और हालात सामने आए, पूजा उसे लेकर खासी परेशान हैं। वे कहती हैं कि इस महामारी ने सरकारों के रवैये पर सवालिया निशान लगाने के साथ हमारी सामूहिक वैज्ञानिक चेतना को भी कठघरे में ला खड़ा किया। इस दौरान मनुष्य की असंवेदनशीलता जिस आक्रामक रूप में दिखी, वह तो काफी भयावह है।

चुनौती और शिक्षक
महानगरों से दूर छोटे शहरों और कस्बों में बच्चों की तालीम इस बीच कैसे प्रभावित हुई, उस बारे में पूजा अपना एक अनुभव साझा करती हैं। वो बताती हैं कि इस दौरान घर में एक 14 महीने के बच्चे के साथ कई मुश्किलें आईं, जिसमें सबसे बड़ी मुश्किल घर के सभी सदस्यों को पूर्ण स्वच्छता के कायदों के पालन के लिए तैयार करना था। पूजा जिम्मेदार और संवेदनशील शिक्षिका हैं। पर उन्हें मलाल है कि इस बच्चे के मामले में वो पूरी तरह नाकाम रहीं। दिलचस्प यह कि नाकामी के कारण के तौर पर समाज में महिला की हैसियत और मनोदशा से जुड़े सवाल भी खड़े हुए।

खुद पूजा के ही शब्दों में, ‘बच्चे के घरवाले हर अनुरोध को या तो हंसी में उड़ाते रहे या नाक का सवाल बना दिया। खास कर बहू से सीखना भारतीय परिवारों में इज्जत का सवाल बन जाता है। कोई बाहर जाए तो लौटकर कपड़े बदल ले, यह हिदायत उन्हें अपनी शान के खिलाफ लगने लगी। मैं बार-बार फर्श सैनिटाइज करती रही, लेकिन लोग बाहर से आकर उसे रौंदते रहे।

घर के कई सदस्य दिल्ली में संक्रमण के बढ़ते मामलों के कारण घर लौट आए लेकिन यहां आकर एकांतवास में रहना उन्हें शान के खिलाफ लगा। ऐसे में एक संयुक्त परिवार और अपेक्षाकृत छोटे घर में अपनी चौहद्दी तय करना कितना कठिन था ये मेरे लिए शब्दों में बताना भी मुश्किल है।’ पूजा कहती हैं कि इस दौरान मुझे साफ तौर पर यह महसूस होता रहा कि लोग एक-दूसरे के लिए तनिक भी संवेदनशील नहीं हैं।

साफ है कि सवाल शिक्षा से आगे उस सामाजिक रचना का है, जिसमें तर्क से ज्यादा छोटा-बड़ा, ऊंच-नीच की धारणा पर जोर है। ऐसे में एक विषम स्थिति से निपटने की तैयारी और हिदायतों का कोई मतलब नहीं रह जाता है। अब बिहार सरकार ने नौवीं और दसवीं के विद्यार्थियों के लिए स्कूल खोल दिए हैं। बहुत जल्द शायद बाकी बच्चों के स्कूल भी खुलेंगे। इसमें उनकी सुरक्षा एक बहुत जटिल प्रश्न है।

विशेषकर तब जब अधिकतर लोग बीमारी को ही अफवाह मान रहें हैं, सबने मास्क और सैनिटाइजेशन जैसी न्यूनतम चीजें भी छोड़ दी हैं, जिसमें शिक्षक भी शामिल हैं। ऐसे में हमारा देश कोरोना से पार पा सकेगा, इस भरोसे की जमीन कितनी भूरभूरी है, यह समझा जा सकता है।

मुश्किल वक्त
कुल मिलाकर यह मुश्किल वक्त है। जब भी कोरोनाकाल में सबसे बड़ी चुनौती का प्रश्न आता है तो वैज्ञानिक सोच के अभाव की सचाई उभर कर सामने आती है। यह अभाव न सिर्फ मानसिक तनाव बढ़ाता है बल्कि इस कारण महामारी से बचाव या इसे रोकने के दूसरे विकल्प भी बेमानी हो जाते हैं। कोरोना संकट ने परिवार के इर्दगिर्द रचे गए सारे फलसफों को सवालिया बना दिया है। परिवार और समुदाय के तौर पर हमारी असफलता इस संक्रमण को और बढ़ा रहा है।