हमारे संसदीय इतिहास में यह दिन बेहद खास है, जब हमें ‘असहिष्णुता’ जैसे मुद्दे पर बहस करनी पड़ रही है। एक ऐसे राष्ट्र जिसका संविधान उदारवाद, लोकतंत्र, बहुलतावाद, मानवाधिकार के सम्मान, अभिव्यक्ति की आजादी, संस्कृति, धर्म और निजी पसंद के सिद्धांतों से प्रेरित है, में एकसा वक्त आ जाए जब असहिष्णुता पर बहस करनी पड़े तो यह अपने आप में बताने के लिए काफी है कि हम कहां आ चुके हैं। सोमवार को संसद में जो कुछ हुआ वह आम अपेक्षाओं से एकदम अलग था। मोहम्मद सलीम (माकपा सांसद) ने बहस की शुरुआत करते हुए कहा कि गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने 2014 में मोदी की जीत पर कहा था कि वह 800 साल में पहले हिंदू शासक हैं। गृह मंत्री को खंडन करना पड़ा कि उन्होंने कभी ऐसा कुछ नहीं कहा। तब सलीम साहब ने ‘आउटलुक’ पत्रिका को कोट किया। इसे लेकर गतिरोध बन गया और अंत में स्पीकर द्वारा बयान को कार्यवाही से निकाल देने के बाद मामला शांत हुआ। माकपा सांसद ने एक पत्रिका को कोट किया था। तो गृह मंत्री को पत्रिका के साथ सवाल-जवाब करना चाहिए था। लेकिन वह सलीम साहब से ही सवाल-जवाब कर रहे थे।
भाजपा के सांसद संसद में बहस के गिरते स्तर और लोकसभा की पवित्रता की दुहाई देकर हंगामा करने लगे। एक सांसद ने तो यहां तक कह दिया कि गृह मंत्री के बयान से ज्यादा अहमियत मीडिया की एक रिपोर्ट को कैसे दी जा सकती है। उन्होंने ‘लोकसभा की महत्ता’ की भी बात की। इस तरह का विरोध मुझे समझ नहीं आता। पिछले कई सालों से संसद में परंपराएं बदल रही हैं। मीडिया रिपोर्ट के हवाले से आरोप लगाना आम बात हो गई है। विपक्ष अपनी जरूरत के हिसाब से रणनीतिक तरीके से इसका इस्तेमाल करता रहा है। 30 जनवरी, 2011 को अरुण जेटली ने सदन में कहा था, ‘संसदीय गतिरोध अलोकतांत्रिक नहीं है।’ 26 अगस्त, 2012 को उन्होंने कहा था, ‘कई बार संसद का गतिरोध देशहित में होता है।’ 7 सितंबर, 2012 को सुषमा स्वराज बोली थीं, ‘संसद को नहीं चलने देना लोकतंत्र का ही एक रूप है।’ इसी तरह आरोप लगाने वाले भी कई बयान दिए गए। पिछली लोकसभा में शशि थरूर पर आईपीएल से जुड़ी अनियमितताओं के आरोप लगाए गए। उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। जबकि उनके खिलाफ कभी कोई सबूत सामने नहीं आया। लोकसभा में भाजपा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री को अपने मंत्रिमंडल के नए साथियों से परिचित कराने का मौका तक नहीं दिया था। हमने लोकसभा में ही ये भी देखा है कि भाजपा सांसद लगातार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ‘चोर’ कहते रहे हैं। डॉ. सिंह के खिलाफ न तब और न अब कोई सबूत सामने आ पाया है जो उन्हें जरा भी दागदार दिखा सकें। 20 महीने पुरानी भाजपा सरकार न उनके और न ही शशि थरूर या पवन बंसल या अशोक चव्हाण या नटवर सिंह के खिलाफ कोई सबूत दिखा पाई है। क्या इन नेताओं पर सदन के भीतर भाजपा द्वारा किए गए हमले और इस्तेमाल किए गए जुमले हमें याद हैं? तब लोकसभा की पवित्रता कहां गई थी? उस समय कैसे मीडिया की खबरों के आधार पर मंत्रियों पर आरोप लगाए गए और उन्हें पद छोड़ने के लिए मजबूर किया गया? बिना किसी सबूत के? तब उन खबरों की सत्यता के बारे में क्यों नहीं पूछा गया जिनके आधार पर आरोप लगाए जा रहे थे?
सवाल आरोपों के सच या झूठ होने का नहीं है। सवाल यह है कि क्या हमारी संसदीय व्यवस्था में इसे सरकार को झुका कर रखने का हथियार बना लिया गया है? भाजपा को डर है कि ऐसे बयान दुनिया के सामने आ रहे हैं। लेकिन जब प्रधानमंत्री ने ही अपनी जीत पर 1200 साल पुराने विदेशी शासन का जिक्र किया था तो सलीम साहब का बयान (जो असल में राजनाथ सिंह का है) बेमतलब हो जाता है। वे मानते हैं कि हिंदू हृदय सम्राट प्रधानमंत्री बना है और हिंदू राष्ट्र बनाने की दिशा में पहला कदम उठ गया है। जो ऐसा नहीं मानते उनका हश्र वही होगा जो ‘असहिष्णु’ लोगों का हो रहा है।
(लेखक पूर्व कांग्रेसी सांसद हैं। ये उनके निजी विचार हैं)
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