वायुसेना के ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) और अमेरिकी अंतरिक्ष एजंसी नासा के साझा मिशन ‘एक्सिओम-4’ के तहत अंतरिक्ष में रवाना हुए, तो उनके कंधे पर तिरंगा टंका था। यह तिरंगा इसकी आश्वस्ति दे रहा था कि जल्द ही भारत दुनिया का वह चौथा देश बन सकता है, जिसका कोई नागरिक स्वदेशी प्रयासों से अंतरिक्ष में पहुंचा है। यह अभियान- गगनयान मिशन होगा, जिसकी तैयारियों के सिलसिले में अंतरिक्ष और फिर अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर कई महत्त्वपूर्ण प्रयोग-परीक्षण करने वाले इस चौदह दिवसीय एक्सियम-4 मिशन ने एक ठोस नींव रखी है। मगर यहां महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि चंद्रयान और मंगलयान के बाद इसरो को इस नई कसौटी पर खरा उतरने की कितनी जरूरत है।
इस सवाल के परिप्रेक्ष्य में दुनिया में अंतरिक्ष पर्यटन और अंतरिक्ष संसाधनों के दोहन को लेकर हो रही पहलकदमियों पर नजर डालना जरूरी है। अमेरिका की निजी अंतरिक्ष कंपनी-स्पेसएक्स के संस्थापक एलन मस्क, वर्जिन गैलेक्टिक के संस्थापक रिचर्ड ब्रैनसन और अमेजन के संस्थापक जेफ बेजोस अपनी कंपनी ‘ब्लू ओरिजिन’ के अलावा जी-फोर्स वन, ब्लून, रूसी कंपनी ल्यूशिन-76 एमडीके, स्पेस एडवेंचर, प्रोजेक्ट एम-55एक्स आदि कई निजी कंपनियों के मालिक इस कोशिश में हैं कि अंतरिक्ष पर्यटन के सपने को साकार किया जाए और उसके बल पर अकूत कमाई का रास्ता खोला जा सके। इसी तरह एक मामला अंतरिक्ष की खोज और उसके (संसाधनों के) दोहन का है। अमेरिका और रूस के बाद चीन इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। वह मानव मिशन को अंतरिक्ष में भेज चुका है और आगे चलकर चंद्रमा के खनिजों के दोहन की बात भी उसके जेहन में है। साथ ही, अपने राकेटों से विदेशी उपग्रहों के प्रक्षेपण के बाजार में भी वह सेंध लगाना चाहता है।
भारत के लिए यह राहत की बात
भारत के लिए यह राहत की बात है कि पिछले कुछ अरसे में इसरो ने अपनी कामयाबियों से दुनिया के सामने अपनी क्षमता का परिचय दिया है। इससे पूरे अंतरिक्ष बाजार में खलबली मची हुई है। अंतरिक्ष अभियानों में भारत की सहभागिता को लेकर पहले जो विकसित पश्चिमी देश सवाल उठाते थे, आज वही देश अपने उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजने के लिए भारतीय राकेटों का सहारा ले रहे हैं। निस्संदेह अंतरिक्ष में भारत को आगे ले जाने की कड़ी-दर-कड़ी ये कोशिशें इन अभियानों की जटिलता और उनसे जुड़ी तैदुयारियों की झलक दिखाती हैं। लेकिन इनके बीच हमारे वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और अंतरिक्ष यात्रियों के योगदान और साझेदारियों को अनदेखा नहीं किया जा सकता, जो सबसे ज्यादा जोखिम उठाते हैं। इस नजरिए से ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला की यह अंतरिक्ष यात्रा भारत के लिए कई मायनों में महत्त्वपूर्ण है। स्क्वाड्रन लीडर राकेश शर्मा के बाद ऐसा करने वाले वे दूसरे भारतीय अंतरिक्ष यात्री हैं, जिससे अंतरिक्ष अन्वेषण में भारत की बढ़ती क्षमताओं और वैश्विक मंच पर उसकी बढ़ती भूमिका रेखांकित होती है। साथ ही, यह भारत और अमेरिका के बीच गहरे होते अंतरिक्ष सहयोग का प्रतीक है।
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शुभांशु शुक्ला की कहानी लाखों भारतीय युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनकी यात्रा दिखाती है कि कड़ी मेहनत, समर्पण और अपने सपनों पर विश्वास करके कोई भी बाधाओं को पार कर सकता है। उनके पिता चाहते थे कि वे आइएएस बनें, लेकिन उन्होंने अपने जुनून का पीछा किया और एक ऐसे क्षेत्र में उत्कृष्टता हासिल की जो भारत के लिए महत्त्वपूर्ण है। उनका यह मिशन भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम में निजी कंपनियों की बढ़ती भूमिका को भी दर्शाता है। एक्सिओम स्पेस के साथ यह साझेदारी अंतरिक्ष यात्रा को अधिक सुलभ और व्यावसायिक बनाने में मदद करती है, जिससे भारत के निजी अंतरिक्ष उद्योग को प्रोत्साहन मिलेगा।
दुनिया के तीन ताकतवर देशों में भारत
उल्लेखनीय है कि दुनिया में सिर्फ तीन देश हैं, जिन्होंने अपने प्रयासों से नागरिकों को अंतरिक्ष में भेजा है। इसमें पहली उपलब्धि सोवियत संघ (आज के रूस) के नाम है, जिसने वर्ष 1957 में दुनिया का पहला कृत्रिम उपग्रह अंतरिक्ष में छोड़ा था। इसकी सफलता से उत्साहित सोवियत संघ ने 12 अप्रैल, 1961 में अपने नागरिक यूरी एलेकसेविच गागरिन को वोस्तोक-1 नामक यान से अंतरिक्ष में भेजा था। अमेरिका ने होड़ लेते हुए इस काम में ज्यादा देरी नहीं की। उसने पांच मई, 1961 को अपने नागरिक एलन बी शेपर्ड को प्रोजेक्ट मरकरी मिशन के अंतरिक्ष यान फ्रीडम-7 से अंतरिक्ष में रवाना कर दिया था। इसके बाद से अमेरिकी अंतरिक्ष एजंसी- नासा 200 से ज्यादा मानव मिशन अंतरिक्ष में भेज चुकी है। ऐसा करिश्मा करने वालों की सूची में तीसरा देश चीन है, जिसने 15 अक्तूबर, 2003 को अपने नागरिक यांग लिवेई को यान शिंझोऊ-5 से अंतरिक्ष में भेजा था।
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वैसे तो बीते पांच-छह दशकों में कई अमीर लोग भी अंतरिक्ष की सैर कर चुके हैं और आने वाले वक्त में संभवत: सैकड़ों लोग निजी कंपनियों की मदद से यह लुत्फ उठा सकेंगे। लेकिन जो बात देश का प्रतिनिधित्व करते हुए अंतरिक्ष में जाने की है, उसकी तुलना नहीं हो सकती है। यदि भारत आगे चलकर स्वदेशी प्रयासों से अपने नागरिक को अंतरिक्ष में भेजने वाला चौथा देश बनना चाहता है, तो इसके लिए उसे काफी तैयारियों की जरूरत पड़ेगी। असल में, स्वदेशी प्रयासों से अंतरिक्ष छूने का सारा दारोमदार अब इसरो के अभियान- गगनयान पर टिका है।
अंतरिक्ष को लेकर एक नई इबारत रचने को बेताब भारत
इसरो के मुताबिक, इस महान उद्देश्य के लिए तैयार किए जा रहे विशेष यान- गगनयान का 70 फीसदी काम पूरा भी हो चुका है। उम्मीद है कि अगले एक या दो वर्षों में गगनयान अपने अभियान पर रवाना होगा। वैसे तो अब तक मिली कामयाबियों के आधार पर भारत अंतरिक्ष के बाजार में अमेरिका-रूस जैसी हस्तियों को टक्कर दे रहा है। इस हैसियत में आने के क्रम में वह दृश्य किसी को नहीं भूलता है, जब केरल के थुंबा से छोड़े गए पहले राकेट को साइकिल पर रखकर ले जाया गया था। पर आज का भारत अब अंतरिक्ष को लेकर एक नई इबारत रचने को बेताब है। यह नई उपलब्धि भारतीय नागरिकों को अंतरिक्ष में पहुंचाने की होगी।
यह बेशक एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होगी पर इससे जुड़ा अहम सवाल यह है कि क्या भारत यह काम सिर्फ इसलिए करना चाहता है कि इससे उसे दुनिया में ऐसे चौथे देश के रूप में प्रतिष्ठा मिल जाएगी, जो अंतरिक्ष में अपने नागरिकों को भेज सकता है या फिर इसका कोई बड़ा उद्देश्य है। इसका इशारा कई मौकों पर राजनेता और हमारे वैज्ञानिक खुद करते रहे हैं। जैसे कि इसरो के प्रमुख रहे यूआर राव ने एक अवसर पर कहा था कि भारत को अंतरिक्ष में मानव मिशन की एक सख्त जरूरत चीन की चुनौतियों के मद्देनजर है। वैसे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने अपने साढ़े पांच दशक के सफर में जो कुछ हासिल किया है, उसने विकसित देशों को भी चौंका दिया है। खासकर खर्च के मामले में। बात चाहे चंद्रयान या मंगलयान की हो या फिर उपग्रह प्रक्षेपण की, इन सारे मोर्चों पर सीमित खर्च में सफलता की जो दर इसरो की रही है, वह दुनिया के अन्य अंतरिक्ष संगठनों के लिए अभी सपना ही है।