लोकसभा चुनाव से ठीक पहले केंद्र की मोदी सरकार ने गरीब सवर्ण जातियों को 10 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा करके एक बड़ा सियासी दांव चला है। आरक्षण से जुड़ा संविधान संशोधन बिल केंद्र सरकार ने मंगलवार को लोकसभा में पेश कर दिया। लेकिन, इसके कानून बनने और अमल में आने की राह काफी लंबी और जटिल है। इस बिल पर वोटिंग के दौरान लोकसभा और राज्यसभा में दो-तिहाई सदस्यों का समर्थन जरूरी होगा। संसद से बिल पारित हो भी गया तो इसके बाद कम से कम देश के आधे राज्यों की विधानसभाओं से भी मंजूरी लेनी होगी।
अगर संशोधन बिल पारित होता है तो यह संविधान में 124वां संशोधन होगा। इस संशोधन के जरिए केंद्र सरकार संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में नए क्लॉज जोड़ना चाह रही है, ताकि आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों के लिए आरक्षण संभव बनाया जा सके। अभी तक ये अनुच्छेद एससी/एसटी और ओबीसी को ही आरक्षण देने की बात करते हैं।
गौरतलब है कि पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह द्वारा मंडल कमिशन की सिफारिशों को लागू करने के बाद अगड़ी जातियों के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए 1991 में तत्कालीन पीएम नरसिम्हा राव ने 10 फीसदी के आरक्षण का प्रावधान किया। लेकिन, 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने इंद्रा शाहने और अन्य बनाम भारत संघ मामले में फैसला दिया कि आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होगी। कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 15 (4) का हवाला देते हुए अगड़ी जातियों के आरक्षण को अमान्य करार दिया। अनुच्छेद 15 (4) में सिर्फ सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर पिछड़ों को ही आरक्षण देने की बात है, आर्थिक आधार पर नहीं।
सरकार में बैठे एक अति महत्वपूर्ण सूत्र का कहना है कि उस दौरान (1992) नरसिम्हा राव की कोशिश आरक्षण संबंधी 50 फीसदी की सीमा के चलते मुमकिन नहीं हो पाई। लेकिन, इस दफे मोदी की सरकार संविधान संशोधन के जरिए 60 फीसदी आरक्षण सीमा निर्धारित करने जा रही है। पूर्व के उदाहरण के मद्देनज़र इसमें कानूनी अड़चन की आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
50 फीसदी आरक्षण सीमा की वैधता का सवाल: सवर्ण जातियों में आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को 10 फीसदी आरक्षण निर्धारित 50 फीसदी की सीमा से अधिक है। इससे पहले 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने इंद्रा शाहने और अन्य बनाम भारत संघ मामले में 50 फीसदी से अधिक आरक्षण सीमा को अमान्य करार दिया है। गौरतलब है कि तमिलनाडु में संविधान की 9वीं अनुसूची के तहत वहां पर लागू 69 फीसदी आरक्षण को न्यायिक समिक्षा से छूट मिली है। मगर, फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले से जुड़े अपने एक फैसले में कहा कि वो कानून जो 24 अप्रैल, 1973 के बाद नौवीं अनुसूची में जोड़े गए हैं अगर संविधान की मूल ढाचा का उल्लंघन करते हैं तो उनकी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। ऐसे में माना जा रहा है कि वर्तमान में प्रस्तावित 10 फीसदी के अतिरिक्त कोटे को न्यायालय में चुनौती दी सकती है।