अतुल कनक

जब तक नदी बांधों के दबाव के कारण दमित प्रवाह पर विवश होती है तब तक सब कुछ ठीक रहता है, लेकिन जब नदी अपने उद्दाम उत्साह में होती और अपने उस आंगन की ओर लौटती है जिसमें कभी वह बरसों खेली-कूदी है, तो आंगन में आ खड़े हुए निर्माण ध्वस्त होते हैं। अब क्या इसमें नदियों का कसूर है?

जुलाई के शुरुआती दिनों में हुई बरसात ने उत्तर भारत में जनजीवन बुरी तरह अस्त-व्यस्त कर दिया। शिमला में तो एक पूरा बाजार ही पानी के प्रवाह में बह गया। अनेक स्थानों पर खुले में खड़ी गाड़ियां खिलौनों की तरह बह गईं। दिल्ली से लेकर उत्तराखंड तक तबाही के मंजर हैं। देश के दूसरे हिस्सों में भी बरसात के कारण अफरातफरी का माहौल रहा। नगरीय बस्तियों में पानी जमा होने का सिलसिला नया नहीं है। जो शहर अत्याधुनिक होने का दावा करते हैं या जिनकी गणना अब स्मार्ट शहरों में होने लगी है, उनमें सामान्य बारिश ही जलप्लावन जैसे दृश्य पैदा कर देती है।

भारत आज भी कृषि प्रधान देश है। आबादी का एक बड़ा हिस्सा कृषिकार्य से ही अपनी जीविका कमाता है। इसीलिए बरसात का आगमन हमारे लिए किसी पर्व से कम नहीं होता। रिमझिम बरसते पानी में भीगते हुए ‘इंदर राजा पानी दे, पानी दे गुड़धानी दे’ कहते हुए भीगने वालों की पीढ़ी आज भी इस पर्व के आनंद की कहानियां कहती मिल जाएगी। मगर अब मानसून के दिनों में इस या उस शहर की हालत अखबारों को ‘बारिश कहर बनकर टूटी’ जैसे शीर्षकों के इस्तेमाल के लिए विवश कर देती है।

मगर उन शहरों का क्या करें, जो बारिश के स्वागत की तैयारी को आवश्यक ही नहीं समझते। अनियोजित नगर नियोजन ने इस तथ्य को भी बिसरा दिया है कि भारत में करीब चार माह वर्षा ऋतु होती है और बादलों से बरसने वाले पानी को अपने सहज प्रवाह के मार्ग में निकासी के माध्यम तो चाहिए ही। पुरानी कहावत है कि आग, पानी, राजा और सांप आसानी से अपना स्वभाव नहीं बदलते।

पानी का स्वभाव है बहना और अगर उसके रास्ते में कोई चुनौती आती है तो भी वह अपना स्वभाव नहीं बदलता। पानी के प्रवाह के मार्ग में अगर पत्थर के निर्माण चुनौती बनकर खड़े होंगे तो वह या तो उन्हें तोड़ देगा या उन इलाकों में से बहेगा जिन इलाकों को बरसाती पानी के एकत्र होने की आदत नहीं है। यही स्थिति अफरातफरी का माहौल बनाती है।

किसी भी ऐतिहासिक बस्ती या गढ़ को देख लीजिए। उनमें बरसात के पानी के संग्रहण का पर्याप्त प्रबंध होता था और अतिरिक्त पानी के प्रवाह का माकूल बंदोबस्त। बरसात के पानी के प्रवाह के मार्ग में बड़े-बड़े तालाब बनवाए जाते थे और ये तालाब एक मजबूत प्रवाह तंत्र के माध्यम से परस्पर जुड़े होते थे। जब एक तालाब का पानी बहने लगता था तो वह स्वयं इस प्रवाह तंत्र के माध्यम से अगले तालाब तक पहुंच जाता था।

छोटे इलाकों में कुएं, कुंड, बावड़ी, जोहड़ या झीलों का निर्माण कराया जाता था। ये तालाब, कुएं, कुंड, बावड़ी, जोहड़, झील आदि बरसाती पानी का संग्रहण कर उसे रिहाइशी बस्तियों में अफरातफरी मचाने से तो रोकते ही थे, लोगों को वर्षपर्यंत उनकी जरूर के मुताबिक पानी उपलब्ध कराते थे। इसके अलावा इन जलस्रोतों में जमा पानी भूजल को बनाए रखने और उसकी मात्रा बढ़ाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता था।

मध्य प्रदेश के ऐतिहासिक नरवर किले में एक तालाब के अंदर आठ कुंए और नौ बावड़ियां हैं। यह तालाब जमीन से करीब पांच सौ फुट ऊंचाई पर बना हुआ है। जब किसी भी आपात परिस्थिति में, या मौसम की तुनकमिजाजी के कारण जलसंग्रहण कम होता होगा, तो पहले तालाब के माध्यम से और तालाब का जलस्तर कम होने पर उसमें स्थित कुंओं और बावड़ियों के माध्यम से लोगों को जरूरत का जल मिलता रहा होगा।

राजस्थान के बूंदी नगर के जिस ऐतिहासिक किले की प्रतिकृति तक को दुश्मन के अधिकार में जाने से बचाने के लिए हाड़ा कुंभा ने अपने प्राणों का बलिदान कर दिया था, उसी किले के ठीक नीचे नवलसागर नामक तालाब में भी एक बावड़ी है। इस बावड़ी का उद्देश्य भी यही रहा होगा। बूंदी पहाड़ियों से घिरा हुआ शहर है। निश्चित रूप से पहाड़ों पर बरसने वाला पानी तलहटी की ओर दौड़ता होगा।

इस पानी के वेग को रोकने के लिए रियासतकाल में बूंदी में इतनी बावड़ियां बनवा दी गर्इं कि कतिपय लेखकों ने तो बूंदी को बावड़ियों का शहर ही कह दिया। लंबे समय तक ये बावड़ियां बूंदी के निवासियों को पीने का पानी मुहैया कराती रहीं। लेकिन अब बूंदी की अधिकांश बावड़ियां अपनी दुर्दशा पर आंख बहाती प्रतीत होती हैं।

ऐसा केवल बूंदी की बावड़ियों के साथ नहीं हुआ। लगभग सभी जगह पुराने जलस्रोत दुर्दशा के शिकार हो रहे हैं। कुएं उपेक्षा के कारण गंदगी से भर गए हैं। तालाब और झील अतिक्रमण के शिकार हो गए हैं या फिर अनियोजित नगर नियोजन के। राजस्थान के कोटा शहर में तेरह तालाब थे। विकास की दौड़ में बने रहने के लिए इनमें से अधिकांश को पाट कर उन पर या तो कालोनी बना दी गई है या बहुमंजिला बाजार।

अनंतपुरा तालाब, रंगतालाब, काला तलाब यहां की बस्तियों के नाम हैं, तो दकनिया तालाब उपनगरीय रेलवे स्टेशन है। कोटा हाड़ौती के पठार के सबसे निचले हिस्से पर बसा है। पठार के ऊपरी हिस्से में बरसने वाला पानी जब तेजी से बस्तियों की ओर दौड़ता था तो ये तालाब उस प्रवाह के वेग को थाम लेते थे। जब तालाब पाट दिए गए तो बरसात का पानी बाढ़ बनकर बस्तियों में घुसने लगा।

इसका उपचार यह किया गया कि एक ‘डायवर्जन चैनल’ बनाकर बरसात के पानी को शहर के रिहायशी इलाकों के पहले ही चंबल नदी की तरफ मोड़ने का तंत्र विकसित कर दिया गया। इससे बस्तियां आए दिन बाढ़ की आशंका से तो बच गई, लेकिन एक ऐसे संकट की ओर सारा शहर मुड़ गया जिसका निदान आसान नहीं होगा। जो पानी जमीन में रमकर भूजल स्तर को बनाए रखने में मदद करता था, धरती उसके स्पर्श के सुख से वंचित हो गई। यह संयोग नहीं है कि सदासलिला कही जाने वाली चंबल नदी के किनारे बसे होने के बावजूद कोटा शहर की बहुत सारी बस्तियां भूजल की दृष्टि से ‘डार्क जोन’ में चली गई हैं।

अनियोजित नगर नियोजन भविष्य के सुखों पर किस तरह तुषारापात करता है, यह कुछ समय पहले दुनिया ने तब देखा जब जोशीमठ के मकानों में दरारें आइ। जोशीमठ की धरती अनियंत्रित निर्माणों का दबाव सहने लायक नहीं थी। नदियों के किनारे बसे अधिकांश शहरों में नदी के तटीय इलाकों को घेरकर निर्माण करने की प्रवृत्ति पिछले कुछ सालों में प्रबल हुई है।

जब तक नदीईं बांधों के दबाव के कारण दमित प्रवाह पर विवश होती है तब तक सब कुछ ठीक रहता है, लेकिन जब नदी अपने उद्दाम उत्साह में होती और अपने उस आंगन की ओर लौटती है जिसमें कभी वह बरसों खेली-कूदी है, तो आंगन में आ खड़े हुए निर्माण ध्वस्त होते हैं। अब क्या इसमें नदियों का कसूर है?

एक तरफ पानी के प्रवाह के रास्ते अवरुद्ध हैं, हालत यह है कि छोटी नदियों को अतिक्रमण ने नालों में बदल दिया है और कालोनियों में लोगों ने नालियों तक को अपने मकान के घेरे में लाने के लिए अवरोधों से ढंक दिया है, ऐसे में अगर सामान्य से अधिक बारिश हुई, तो जल प्लावन के दृश्य तो सम्मुख आएंगे ही।

बेशक हिमाचल प्रदेश में जिस तरह से बादल फटा और लोग संकट से घिरे, उस स्थिति का सामना करना तो किसी भी परिस्थिति में आसान नहीं होता, लेकिन जरा-सी बाढ़ के बाद शहरों में जलप्लावन के हालात बन जाने के संदर्भ में क्या अनियोजित नगर नियोजन पर अंकुश नहीं लगाना चाहिए?