Sedition Law पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान केंद्र का रवैया हीलाहवाली वाला था। पहले तो वो इस कानून को बेवजह का बताने वाली याचिका पर ही सवाल उठाता रहा। फिर 1962 के फैसले का हवाला दिया और उसके बाद कोर्ट से य कहा कि उसे जवाब दाखिल करने को और वक्त चाहिए।
हालांकि ये पहली बार नहीं है जब केंद्र ने किसी मामले में टालमटोल वाला रवैया दिखाया है। वैवाहित बलात्कार पर दिलील हाईकोर्ट में सुनवाई हो रही थी तो भी केंद्र का रवैया हैरत में डालने वाला था। केंद्र हाईकोर्ट से लगातार मामले की सुनवाई को टालने की दलील देता रहा। उसका कहना था कि वो विशेषज्ञों से सलाह मशिवरा कर रहा है। लेकिन हाईकोर्ट ने दो टूक कह दिया कि मामले को और नहीं टाला जा सकता।
धारा 377 (समलैंगिक संबंध और अप्राकृतिक यौनाचार) से जुड़े मामले पर भी केंद्र का ये ही रवैया था। केंद्र ने अपना हलफनामा दाखिल करके कोर्ट से अनुरोध किया कि इस मामले में वो अपनी समझ के हिसाब से फैसला करे। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड को ये रवैया रास नहीं आया था। उन्होंने अपने फैसले में केंद्र सरकार के खिलाफ तल्ख टिप्पणी की थी।
डॉन अबू सलेम की सजा के मामले में भी केंद्र लगातार हीलाहवाली करता रहा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जस्टिस दीपक गुप्ता का कहना है कि कोर्ट को संवैधानिक मामले खुद डिसाइड करने चाहिए। जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा कि राजद्रोह कानून का इस्तेमाल नागरिकों में डर पैदा करने के लिए किया जाता है। उन्होंने कहा कि कानून का व्यापक रूप से दुरुपयोग किया जाता है और इसके दुरुपयोग के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। कोर्ट को खुद फैसला लेना होगा।
गौरतलब है कि केंद्र ने राजद्रोह से संबंधित कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपना जवाब दाखिल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट से समय मांगा था। चीफ जस्टिस एनवी रमन्ना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हिमा कोहली की बेंच ने कहा था कि वो 5 मई से मामले में अंतिम सुनवाई शुरू करेगी। स्थगन के अनुरोध पर विचार नहीं करेगी।
शीर्ष अदालत ने पिछले साल जुलाई में केंद्र सरकार से पूछा था कि वो उस प्रावधान को निरस्त क्यों नहीं कर रही जिसे स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने और महात्मा गांधी जैसे लोगों को चुप कराने के लिए अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल किया गया।