पिछले दो-तीन वर्षों से डालर के मुकाबले भारतीय रुपए की कीमत में ज्यादा उतार-चढ़ाव देखने को नहीं मिल रहा है। लंबे समय से एक डालर की कीमत भारतीय मुद्रा में चौरासी रुपए के आसपास बनी हुई है। यानी वैश्विक स्तर पर उठापटक के बावजूद, भारतीय रुपया खुद को एक मूल्य पर स्थिर बनाए हुए है। इससे यह भरोसा बनता है कि भारतीय रुपया अगर डालर के मुकाबले स्थिर रहता या कमजोर नहीं होता है, तो भारतीय आयात महंगे नहीं होंगे। घरेलू बाजार में महंगाई भी नहीं बढ़ेगी।

आयात महंगा होने और घरेलू बाजार में महंगाई बढ़ने का मुख्य कारण कच्चे तेल के मूल्यों का बढ़ना होता है। इसी कारण तकरीबन हर तरह की लागत घरेलू बाजार में बढ़ती है। भारतीय अर्थव्यवस्था के संबंध में विकट स्थिति यह है कि भारत अपने कच्चे तेल की मांग का अस्सी फीसद से अधिक आयात करता है। अगर रुपया, डालर के मुकाबले लगातार कमजोर हो रहा है, तो कच्चे तेल के आयात के भुगतान में अधिक विदेशी मुद्रा का भुगतान करना होगा, जिससे आरबीआइ के पास डालर का संग्रह कम होने लगता है। इससे अनेक तरह की आर्थिक अनिश्चितताएं पैदा होती हैं, जिनमें भविष्य में आयातों के भुगतान के लिए वैश्विक निर्भरता बढ़ने का भी डर रहता है। मगर इस निष्कर्ष में डालर की तुलना में रुपए का मूल्य स्थिर होने से भारत के निर्यातों पर होने वाले घाटे को नजरअंदाज कर दिया जाता है।

डालर की तुलना में रुपए का कमजोर होना आर्थिक विकास के लिए अच्छा नहीं

असल में, डालर की तुलना में रुपए का कमजोर होना आर्थिक विकास के लिए अच्छा नहीं माना जाता। ऐसी स्थिति कोई भी सत्ता पक्ष कभी नहीं चाहता है। मगर इस स्थिति को सदा संभाले रखना भी संभव नहीं होता। गौरतलब है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में सरकार और रिजर्व बैंक आफ इंडिया ने रुपए के वैश्विक मूल्यांकन पर लगभग किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं रखा और रुपए को खुद अपनी एक जगह बनाने की छूट दी है। वर्ष 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद भी यह नीति लगातार जारी रही। सिर्फ एक दफा, वर्ष 2006 की वैश्विक मंदी के दौरान, आरबीआइ ने रुपए को डालर की तुलना में नियंत्रित करने की कोशिश की थी। ऐसा न होता तो स्थिति आर्थिक रूप से बहुत विकट हो सकती थी। वर्ष 2006 की वैश्विक मंदी अमेरिका के एक बैंक के दिवालिया होने से शुरू हुई थी।

पढ़ें दिनभर की सभी बड़ी खबरें-

h

मगर वर्ष 2022 के बाद से भारतीय रुपया, डालर के मुकाबले लगभग एक मूल्य पर कैसे स्थिर है? ऐसा होना इसलिए संभव लगता है, क्योंकि वैश्विक स्थितियां पिछले कुछ अरसे से लगातार अनिश्चित हैं। पहले कोरोना का आर्थिक संकट रहा, जिसके कारण आसमान छूती महंगाई को नियंत्रित करने के लिए ‘अमेरिकन फेड’ ने अपनी ब्याज नीतियों में बदलाव किया। फिर रूस और यूक्रेन के युद्ध से उपजी आर्थिक समस्याओं आदि से भी वैश्विक स्थितियां अनिश्चित रहीं। इसके अलावा, इजराइल के चलते मध्य एशिया में पैदा संकट से भविष्य में पैदा होने वाली आर्थिक समस्याएं भी शामिल हैं। इसलिए अब यह चर्चा शुरू हो गई है कि क्या भारतीय रुपए को डालर की तुलना में जानबूझ कर स्थिर किया जा रहा है?

भारत सहित कई देशों में तेजी से फैल रहा डेंगू का संक्रमण, WHO के अनुसार दुनिया की आधी आबादी पर डेंगू का खतरा

इस बात की सुगबुगाहट देश के एक प्रख्यात अर्थशास्त्री (जो एक समय केंद्र सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार भी रहे) के बीते दिनों किए गए एक उल्लेख से शुरू हुई। उन्होंने कहा कि रिजर्व बैंक आफ इंडिया डालर के मुकाबले रुपए को स्थिर रखने के लिए अपने विदेशी मुद्रा भंडार से पिछले दो वर्षों में भारतीय बाजार में डालर बेच रहा है। अब तक आरबीआइ ने तकरीबन 130 अरब अमेरिकी डालर बेच कर रुपए की गिरती कीमत को नियंत्रित करने की कोशिश की है। इस संबंध में फरवरी 2022 से अक्तूबर 2022 के बीच आरबीआइ ने 150 अरब डालर और जुलाई से अक्तूबर 2023 के मध्य 25 अरब अमेरिकी डालर बेचा, ताकि रुपया अधिक कमजोर न हो। अब यह समझने की कोशिश की जा रही है कि क्या आरबीआइ का ऐसा करना गलत है? क्या आरबीआइ ने ऐसा इसलिए किया, ताकि रुपए का कमजोर होना न दिखे?

बहुत बड़े वैश्विक आर्थिक संकट का दौर में हो सकता है ऐसा

इस संबंध में यह बात तो स्पष्ट है कि आरबीआइ रुपए के वैश्विक मूल्य को नियंत्रित कर सकता है, लेकिन वह ऐसा तभी करता है, जब बहुत बड़े वैश्विक आर्थिक संकट का दौर हो। चर्चा इस बात को लेकर भी है कि अगर आरबीआइ ने 130 अरब अमेरिकी डालर नहीं बेचा होता, तो भारतीय विदेशी मुद्रा भंडारण, जो आज 700 अरब डालर के बराबर है, वह यकीनन 830 अरब डालर से अधिक होता। इसके पीछे मुख्य तर्क यह है कि रुपए को एक मूल्य पर स्थिर करने से भारतीय वस्तुओं के निर्यात से होने वाली आय को इससे बहुत घाटा पहुंचा है।

मतलब साफ है कि अगर डालर के मुकाबले रुपया 84 से अधिक कमजोर होता, तो उस दिशा में भारतीय निर्यात से होने वाली आय से मिलने वाली विदेशी मुद्रा का संग्रह 130 अरब डालर से अधिक होता, जो कि नहीं हुआ। गौरतलब है कि वर्ष 1994 से लेकर 2018 तक भारतीय अर्थव्यवस्था में निर्यातों की वार्षिक वृद्धि दर दस फीसद के आसपास रही है। वर्ष 2019 से यह घट कर 4.5 फीसद रह गई है। इसके कारण निश्चित तौर पर विदेशी मुद्रा संग्रह भी कम हुआ है। वर्ष 2002 में भारत में विदेशी मुद्रा भंडार 59 अरब अमेरिकी डालर था, जो 2018 में 400 अरब डालर पर पहुंच गया। निश्चित तौर 2006 की वैश्विक मंदी भारतीय मुद्रा को डालर की तुलना में बहुत कमजोर कर सकती थी, लेकिन आरबीआइ ने समय रहते उस पर काबू पा लिया था।

भारत-चीन के जटिल संबंध: सीमा विवाद, सामरिक प्रतिस्पर्धा और वैश्विक शक्ति संतुलन की दिशा में बढ़ते कदम

अब समझना होगा कि क्या भारतीय अर्थव्यवस्था की जीडीपी को बरकरार रखने के लिए डालर की तुलना में रुपए के मूल्य को कमजोर होने से बचाया जा रहा है? इस संदर्भ में गौरतलब है कि चीन पिछले कई वर्षों से अपनी मुद्रा को डालर की तुलना में लगातार कमजोर कर रहा है, ताकि उसके निर्यात वैश्विक बाजार में काफी सस्ते हों। इसी कारण विभिन्न वैश्विक निवेशकों और औद्योगिक घरानों ने अपनी इकाइयां चीन में स्थापित कीं। चीन की इस आर्थिक नीति पर अमेरिका को एतराज रहता है। अगर ट्रंप फिर राष्ट्रपति बनते हैं, तो यह एतराज और बढ़ेगा।

भारतीय केंद्रीय बैंक की डालर के मुकाबले रुपए की कीमत स्थिर रखने की कोशिश निश्चित तौर पर भारतीय आयात को महंगा होने से बचाने के लिए है। मगर बजाय इसके, अगर भारतीय निर्यात को वृद्धि का अवसर मिलता और आयात के मूल्य में होने वाली कमी को सरकार अपनी कर नीति के जरिए नियोजित करती, तो वह अर्थव्यवस्था के लिए एक बेहतर स्थिति हो सकती थी। उस दशा में भी विदेशी मुद्रा भंडारण बढ़ता। मगर घरेलू स्तर पर महंगाई को नियंत्रित करने के लिए सरकार को आयात से मिलने वाले कर में कमी जरूर करनी पड़ती।

डालर की तुलना में रुपए का कमजोर होना आर्थिक विकास के लिए अच्छा नहीं माना जाता। ऐसी स्थिति कोई भी सत्ता पक्ष कभी नहीं चाहता है। मगर इस स्थिति को सदा संभाले रखना भी संभव नहीं होता। पढ़ें परमजीत सिंह वोहरा का आर्टिकल-

भारतीय केंद्रीय बैंक की डालर के मुकाबले रुपए की कीमत स्थिर रखने की कोशिश निश्चित तौर पर भारतीय आयात को महंगा होने से बचाने के लिए है। मगर बजाय इसके, अगर भारतीय निर्यात को वृद्धि का अवसर मिलता और आयात के मूल्य में होने वाली कमी को सरकार अपनी कर नीति के जरिए नियोजित करती, तो वह अर्थव्यवस्था के लिए एक बेहतर स्थिति हो सकती थी। उस दशा में भी विदेशी मुद्रा भंडारण बढ़ता। मगर घरेलू स्तर पर महंगाई को नियंत्रित करने के लिए सरकार को आयात से मिलने वाले कर में कमी जरूर करनी पड़ती।