योगेश कुमार गोयल
दुनिया भर में कैंसर से होने वाली मौतों की संख्या वर्ष दर वर्ष बढ़ रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हाल ही में कहा है कि विश्वभर में करीब पौन दो अरब मामले कैंसर के हैं, जिनमें से प्रतिवर्ष करीब छियानबे लाख लोगों की मौत हो रही है। भारत भी कैंसर के मामले में ‘टाइम बम’ पर खड़ा है। डब्लूएचओ के मुताबिक अगर हम कैंसर के प्रति अभी से सतर्क नहीं हुए तो आने वाले समय में यह स्थिति बेहद विस्फोटक हो जाएगी, क्योंकि भारत में हर साल आठ लाख से ज्यादा लोग कैंसर से मर जाते हैं।
कैंसर से लड़ने और इस पर विजय पाने के दुनिया भर में कई चिकित्सीय उपाय हो रहे हैं और अब इसका शुरुआती चरण में इलाज संभव है। इसके चलते 1990 के बाद से कैंसर से मरने वालों की संख्या में करीब पंद्रह फीसद की कमी आई है। ‘रोबोटिक सर्जरी’ जैसी नई तकनीकों से तो कैंसर के इलाज में क्रांतिकारी बदलाव आया है।
दरअसल, रोबोट शरीर के ऐसे किसी भी हिस्से में बने ट्यूमर तक पहुंच सकता है, जहां इलाज के पारंपरिक तरीके से पहुंचना बेहद मुश्किल होता है। रोबोटिक सर्जरी में सर्जन को दस गुना बड़ा त्रिआयामी चित्र दिखता है, जिससे इलाज के दौरान गलती की संभावना बेहद कम हो जाती और इलाज ज्यादा सटीक हो पाता है। रोबोटिक सर्जरी ने अंगों को सुरक्षित बनाए रखने में भी बड़ी भूमिका निभाई है।
हाल ही में वैज्ञानिकों ने कैंसर के उपचार में एक क्रांतिकारी खोज का दावा किया है, जिसमें कैंसर कोशिकाओं को निन्यानबे फीसद तक नष्ट किया जा सकता है और संभावित रूप से कठिन सर्जरी की जरूरत भी कम हो सकती है। राइस यूनिवर्सिटी के केमिस्ट जेम्स टूर के मुताबिक इस नई तकनीक में आमतौर पर ‘जैव-इमेजिंग’ में ‘सिंथेटिक डाई’ के रूप में काम करने वाले ‘अमीनोसायनिन मालीक्यूल’ का उपयोग किया जाता है। ये मालीक्यूल ‘नियर-इन्फ्रारेड लाइट’ से उत्तेजित होकर कैंसर ऊतकों की झिल्ली को तोड़ देते हैं।
इनके हिलने-डुलने से उनके अंदर ‘प्लास्मोन’ नामक कंपन करने वाले कण बनते हैं, जो पूरे मालीक्यूल को हिलाते हैं और ये प्लास्मोन कैंसर ऊतकों की झिल्ली से जुड़कर उन्हें कंपाते हुए नष्ट कर देते हैं। वैज्ञानिकों ने इस तकनीक को ‘मालीक्यूलर जैकहैमर’ नाम दिया गया है। यह खोज हालांकि अभी प्रारंभिक अवस्था में है, लेकिन वैज्ञानिक कैंसर के उपचार में इस तकनीक के संभावित क्रांतिकारी प्रभाव के बारे में आशावादी हैं।
कैंसर का इलाज आमतौर पर कीमोथैरेपी, रेडिएशन थैरेपी तथा सर्जरी के जरिए किया जाता है। इसके अलावा स्टेम सेल का उपयोग करके एक अन्य प्रकार का उपचार भी किया जाता है, जिसे ‘डिफरेंशियल थैरेपी’ या ‘विभेदन चिकित्सा’ कहा जाता है, जिसमें कैंसर कोशिकाओं को सामान्य कोशिका बनाने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
शिकागो विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के मुताबिक स्टेम कोशिकाएं सामान्य कोशिकाएं होती हैं, जो आगे जाकर विकास के दौरान त्वचा, हड्डी, रक्त और अन्य अंगों में कोशिकाओं की भरपाई तथा क्षतिग्रस्त ऊतकों को दुरुस्त और पुनर्जीवित कर सकती हैं। स्टेम सेल सभी प्रकार के कैंसर के लिए कई अलग-अलग तरीकों से संभावित उपचार प्रदान कर सकते हैं।
चीनी वैज्ञानिकों ने रेडियोथैरेपी के तहत कैंसर रोगियों में हड्डियों के नुकसान को रोकने के लिए चुंबकीय ऊर्जा की मदद से एक गैर-आक्रमणशील तकनीक विकसित करने का दावा किया है। दरअसल, रेडियोथैरेपी आमतौर पर कैंसर के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाती है, जिसमें कैंसर कोशिकाओं को मारने और ट्यूमर को सिकोड़ने के लिए विकिरण की ‘हाई डोज’ का इस्तेमाल होता है, जिसका लक्ष्य स्वस्थ कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाए बगैर कैंसर को नष्ट करना होता है।
चीन में चौथे सैन्य चिकित्सा विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने कई ईएमएफ तरंगों के साथ उत्तेजना के जवाब में विकिरणित हड्डी कोशिकाओं में ‘रीयल-टाइम कैल्शियम आयन सिग्नलिंग’ की जांच करने पर पाया कि स्पंदित-प्रस्फोट ईएमएफ ने दो मिलीसेला की तीव्रता और पंद्रह हर्ट्ज की आवृत्ति पर प्रशासित होने पर सबसे मजबूत कैल्शियम आयन सिग्नलिंग प्रतिक्रिया शुरू की। शोधकर्ताओं के मुताबिक ये निष्कर्ष रेडियोथैरेपी-प्रेरित हड्डी क्षति को गैर-आक्रमणशील और लागत प्रभावी ढंग से कम करने की एक नई संभावना प्रदान करते हैं।
‘द न्यू इंग्लैंड जर्नल आफ मेडिसिन’ में प्रकाशित एक रपट में कैंसर के उपचार की दिशा में ‘डोस्टारलिमैब’ नामक एक ऐसी दवा के बारे में जानकारी प्रकाशित हुई, जिससे केवल छह महीने में कैंसर पूरी तरह ठीक हो सकता है। रपट के मुताबिक यह दवा कैंसर सेल की पहचान उजागर कर देती है, जिसके बाद शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली इस तक पहुंचकर इसे नष्ट कर देती है।
दवा के परीक्षण के दौरान अठारह कैंसर मरीजों को यह दवा छह महीने तक हर तीसरे हफ्ते दी जाती रही और परिणाम के तौर पर देखा गया कि उनका कैंसर पूरी तरह खत्म हो गया। कैंसर विशेषज्ञों के मुताबिक अभी तक के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है। अगर इस दवा का प्रयोग सफल रहा तो यह कैंसर के उपचार की दिशा में बहुत बड़ी क्रांति होगी। वैसे इस दवा को लेकर फिलहाल सबसे बड़ी समस्या यह है कि अभी इसकी एक खुराक की कीमत करीब साढ़े आठ लाख रुपए है। मगर माना जा रहा है कि समय के साथ दवा की कीमत कम होने से मरीजों को इसका लाभ मिल सकता है।
भारतीय वैज्ञानिकों ने भी अपने एक शोध में एक विशेष प्रकार के ‘माइक्रो आरएनए’ की पहचान की है, जो जीभ का कैंसर होने पर अत्यधिक सक्रिय रूप से दिखाई देता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इस आरएनए में बदलाव कर कैंसर के उपचार की नई तकनीक विकसित करने की संभावनाओं का पता लगाया जा सकता है। आइआइटी मद्रास, कैंसर संस्थान चेन्नई तथा बंगलुरु के भारतीय विज्ञान संस्थान के शोधकर्ताओं ने इस माइक्रो आरएनए को ‘एमआइआर-155’ नाम दिया है।
रिबो न्यूक्लिक एसिड ऐसे ‘नान कोडिंग आरएनए’ हैं, जो कैंसर को पनपने में मदद करने के साथ ही विभिन्न जैविक और नैदानिक प्रक्रियाओं को नियंत्रित करने में शामिल रहते हैं। ऐसे में जीभ के कैंसर के इलाज के लिए इनमें बदलाव कर उपचार की नई तकनीक विकसित करने की संभावनाओं का पता लगाया जा सकता है।
माइक्रो आरएनए कुछ प्रोटीन के कार्यों को बाधित या सक्रिय कर कैंसर के फैलाव को प्रभावित करता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि ‘एमआइआर-155’ में आणविक स्तर पर बदलाव करके ‘पीडीसीडी4’ को बहाल किए जाने से कैंसर और विशेषकर जीभ के कैंसर के इलाज की नई तकनीक विकसित की जा सकती है।
आज कैंसर जिस तरह दुनिया भर में फैल रहा है, जिसके चलते हर साल एक करोड़ से ज्यादा लोग मौत के मुंह में समा जाते हैं, उसमें इसके सफल उपचार के लिए ऐसे क्रांतिकारी चतीके खोजने की सख्त जरूरत महसूस की जा रही है, जिससे कम तकलीफ और कम खर्च में लोगों का इलाज संभव हो सके।