एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने पार्टी के 25वें स्थापना दिवस पर बड़ा ऐलान करते हुए 2 कार्यकारी अध्यक्ष घोषित कर दिए। दोनों सुप्रिया सुले और प्रफुल्ल पटेल को कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया है। लेकिन अजित पवार को कोई नई जिम्मेदारी नहीं दी गई, उन्हें महाराष्ट्र की राजनीति में ही सक्रिय रहने का संदेश दे दिया गया। अब शरद पवार की जैसी सियासत रही है, उनका कोई भी फैसला सिर्फ सिर्फ फैसला नहीं होता है, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति होती है।
अजित ने कैसे खोया पवार का भरोसा?
अब इस एक फैसले की भी अपनी एक कहानी है। अजित की झोली खाली रहना कोई आकस्मिक नहीं है, बल्कि 2019 के ट्रेलर ने इस बात के संकेत दे दिए थे। असल में 2019 के चुनाव में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, लेकिन बहुमत से दूर रह गई। शिवसेना के साथ जाना पक्का लग रहा था, लेकिन सीएम कुर्सी ने समीकरण बदल दिए और उद्धव एनसीपी-कांग्रेस के साथ चल दिए। उस समय एक दूसरी पटकथा ये चल रही थी कि अजित पवार ने बीजेपी से संपर्क साधा, दावा किया कि उनके साथ कई एनसीपी के विधायक हैं और इसी दम पर देवेंद्र फडणवीस ने सीएम पद की शपथ ली। डिप्टी सीएम का पद अजित के पास गया, लेकिन 72 घंटों में सब बदल गया। शरद पवार असली बॉस साबित हुए, कांग्रेस-शिवसेना के साथ मिलकर स्पष्ट बहुमत साबित किया और उद्धव की ताजपोशी हो गई।
ये किस्सा पुराना जरूर है, लेकिन शरद पवार के मन में अजित को लेकर असमंजस की स्थिति पैदा करने वाला है। शरद पवार ने कभी उम्मीद नहीं की थी कि उनके फैसले के खिलाफ जाकर अजित ऐसे बीजेपी से हाथ मिला लेंगे। उनकी घर वापसी जरूर हो गई,लेकिन अविश्वास की एक खाई पैदा हो चुकी थी। इस घटना के अब पांच साल बाद फिर ऐसा माहौल बना था जब कहा गया कि अजित फिर बीजेपी से हाथ मिला सकते हैं। दावा तो ये भी हो गया था कि 25 से ज्यादा विधायकों का समर्थन अजित के साथ है। ये दावे अगर सच साबित होते तो उद्धव के बाद शरद पवार के साथ महाराष्ट्र में बड़ा सियासी खेला हो जाता। खैर ये सिर्फ अटकलें ही रहीं और शरद पवार ने सही समय पर एक बड़ा सियासी फैसला लिया।
पवार का इस्तीफा और अजित की प्रतिक्रिया
उनकी तरफ से ऐलान किया गया कि वे एनसीपी के अध्यक्ष पद को छोड़ रहे हैं। कार्यकर्ता हैरान रह गए, पार्टी के अंदर खलबली मच गई। लेकिन तब तक शरद अपने फैसले पर कायम रहे। उनके फैसले का हर तरफ विरोध हो रहा था, कार्यकर्ता तो स्वीकार करने को तैयार ही नहीं थे, लेकिन अजित पवार का अलग ही बयान सामने आया। उन्होंने कह दिया कि कि शरद पवार के फैसले का सम्मान होना चाहिए और नए नेतृत्व को मौका मिले। उनका ये बयान राजनीतिक गलियारों में अलग ही संदेश लेकर गया। माना गया कि अजित एनसीपी के अगले अध्यक्ष बन जाएंगे। लेकिन ऐसा संदेश सिर्फ अजित के खेमे की तरफ से जा रहा था, ज्यादा विश्वनीय अटकलें ये थीं कि सुप्रिया सुले अगली अध्यक्ष बन सकती हैं, उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में बड़ा पद देने की तैयारी है।
जब अजित हुए नाराज, शरद पवार देखते रह गए
अब उस समय कार्यकर्ताओं की नाराजगी को देखते हुए शरद पवार ने अपना इस्तीफा तो वापस ले लिया, लेकिन माना गया कि जब मौका आएगा तो सुप्रिया सुले की ही ताजपोशी होगी और अजित महाराष्ट्र तक सीमित रह जाएंगे। अब उन अटकलों के बाद शनिवार को जब एनसीपी प्रमुख ने सुप्रिया सुले और प्रफुल्ल पटेल को कार्यकारी अध्यक्ष घोषित किया, माना जा रहा है कि आने वाले समय में अध्यक्ष पद को लेकर भी कोई बड़ा फैसला हो सकता है। जानकार तो ये भी मानते हैं कि अब अजित को पार्टी की कमान मिलना मुश्किल है, उन्हें महाराष्ट्र की राजनीति में दिलचस्पी है, ऐसे में उसी क्षेत्र तक उन्हें सीमित रखने की भी तैयारी है।
अब अजित के लिए ये बड़ा सियासी झटका माना जा रहा है, तो सुप्रिया सुले का एक तरह से राष्ट्रीय राजनीति में ये बड़ा डेब्यू है। वो डेब्यू जिसके सपने शायद शरद पवार भी लंबे समय से देख रहे थे। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि अजित के बगावती तेवर शरद पवार को रास नहीं आते हैं, इसी वजह से उन्होंने कुछ हद तक एनसीपी प्रमुख का भरोसा खोया है। वहीं दूसरी तरफ सुप्रिया सुले लगातार पवार के साथ मजबूती से खड़ी रही हैं, उनके फैसलों के साथ रही हैं और पार्टी हित में काम किया है।
सुप्रिया सुले को क्यों मिल रही इतनी तवज्जो?
सुप्रिया सुले ने 2006 में राजनीति में कदम रखा था। 2009 में बारामती से लोकसभा सांसद बनीं और फिर लगातार तीन बार वहीं से बड़ी जीत दर्ज करती रहीं। बेखौफ होकर अपनी बात रखने वालीं सुप्रिया सुले संसद में भी काफी सक्रिय रहीं और इसी वजह से कई अहम समितयों का उन्हें सदस्य बनने का मौका मिला। इसके अलावा 2011 में भ्रूण हत्या के खिलाफ उनका राज्यव्यापी आंदोलन सुर्खियों में आ गया था।
पिछले साल एनसीपी का दिल्ली में आठवां अधिवेशन हुआ था, शरद पवार, जयंत पाटिल, सुप्रिया सुले सब मौजूद थे। लेकिन बीच कार्यक्रम से अजित पवार उठकर चले गए, शरद देखते रह गए, सुप्रिया सुले को मनाने भी जाना पड़ा, लेकिन सभी प्रयास फेल और कार्यकर्ताओं के सामने एक बड़ा सियासी ड्रामा हो गया। तभी से कयास लग रहे थे कि चाचा-भतीजे के बीच सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है।
बड़ा खेला करने वाले पवार, सोनिया से भी लिया पंगा
वैसे इस फैसले से इतर शरद पवार ने पहले भी कई ऐसे कदम उठाए हैं जिन्होंने ना सिर्फ महाराष्ट्र बल्कि देश की राजनीति पर गहरी छाप छोड़ी है। शरद पवार ने अपने करियर में इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी जैसे कद्दावर नेताओं से सीधी टक्कर ली है। उनके फैसलों ने ही कांग्रेस में दो फाड़ करवाई, सोनिया को पीएम बनने से रोका और फिर 2019 में फडणवीस-अजित के सियासी खेले की भी हवा निकाली।
यहां भी सोनिया की राह में जिस तरह से वे रोड़ा बने थे, उसने ना सिर्फ कांग्रेस के समीकरण बदले बल्कि एक नई पार्टी को भी जन्म दे दिया था।
ये बात 1999 की है जब मात्र एक वोट से अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिर गई थी। 13वें लोकसभा चुनाव आने को थे, सीतारम केसरी ने सोनिया को कांग्रेस अध्यक्ष नियुक्त कर दिया था। चर्चा तेज थी कि कांग्रेस सोनिया को पीएम फेस प्रोजेक्ट करेगी। लेकिन बीजेपी इस मुद्दे को लपकती, उससे पहले शरद पवार, तारिक अनवर और पीए संगमा ने बगावत कर दी। विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर सोनिया को पीएम बनने से रोक दिया गया और शरद पवार ने बा में कांग्रेस से अलग होकर एनसीपी का गठन कर दिया। ये किस्सा इसलिए क्योंकि शरद पवार अपने एक फैसले से कई समीकरण एक साथ साधने में माहिर हैं।
जो नेता एक झटके में नई पार्टी बना सकता है, जो नेता विपरीत विचारधाराओं वाली पार्टियों को 2019 में एकजुट कर सकता है, उसके किसी भी फैसले को सिर्फ एक फैसले की नजर से देखना बेमानी रहेगा क्योंकि उनके राजनीतिक परिणाम दूर तक जाएंगे भी और कई धुरंधरों का खेल भी बिगाड़ेंगे।