Researcher of fossils: बीरबल साहनी को बचपन से ही प्रकृति से बहुत लगाव था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा लाहौर के सेंट्रल माडल स्कूल में हुई और फिर वे उच्च शिक्षा के लिए गवर्नमेंट कालेज यूनिवर्सिटी, लाहौर और पंजाब यूनिवर्सिटी गए। प्रसिद्ध वनस्पति शास्त्री प्रोफेसर शिवदास कश्यप से उन्होंने वनस्पति विज्ञान सीखा। सन 1911 में उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से बीएससी की परीक्षा पास की, फिर इंग्लैंड चले गए।
सन 1914 में उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि ली और उसके बाद प्रोफेसर एसी नेवारड (उस समय के श्रेष्ठ वनस्पति विशेषज्ञ) के सान्निध्य में शोध कार्य में जुट गए। सन 1919 में उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से डाक्टर आफ साइंस की उपाधि अर्जित की। उसके बाद वे कुछ समय के लिए म्यूनिख गए, जहां उन्होंने प्रसिद्ध वनस्पति शास्त्री के. गोनल के निर्देशन में शोध कार्य किया। उनका पहला शोधपत्र ‘न्यू फाइटोलाजी’ पत्रिका में छपा, जिसके बाद वनस्पति शास्त्र की दुनिया में उनका प्रभाव बढ़ा। उसके बाद उनका शोध कार्य जारी रहा।
बीरबल साहनी अपने विषय में इतने होनहार थे कि विदेश में उनकी शिक्षा बिना माता-पिता के आर्थिक सहायता के ही संपन्न हुई। उन्हें लगातार छात्रवृत्ति मिलती रही। विदेश प्रवास के दौरान उनकी मुलाकात अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों और विद्वानों से हुई। सन 1919 में वे भारत वापस आ गए और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक के रूप में कार्य करने लगे। इसके बाद उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय में भी कार्य किया, पर यहां भी वे कुछ ही समय रहे। 1921 में उनकी नियुक्ति लखनऊ विश्वविद्यालय में नव-स्थापित वनस्पति शास्त्र विभाग के अध्यक्ष के रूप में हो गई।
वे प्रयोगशाला के बजाय खुले में ही काम करना पसंद करते थे। सन 1943 में लखनऊ विश्वविद्यालय में जब भूगर्भ विभाग स्थापित हुआ, तब उन्होंने वहां अध्यापन कार्य भी किया। उन्होंने हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और सिंधु घाटी के कई स्थलों का अध्ययन कर इस सभ्यता के बारे में अनेक निष्कर्ष निकाले। उन्होंने चीन, रोम, उत्तरी अफ्रीका आदि में भी सिक्के ढालने की विशेष तकनीक का अध्ययन किया। वे पुरा-वनस्पति के प्रकांड विद्वान थे और अपना ज्ञान अपने तक ही सीमित नहीं रखना चाहते थे, इसलिए छात्रों और युवा वैज्ञानिकों को प्रोत्साहन देते थे।
विश्वविद्यालय के डीन के तौर पर उन्हें जो विशेष भत्ता मिलता था, उसका उपयोग उन्होंने नए शोध कार्य कर रहे वैज्ञानिकों के प्रोत्साहन में किया। 1946 में जवाहरलाल नेहरू ने बीरबल साहनी संस्थान की आधारशिला रखी। सन 1947 में तत्कालीन शिक्षामंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद ने उन्हें देश का शिक्षा सचिव बनने का प्रस्ताव भेजा, पर साहनी अपना बाकी का जीवन पुरा-वनस्पति विज्ञान के अध्ययन, शोध और विकास में लगाना चाहते थे, इसलिए इस प्रस्ताव को विनम्रतापूर्व अस्वीकार कर दिया।
बीरबल साहनी के वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य को देश-विदेश में सराहा और सम्मानित किया गया। सन 1930 और 1935 में उन्हें विश्व कांग्रेस पुरा-वनस्पति शाखा का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया। वे भारतीय विज्ञान कांग्रेस के दो बार (1921 तथा 1928) अध्यक्ष रहे। सन 1937-38 तथा 1943-44 में वे राष्ट्रीय विज्ञान एकेडमी के प्रधान रहे। सन 1936-37 में लंदन के रायल सोसाइटी ने उन्हें फेलो चुना।
उनके अनुसंधान जीवाश्म (फासिल) पौधों पर सबसे अधिक हैं। उन्होंने एक फासिल ‘पेंटोजाइली’ की खोज की, जो राजमहल पहाड़ियों में मिला था। इसका दूसरा नमूना अभी तक कहीं नहीं मिला है। उन्होंने वनस्पति विज्ञान पर कई पुस्तकें लिखी हैं और इनके अनेक शोधप्रबंध दुनिया के विभिन्न वैज्ञानिक शोध पत्रकिाओं में प्रकाशित हुए हैं। साहनी चित्रकला और संगीत के भी प्रेमी थे। भारतीय विज्ञान कांग्रेस ने इनके सम्मान में ‘बीरबल साहनी पदक’ की स्थापना की है, जो भारत के सर्वश्रेष्ठ वनस्पति वैज्ञानिक को दिया जाता है। इनके छात्रों ने अनेक नए पौधों का नाम साहनी के नाम पर रख कर इनके नाम को अमर बनाए रखने का प्रयत्न किया है।