अनुराग चतुर्वेदी

भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के पच्चीस वर्ष के संबंधों का टूटना महाराष्ट्र की राजनीति को संपूर्ण रूप से बदलने वाला है। पहले विधानसभा चुनावों में सीटों के सवाल पर हुई तनातनी, बाद में अलग-अलग चुनाव लड़ना, फिर चुनाव के दौरान और बाद में ‘हिंदी सामना’ के प्रधानमंत्री मोदी पर व्यक्तिगत हमले ने कटुता बढ़ा दी। पहले से तयशुदा पटकथा के चलते भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रवादी कांग्रेस साथ-साथ हो गए और महाराष्ट्र में नए समीकरण बन गए।

शिवसेना का जन्म संयुक्त महाराष्ट्र निर्माण के दौरान मराठी मानुस की अस्मिता को लेकर हुआ। बाद में रामजन्म भूमि आंदोलन के चलते ‘हिंदुत्व’ से जुड़ गया और शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे हिंदू हृदय सम्राट बन गए और मराठी अस्मिता और हिंदुत्व की आंधी के चलते 1995 में मंत्रालय पर ‘भगवा झंडा’ फहराने में सफल हो गए। लेकिन उन्नीस वर्ष बाद जब फिर मोदी और विकास की आंधी चली तो बाल ठाकरे की अनुपस्थिति और विकास बनाम अस्मिता के सवाल पर शिवसेना हारी, पस्त और निराश दिखाई पड़ी।

शिवसेना और भाजपा के रिश्ते टूटने के बाद शिवसेना की सबसे बड़ी चिंता ‘हिंदुत्व’ के एजंडे को अपने पास बचा कर रखने की है। शिवसेना बार-बार कह रही है कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पिछले कई वर्षों से शिवसेना को ‘भगवा आतंकवादी’ कहती रही है। शिवसेना यह भी कहती है कि राष्ट्रवादी कांग्रेस ने इशरत जहां का मुकदमा भी लड़ा था और उसके विधायक जितेंद्र अवाड ने मुंब्रा विधानसभा से जीत भी हासिल की थी। शिवसेना की कोशिश होगी कि भाजपा और एनसीपी के बीच दरार पैदा हो और भाजपा जो कि शिवसेना की राजनीतिक जमीन पर कब्जा करना चाहती है, वह उसे रोक पाए।
महाराष्ट्र में जब विधानसभा के चुनाव घोषित हुए थे और सीटों का बंटवारा उग्र रूप धारण कर टूट का कारण बना था, तब समझौता तोड़ने की अपरोक्ष जिम्मेदारी शिवसेना पर आई थी। शिवसेना को ही मतदाताओं ने खलनायक माना था। शिवसेना ने इस बार काफी ठंडे से, लंबी डोर देकर भाजपा के साथ राजनीतिक खेल खेला। उसने केंद्रीय मंत्री अनंत गीते का इस्तीफा भी नहीं कराया, मंत्रिमंडल विस्तार में आखिरी तक इंतजार किया, विपक्ष में बैठने के पहले तक, रात तक बात चलाई। शिवसेना के कट्टर समर्थक इस ‘स्टाइल’ परिवर्तन से आहत थे, पर उद्धव ठाकरे इसी तरह अपनी राजनीति चलाते हैं।

उद्धव ठाकरे उन शिवसैनिकों को संदेश देना चाहते थे, जो सेना का भाजपा के साथ सत्ता में जाकर सत्ता-सुख भोगने के हामी थे कि समझौता हमने नहीं, बल्कि भाजपा ने तोड़ा है। इस बार शिवसेना के चालीस विधायक पहली बार चुनाव जीत कर विधानसभा में पहुंचे हैं। कुछ दिनों से महाराष्ट्र विधानसभा में शिवसेना के विधायकों में फूट डाल कर उन्हें भाजपा से तोड़ने की बात चल रही है, पर बड़ी संख्या में दल-बदल करवाना भाजपा के लिए इसलिए संभव नहीं है कि दल-बदल विधेयक के मुताबिक शिवसेना के चालीस विधायकों को अलग होना होगा। पिछले वर्ष नाशिक में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के विधायक की मृत्यु के बाद उनकी विधवा को राष्ट्रवादी कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार बना लिया था, पर राज ठाकरे ने अपना उम्मीदवार खड़ा न कर भाजपा को जितवा दिया था। अगर शिवसेना ने भाजपा को समर्थन दे दिया तो बाजी पलट जाएगी।

शिवसेना के लिए अब यह जरूरी हो गया है कि वह संघर्ष करे। अगर वह संघर्ष करेगी तभी इस नए माहौल में उभर पाएगी। सड़क पर आकर लड़ाई लड़ना शिवसेना के डीएनए में है। इस संघर्ष के जरिए वे भय का माहौल भी पैदा करते हैं। अगर सेना लेन-देन में लग गई तो उसको और उद्धव ठाकरे को डूबने से कोई नहीं रोक सकता।

राष्ट्रवादी कांग्रेस और भाजपा की दोस्ती कोई पुरानी नहीं है। राष्ट्रवादी कांग्रेस में प्रफुल्ल पटेल, छगन भुजबल और जयंत पाटील जैसे नेता इन संबंधों के बड़े पैरोकार हैं। इस दोस्ती की पटकथा प्रफुल्ल पटेल और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने लिखी है। शरद पवार अपने भतीजे अजीत दादा को भी दरकिनार करना चाहते हैं जो पारिवारिक होकर भी उनकी बेटी सुप्रिया का विरोध करते हैं। राष्ट्रवादी कांग्रेस के कई विधायक भाजपा से दोस्ती के खिलाफ हैं। लेकिन कमजोर कांग्रेस के कारण वे अभी उसकी तरफ देख नहीं रहे हैं। कांग्रेस ने अपने विधायक दल के नेता राधाकृष्ण विखे पाटील को पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण का समर्थक होने पर चुन तो लिया, पर सीनियर विखे पाटील ने सार्वजनिक बयान देकर कि कांग्रेस को भाजपा का समर्थन करना चाहिए, खलबली मचा दी है। कांग्रेस में पृथ्वीराज चव्हाण को दरकिनार कर नए समीकरण बने हैं। पर राधाकृष्ण विखे पाटील का चुनाव संदेहास्पद हो गया है।

भाजपा का मानना है कि मतदाताओं की स्मृति कमजोर होती है और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के भ्रष्टाचार पर जो कुछ भी उन्होंने कहा है, शायद जनता उसे याद नहीं रखेगी। ज्यादातर मतदाता नए माहौल को याद रखेंगे। यही भाजपा की मुश्किल कि शिवसेना ने महाराष्ट्र विधानसभा में अपनी पार्टी के नेता के रूप में एकनाथ शिंदे का चयन किया है, उनकी ख्याति शिवसेना की छवि के विपरीत है। वे मौन रहते हैं, ज्यादा भाषाई हिंसा नहीं करते, एक अच्छे संगठक हैं, कार्यकर्ताओं और शाखा प्रमुखों का ‘ध्यान’ रखते हैं। ठाणे की महानगर पालिका से जो शोहरत हासिल की है, उससे कार्यकर्ता जुड़े रहते हैं। एकनाथ शिंदे मराठा हैं। उनका मराठा होना इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि शिवसेना-भाजपा का जाति-विभाजन होना भी अब तय-सा है। शिवसेना में गुलाब राव पाटील, पुरंदर के विजय शिव तारे और मुंबई के सुनील प्रभु को महत्ता मिली हुई है।

शिवसेना को महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में अब तक सबसे बड़ी सफलता 1995 में मिली थी, जब मुंबई के हिंसक दंगों और बम विस्फोटों के बाद शिवसेना तिहत्तर विधानसभा सीटें जीतने में सफल रही थी और भाजपा की छप्पन सीटों की जीत के साथ ही शिवसेना ने अपना पहला मुख्यमंत्री मनोहर जोशी के रूप में चुना जो जाति से ब्राह्मण थे। यह भी संयोग है कि भारतीय जनता पार्टी ने भी अपना पहला मुख्यमंत्री उच्च जाति के ब्राह्मण के रूप में देवेंद्र फडणवीस को चुना है। शिवसेना के मुख्यमंत्री मनोहर जोशी और भाजपा के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस में जातिगत समानता के अलावा ‘जोशी सर’ से एक असमानता है। उनसे ही क्यों, बाकी महाराष्ट्र के अन्य मुख्यमंत्रियों से है और वह यह है कि देवेंद्र फडणवीस किसी शिक्षा संस्थान, शक्कर कारखाने या सहकारी बैंक के मालिक या न्यासी नहीं हैं।

यही संस्थाएं निजी हितों को प्रेरित करती हैं। महाराष्ट्र जहां हर राजनीतिक दल के नेता शिक्षा, उद्योग और सहकारिता की दुधारू संस्थाओं से जुड़े हुए हैं, वहां मध्यवर्ग का नेतृत्व महाराष्ट्र की परंपरागत राजनीतिक संरचना को चुनौती देता नजर आता है। शिवसेना ने शहरी नेतृत्व के सहारे गृह निर्माण और यातायात और मनोरंजन क्षेत्र में अपनी पैठ जमाई हुई है। अगर भाजपा कठोर हो कानून-व्यवस्था के नाम पर, अगर शिवसेना की कमाई रोकती है, मुंबई महानगर पालिका के चुनाव जल्दी करवा लेती है तो वह निर्णायक रूप से शिवसेना से लड़ाई लड़ सकती है। भाजपा के सामने आज भी सबसे बड़ी चुनौती शिवसेना के प्रभाव क्षेत्र को सीमित करना है। मुंबई, ठाणे, कोंकण और मराठवाड़ा में शिवसेना का असर बचा हुआ है। भाजपा से समझौता करने से राष्ट्रवादी कांग्रेस के अस्तित्व पर भी प्रश्न चिह्न लग सकते हैं। ऐसे में कांग्रेस और भाजपा ही भविष्य में एक दूसरे के सामने रह सकते हैं। पर अगले दो वर्ष शिवसेना का भविष्य तय करेंगे।