ज्ञान-विज्ञान का रिश्ता परंपरा से ज्यादा आधुनिकता और विज्ञान से जुड़ा है। पर इस तर्क के आधार पर ज्ञान और अनुभव की पुरानी थातियों को गंवाना भी कोई बुद्धिमानी नहीं है। मौजूदा दौर में चिकित्सा के क्षेत्र में एलोपैथी का बोलबाला पूरी दुनिया में है। चिकित्सा की इस पद्धति ने विज्ञान और बाजार को एक साथ साधा है। इस कारण आयुर्वेद जैसी कई पुरानी चिकित्सा पद्धतियां या तो काफी पीछे रह गर्इं या फिर उनके विकास के लिए अपेक्षित कार्य नहीं किए गए। शल्य चिकित्सा और आयुर्वेद को भारत में हाल में नीतिगत मंजूरी दी गई है। इस बारे में तमाम पहलुओं की जानकारी दे रहे हैं सुशील राघव।

दुनिया में कोरोना विषाणु संक्रमण के पहले मामले को सामने आए एक साल बीत गया है। इस दौरान चिकित्सा और विज्ञान जगत ने कोरोना विषाणु से संक्रमित लोगों को बचाने और स्वस्थ लोगों को इसके संक्रमण से दूर रखने के उपाय खोजने में दिन-रात काम किया। इस अथक परिश्रम की वजह से कोरोना के टीकों के रूप में नई रोशनी कई देशों के लोगों तक पहुंचनी शुरू हो गई है। उम्मीद है कि जल्द ही भारत में भी कोरोना के टीकों को भारतीय औषधि महानियंत्रक से मंजूरी मिलेगी और जैसा कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा है कि अगले साल जुलाई तक 25 से 30 करोड़ लोगों को यह टीका दे दिया जाएगा।

हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि इसके बाद भी कोरोना के खिलाफ यह लड़ाई लंबी चलने वाली है। भारत में इस लड़ाई के बीच हमारी पारंपरिक चिकित्सा की पद्धतियां संकट मोचक के रूप में सामने आई हैं। इन पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों को संयुक्त रूप से ‘आयुष’ यानी आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी कहते हैं।

कोरोना और काढ़ा

कोरोना काल की शुरुआत से ही केंद्र सरकार की ओर से नागरिकों को रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए आयुर्वेद और योग के उपयोग की सलाह बार-बार दी गई। आम लोगों ने भी न केवल इस सलाह को माना बल्कि आत्मसात भी किया। शुरुआत आयुर्वेद के काढ़े से हुई और आज के दिन जब आयुष पर विश्वास बढ़ा है तो यह काढ़ा बहुत सारे लोगों की दिनचर्या में शामिल हो चुका है।

आज जब कोरोना विषाणु के संक्रमण से बचने की बात होती है तो दो गज दूरी और मास्क लगाने के 0साथ प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए आयुर्वेद के नुस्खे भी अपनाने को कहा जाता है, जिनमें भोजन में हल्दी, जीरे व धनिये का इस्तेमाल करना, हर सुबह एक चम्मच च्यवनप्राश खाना, गर्म पानी व हर्बल चाय पीना आदि शामिल हैं। इतना ही नहीं, बीमारियों को रोकने के लिए भी इन पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों पर लोगों का विश्वास बढ़ा है।

तारीखी मंजूरी

आयुर्वेद के लिए यह समय नीतिगत रूप से अपनी क्षमता विस्तार के लिए एक और वजह से ऐतिहासिक रहा। भारतीय चिकित्सा केंद्रीय परिषद (सीसीआइएम) की ओर से एमएस (शल्य तंत्र आयुर्वेद) के डिग्रीधारियों को 39 तरह की छोटी-बड़ी शल्य चिकित्सा और 19 ईएनटी की प्रक्रिया अपनाने की इजाजत दी गई है। इसके लिए केंद्र सरकार की ओर से 19 नवंबर को एक गजट नोटिफिकेशन भी निकाला गया। अब मरीज एलोपैथिक के साथ-साथ आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में भी आॅपरेशन करवा सकेगा। वर्तमान में हर्निया, गांठ, एपेंडिक्स, बवासीर सहित कई तरह के आॅपरेशन आयुर्वेद चिकित्सा में किए जा रहे हैं।

दरअसल, शल्य क्रिया स्नातक स्तर की साढ़े पांच वर्ष की डिग्री के बाद तीन साल का स्नातकोत्तर (एमएस) पाठ्यक्रम अधिकृत किया गया है। सरकार की ओर से जारी गजट नोटिफिकेशन में एमएस शल्य तंत्र में डिग्रीधारी डॉक्टरों को 39 आॅपरेशन की अनुमति दी गई है। इन 39 रोगों में फोड़े का वेदन, त्वचा की ग्राफ्टिंग, सामान्य सिस्ट का उच्छेदन, प्राणष्टशल्य निर्हरण, भग्न चिकित्सा, संघिमोक्ष और उदर रोग निदान चिकित्सा आदि शमिल हैं। आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को नवीन और वैज्ञानिक सरोकारों पर खरा होने में शल्य चिकित्सा को लेकर मिली यह स्वीकृति एक मील का पत्थर साबित हो सकती है। अलबत्ता यह भी है कि इसके कारण दुनिया भर में लोकप्रिय एलोपेथी चिकित्सा से जुड़े विशेषज्ञ आयुर्वेद की मौलिक पद्धति पर सवाल खड़े कर रहे हैं और कह रहे हैं कि दूसरे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की कुछ चीजों को शामिल भर कर लेने भर से कोई पद्धति सुदृढ़ या प्रभावी नहीं हो जाती।

लंबा सफर

आयुष की पद्धतियों को आमजन के बीच लोकप्रिय होने के लिए काफी लंबा रास्ता तय करना पड़ा है। आजादी के पहले और बाद में भारत सरकार की ओर से गठित कई समितियों ने चिकित्सा की पारंपरिक पद्धतियों को बढ़ावा देने की बात कही ताकि देश में स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारा जा सके। ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करने के उद्देश्य से 1983 में आई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान शिक्षा नीति (1989) और राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (2002) में इंडियन स्कूल आॅफ मेडिसिन (आइएसएम) और होम्योपैथी (एच) की भूमिका पर प्रकाश डाला गया। तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-66) में देश में पहली बार आयुर्वेद पर एक डिप्लोमा पाठ्यक्रम शुरू हुआ। 1970 में भारतीय चिकित्सा केंद्रीय परिषद और फिर 1973 में केंद्रीय होम्योपैथी परिषद का गठन किया गया।

छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85) के तहत पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों की दवाओं और सातवीं पंचवर्षीय योजना (1985-90) में इन पद्धतियों के चिकित्सकों को तैयार करने पर जोर दिया गया। 1995 में केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के तहत इंडियन सिस्टम आॅफ मेडिसन एंड होम्योपैथी विभाग की शुरुआत की गई। इस विभाग को शुरू करने के पीछे का उद्देश्य आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी में शिक्षा और शोध का विकास था। 2003 में इस विभाग का नाम बदलकर आयुष किया गया। राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रमों विशेषकर प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल में आयुष के डॉक्टरों को 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत लाया गया।

मंत्रालय का दर्जा

2014 में जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी तो केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के तहत काम करने वाले आयुष विभाग को मंत्रालय का दर्जा दे दिया गया ताकि स्वास्थ्य देखभाल की आयुष प्रणालियों का विकास और प्रसार को सुनिश्चित किया जा सके। आधिकारिक रूप से नौ नवंबर, 2014 को आयुष मंत्रालय का गठन हुआ। आयुष मंत्रालय को 2014 में 1069 करोड़ रुपए का बजट आबंटित हुआ जो 2015 में बढ़कर 1214 करोड़ रुपए हो गया। 2020 में इस मंत्रालय का बजट बढ़कर 2100 करोड़ रुपए हो गया।

अव्वल बिहार</strong>

केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे की ओर से राज्यसभा को इसी साल बताया गया कि देश में आयुर्वेद, यूनानी और होम्योपैथी के डॉक्टरों की संख्या 7.88 लाख है। इनमें से 55 फीसद आयुर्वेद डॉक्टर, 36 फीसद होम्योपैथी और सात फीसद यूनानी डॉक्टर हैं। आयुष मंत्रालय के अंतर्गत 3600 से अधिक अस्पताल चल रहे हैं जिनमें 5.62 लाख बिस्तर मौजूद हैं। 26 हजार से अधिक डिस्पेंसरियां देश में मौजूद हैं।

वहीं, 2013 में आयुष डॉक्टरों की संख्या 6.86 लाख थी। आयुष मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक 2013 में बिहार में सबसे अधिक 20.1 फीसद आयुष के डॉक्टर पंजीकृत थे। इसके बाद महाराष्ट्र में 19, उत्तर प्रदेश में 12.1 और मध्य प्रदेश में 8.8 फीसद पंजीकृत डॉक्टर थे। 1970 के दशक में देश में सिर्फ चार गैर एलोपैथी डॉक्टरों को कानूनी मान्यता मिली हुई थी।

आयुष शिक्षा
अखिल विस्तार

आयुष मंत्रालय के अंतर्गत 11 राष्ट्रीय संस्थान कार्य करते हैं। इनमें उत्तर पूर्वी लोक औषधि संस्थान-अरुणाचल प्रदेश, अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान-दिल्ली, स्नातकोत्तर आयुर्वेद शिक्षण एवं शोध संस्थान-गुजरात, राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान-राजस्थान, उत्तर पूर्वी आयुर्वेद एवं होम्योपैथी संस्थान-मेघालय, राष्ट्रीय आयुर्वेद विद्यापीठ-दिल्ली, राष्ट्रीय सिद्ध संस्थान-तमिलनाडु, राष्ट्रीय होम्योपैथी संस्थान-पश्चिम बंगाल, राष्ट्रीय यूनानी औषधि संस्थान-कर्नाटक, मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान-दिल्ली और राष्ट्रीय प्राकृतिक चिकित्सा संस्थान-महाराष्ट्र शामिल हैं।
इनके अलावा देश भर में 86 कॉलेज या संस्थान हैं जो आयुष पद्धतियों की पढ़ाई कराते हैं।

आयुष पद्धतियों की पढ़ाई की बात करें तो देश में डिप्लोमा से लेकर स्नातक, स्नातकोत्तर और शोध पाठ्यक्रम भी पढ़ाए जाते हैं। स्नातक स्तर पर बैचलर आॅफ आयुर्वेदिक मेडिसिन एंड सर्जरी (बीएएमएस), बैचलर आॅफ होम्योपैथिक मेडिसिन एंड सर्जरी (बीएचएमएस), बैचलर आॅफ नैचुरोपैथी एंड योगा साइंसेज (बीएनवाईएस), बैचलर आॅफ सिद्धा मेडिसिन एंड सर्जरी (बीएसएमएस) और बैचलर आॅफ यूनानी मेडिसिन एंड सर्जरी (बीयूएमएस) प्रमुख पाठ्यक्रम हैं। स्नातक पाठ्यक्रमों में एमबीबीएस की तरह ही राष्ट्रीय योग्यता एवं पात्रता परीक्षा (नीट) के जरिए दाखिला होता है।

आयुष के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में दाखिले के लिए उम्मीदवारों को अखिल भारतीय आयुष स्नातकोत्तर प्रवेश परीक्षा देनी होती है। आयुष पद्धतियों की पढ़ाई और शोध के नियमन के लिए विभिन्न परिषद कार्यरत हैं। इनमें केंद्रीय आयुर्वेदिक विज्ञान शोध परिषद, केंद्रीय यूनानी औषधि शोध परिषद, केंद्रीय सिद्धा शोध परिषद, केंद्रीय होम्योपैथी शोध परिषद और केंद्रीय प्राकृतिक विज्ञान एवं योग शोध परिषद शामिल हैं।