बच्चे किसी भी देश का भविष्य होते हैं। उनके हिस्से भय नहीं, सुरक्षा की छांव आनी चाहिए। सशस्त्र संघर्ष वाले क्षेत्रों में अनिश्चितता का परिवेश बन जाता है। वैश्विक आतंक सूचकांक के अनुसार आज दुनिया के एक तिहाई देश आतंकी हिंसा के शिकार हैं। इन परिस्थितियों में वहां जो बच्चे संसार में आते हैं, वे किस मन:स्थिति के साथ बड़े होते होंगे, समझना मुश्किल नहीं है।

बच्चों को सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन देना हर देश की प्राथमिकता होनी चाहिए। संसार के किसी भी भूभाग में अस्थिरता, हिंसा और सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों का सबसे अधिक प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। बावजूद इसके, भारत सहित बहुत से देशों में समाज की साझी थाती कहे जाने वाले बच्चों के हिस्से जीवन की विद्रूप स्थितियां आती रही हैं।

बालपन को पीड़ादायी परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। ऐसे में धरती के किसी भी हिस्से पर संघर्षपूर्ण हालात का सहज होना भावी पीढ़ी के पालन-पोषण और समग्र व्यक्तित्व विकास के लिए ही नहीं, देश की बेहतरी के लिए भी बहुत आवश्यक है। इस मोर्चे पर भारत के लिए संयुक्त राष्ट्र की ओर से आई खबर सुखद है।

गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने बच्चों की बेहतर सुरक्षा के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदमों का हवाला देते हुए बच्चों पर सशस्त्र संघर्ष के प्रभाव को लेकर संयुक्त राष्ट्र ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट से भारत का नाम हटा दिया है। संयुक्त राष्ट्र प्रमुख ने इस रिपोर्ट में कहा है कि बच्चों के लिए श्रेष्ठतर सुरक्षा प्रबंध हेतु सरकार द्वारा उठाए गए कदमों को देखते हुए, भारत का नाम 2023 की रिपोर्ट से हटाया जा रहा है।

यह देश के भावी नागरिकों की बेहतरी के मोर्चे पर वाकई एक अच्छी खबर है। साथ ही यह संघर्षशील इलाकों में बदलते हालात के प्रति व्यवस्था में विश्वास बढ़ाने वाली बात भी है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा विभिन्न देशों में बच्चों के शोषण को लेकर जारी की जाने वाली इस सालाना वैश्विक सूची से बारह साल बाद भारत का नाम बाहर हुआ है।

वर्ष 2010 में आई ‘चिल्ड्रन ऐंड आर्म कनफ्लिक्ट’ रिपोर्ट के समय से हमारे देश का नाम इस फेहरिस्त में शामिल किया जा रहा था। विशेष रूप से जम्मू-कश्मीर में हथियारबंद समूहों द्वारा नाबालिग बच्चों की भर्ती, सुरक्षा बलों द्वारा उन्हें हिरासत में लिया जाना, अपंगता और जान तक चली जाने जैसी घटनाओं के कारण ‘बच्चे और सशस्त्र संघर्ष’ रिपोर्ट में भारत का नाम डाला जाता रहा है।

दरअसल, ऐसे बदलाव समग्र रूप से कई मोर्चों पर आए परिवर्तनों और प्रयासों का परिणाम होते हैं। भारत में भी बहुत-सी नीतियों और संस्थागत परिवर्तनों की बदौलत यह संभव हो सका है। इस सूची से बाहर होना बालमन और बचपन से जुड़े कई विषयों को सार्थक ढंग से संबोधित किए जाने का परिणाम है, क्योंकि बरसों से इस सूची का हिस्सा रहे बुर्किना फासो, कैमरून, लेक चाड बेसिन, नाइजीरिया, पाकिस्तान और फिलीपींस जैसे देशों का नाम वर्ष 2023 की रिपोर्ट में भी बना हुआ है।

दरअसल, लंबे समय से हमारे देश का यह भूभाग अशांत परिवेश और संघर्षशील परिस्थितियों के लिए ही दुनिया भर में चर्चा का विषय रहा है। आए दिन होने वाली हिंसा और आतंकी गतिविधियां प्रशासन ही नहीं, आम नागरिकों के लिए भी चिंता का विषय रही हैं। इसी के चलते संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने कहा भी है कि बाल संरक्षण को लेकर सुरक्षा बलों का प्रशिक्षण, बच्चों पर घातक तथा अन्य बल प्रयोग पर प्रतिबंध, छर्रे वाली बंदूक का प्रयोग बंद करना जैसे बदलाव सार्थक परिवर्तन ला सके हैं।

सुरक्षाबलों ने सुनिश्चित किया है कि कोई रास्ता न रह जाने पर ही, और कम से कम अवधि के लिए, बच्चों को हिरासत में लिया जाना, हिरासत में हर प्रकार के दुर्व्यवहार रोकने के उपायों के क्रियान्वयन और बच्चों की देखभाल तथा किशोर न्याय अधिनियम और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण सुनिश्चित होगा। निस्संदेह, ऐसे सकारात्मक कदमों से बच्चों का जीवन तो बदला ही है, वैश्विक समुदाय में भारत की छवि भी सुधरी है।

बाल संरक्षण से जुड़े मुद्दों को लेकर आगे भी उचित कदम उठाने पर बल दिया गया है। गौरतलब है कि बच्चों और सशस्त्र संघर्ष पर पिछले दो वर्ष से संयुक्त राष्ट्र और भारत गंभीरता से काम कर रहे हैं। भारत ने इन स्थितियों से निपटने के लिए एक कार्यक्रम शुरू करने का भी निर्णय किया है। साथ ही इस बात के संकेत दिए हैं कि हमारा देश भविष्य में भी बच्चों की बेहतरी के लिए कारगर कदम उठाने को तैयार है।

मानवीय मोर्चे पर भी यह विचारणीय है कि संघर्षपूर्ण हालात के कारण बच्चों का भविष्य के प्रति भरोसा और जीवन से जुड़ी आशाएं धूमिल क्यों हों? यों तो समाज, सरकार और विभिन्न संस्थाओं की जवाबदेही बनती है कि बालमन के हिस्से ऐसी पीड़ादायी परिस्थितियां आने ही न पाएं। बावजूद इसके, स्वार्थपरक राजनीति बच्चों के जीवन के रंग छीन लेती है।

हिंसा और युद्ध के हालात को देखने-भोगने वाले बच्चे इंसानों के बर्ताव और व्यवस्थागत नियमों के प्रति भी सशंकित रहने लगते हैं। स्कूल छूट जाते हैं। बचपन की मूलभूत आवश्यकताओं से भी वंचित होना पड़ता है। कहीं बच्चे खुद हिंसा का शिकार होते हैं, कहीं ऐसे खून-खराबे के प्रत्यक्ष गवाह बनते हैं। अपने आसपास बने हिंसा के वातावरण से हर समय डरे-सहमे रहना उनका बचपन ही छीन लेता है। सीमाओं की लड़ाइयां बच्चों के जीवन को घुटन और भय से भर देती हैं। पीड़ादायी सामाजिक-पारिवारिक हालात के बीच यह मनोवैज्ञानिक आघात उनके मासूम मन को दिशाहीन भी बनाता है।

युद्धग्रस्त क्षेत्रों में बच्चे यौन हिंसा, अपहरण का भी शिकार बनते हैं। लैंगिक हिंसा और नशीले पदार्थों की लत उनका जीवन दुश्वार कर देती हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से उनके आसपास घट रही अमानवीय घटनाओं का असर उनके शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। भावनात्मक रूप से उनका जीवन सदा के लिए उलझनों का शिकार बन जाता है।

आतंक के भयाक्रांत दृश्य देखने वाले कितने ही मासूम जीवन भर भय के अंधेरे से बाहर नहीं आ सकते। इन तकलीफदेह हालात के निशान सदा के लिए बालमन पर अंकित हो जाते हैं। आंकड़े बताते हैं कि बीते डेढ़ दशक में ऐसे संघर्षों के चलते बीस लाख बच्चों की जान जा चुकी है। गंभीर रूप से घायल बहुत से बच्चे सदा के लिए अपंग हो गए हैं।

यह वाकई दुखदायी है कि दुनिया भर में सशस्त्र संघर्षों के कारण होने वाले विस्थापन में महिलाओं और बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा है। ऐसे इलाकों में स्कूलों और अस्पतालों तक का इस्तेमाल सशस्त्र सेनाओं और हथियारबंद समूहों द्वारा सैन्य उद्देश्यों के लिए किए जाने की प्रवृत्ति को लेकर संयुक्त राष्ट्र पहले भी चिंता जता चुका है।

बच्चे किसी भी देश का भविष्य होते हैं। उनके हिस्से भय नहीं, सुरक्षा की छांव आनी चाहिए। सशस्त्र संघर्ष वाले क्षेत्रों में अनिश्चितता का परिवेश बन जाता है। वैश्विक आतंक सूचकांक के अनुसार आज दुनिया के एक तिहाई देश आतंकी हिंसा के शिकार हैं। आतंकी हिंसा का दंश किसी देश के पूरे सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक ढांचे की नींव हिला देता है, जिसके चलते वहां की भावी पीढ़ियों का जीवन तबाह हो जाता है। इन परिस्थितियों में वहां जो बच्चे संसार में आते हैं, वे किस मन:स्थिति के साथ बड़े होते होंगे, समझना मुश्किल नहीं है।

ऐसे में संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्षों से संघर्षपूर्ण स्थितियों के शिकार रहे भारत के एक हिस्से को इन हालात से मुक्त मानना एक बड़ी उपलब्धि कही जाएगी। साथ ही हमारी भावी पीढ़ी का जीवन सहेजने के लिए भविष्य में भी शांति और सद्भाव बनाए रखने के भाव को भी बल मिलेगा। युद्ध प्रभावित क्षेत्रों की चुनौतीपूर्ण स्थितियों में बच्चों के पुनर्वास के प्रयासों को लेकर सोचा जाएगा। हमारे देश के बदले हुए हालात ऐसी तकलीफदेह परिस्थितियों से जूझते अन्य देशों के लिए उदाहरण भी साबित होंगे।