चिराग पासवान दोराहे पर खड़े हैं। नीतीश कुमार से पटरी नहीं बैठ पाई थी, तभी तो पिछला विधानसभा चुनाव अकेले लड़ना पड़ा था। सिर्फ एक विधायक विजयी हुआ था उनका। जो बाद में जनता दल (एकी) में शामिल हो गया था। चिराग अपने पिता रामविलास पासवान की मौत के बाद से सियासत में एक तरह से हाशिए पर हैं। वे जमुई से लोकसभा सदस्य हैं। लोक जनशक्ति पार्टी के 2019 में छह लोकसभा सदस्य चुनाव जीते थे। यह पार्टी रामविलास पासवान ने बनाई थी।

पासवान को लालू यादव कटाक्ष में मौसम विज्ञानी कहते थे। वे यूपीए छोड़कर 2014 में ही राजग में शामिल हुए थे। इसका उन्हें फायदा मिला था। उनकी पार्टी के सात सांसद जीत गए थे। वे खुद मोदी सरकार में मंत्री पद पा गए थे। भाजपा ने बाद में उन्हें राज्यसभा दे दी थी और मंत्री पद भी। लेकिन, 2020 के बाद चिराग पासवान पिता की विरासत को सहेज नहीं पाए। उनके सगे चाचा पशुपति कुमार पारस से उनके मतभेद इस कदर गहरा गए कि चाचा ने उन्हें पार्टी से ही निकाल दिया।

चाचा सहित पांच सांसद एक तरफ चले गए। चिराग अकेले रह गए। चिराग के विरोध के बावजूद भाजपा ने पशुपति कुमार पारस को केंद्र में रामविलास की जगह मंत्री पद भी दे दिया। राज्यसभा की पिता के निधन से खाली हुई सीट चिराग चाहते थे कि उनकी मां रीना पासवान को मिल जाए। पर, उनकी यह हसरत भी पूरी नहीं हो पाई। ताजा दुविधा यह है कि चिराग तय नहीं कर पा रहे कि राजग मेंं जाएंगे या महागठबंधन में। चाचा पशुपति कुमार पारस तो राजग में हैं हीं।

चिराग ने शर्त लगाई है कि उन्हें साथ लेना है तो भाजपा उनके चाचा को बाहर करे। भाजपा इसके लिए तैयार नहीं। उल्टे चिराग को समझा रही है कि जब चाचा को उनके साथ आने पर एतराज नहीं तो फिर वे चाचा का विरोध क्यों कर रहे हैं। चिराग यह भी चाहते हैं कि भाजपा गठबंधन में उन्हें हाजीपुर की सीट दे, जहां से फिलहाल पशुपति कुमार पारस सांसद हैं। हाजीपुर रामविलास पासवान की पुरानी संसदीय सीट थी। पशुपति कुमार पारस यह सीट नहीं छोड़ना चाहते।

उधर, चुनाव आयोग ने लोक जनशक्ति पार्टी और उसके चुनाव निशान दोनों को जब्त कर रखा है। चिराग की पार्टी का नाम लोजपा (रामविलास) और चुनाव निशान हेलिकाप्टर है। जबकि उनके चाचा की पार्टी का नाम रालोजपा और चुनाव निशान सिलाई मशीन है। इतना तो तय है कि भाजपा पर अब चिराग पासवान सीटों के लिए दबाव तो नहीं बना पाएंगे। बेहतर होता कि अहम की लड़ाई छोड़ चाचा-भतीजा पहले की तरह एक हो जाते।

बंगलुरु पर नजर

गैर राजग विपक्षी दलों की शिमला की बैठक तो मौसम की खराबी के कारण टल गई और अब बंगलुरु में होगी। वहां भी सरकार कांगे्रस की ठहरी। लिहाजा बंदोबस्त में कोई अड़चन नहीं होगी। पटना की बैठक से इतना तो साफ हो गया कि कांग्रेस प्रधानमंत्री पद के लिए अभी अपना दावा भले पेश न करे पर बकौल लालू दूल्हे तो अंतत: राहुल गांधी ही होंगे। बीजू जनता दल, बसपा, वाईएसआर कांगे्रस और बीआरएस, ये चारों दल अगले लोकसभा चुनाव में तटस्थ ही रहेंगे। आम आदमी पार्टी अभी दुविधा में है। पर इस मोर्चे से अलग भी सियासी खिचड़ी पक रही है।

खासकर उत्तर प्रदेश में। यहां नई चर्चा बसपा के कांग्रेस के साथ गठबंधन की चल रही है। बसपा ने कांगे्रस के प्रति अपने तेवर पिछले एक महीने में नरम किए हैं। बसपा की दुविधा यह है कि पिछले विधानसभा चुनाव में बारह फीसद वोट पाकर भी सीट उसे एक ही मिल पाई। कांग्रेस के वोट भले दो फीसद रहे हों पर सीट दो आ गई। ऐसे में सवाल उठता है कि दो फीसद वाली पार्टी के साथ जाकर बसपा को क्या मिलेगा। खेल, दरअसल मुसलमान वोट का है। उत्तर प्रदेश में दलित और मुसलमान ही साथ आ जाएं तो बड़ा उलटफेर मुमकिन हो सकता है। बसपा का अपना आकलन है कि उसके अकेले मैदान में उतरने पर ज्यादा मुसलमानों को टिकट देने पर भी मुसलमान उसके साथ नहीं आएगा।

सचिन पायलट का संतुलन

सचिन पायलट ने अभी तक अपनी अलग पार्टी बनाने की कोई औपचारिक घोषणा नहीं की है। पिता राजेश पायलट के जन्मदिन पर दौसा में हुई रैली में सचिन संतुलित रहे। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का नाम लेकर कोई आलोचना भी नहीं की। इतना तय है कि सचिन पायलट फंस गए हैं। भाजपा आलाकमान उन्हें ज्यादा अहमियत नहीं दे रहा। राजस्थान में तीसरे मोर्चे की भी अभी ज्यादा संभावना नजर नहीं आती। भाजपा तो फिर महारानी की शरण में ही चली गई है।

वसुंधरा राजे के रहते सचिन को भाजपा में मुख्यमंत्री पद मिलना संभव नहीं लगता। ऐसे में कांग्रेस छोड़कर भी अगर कोई लाभ नहीं दिखेगा तो सचिन यह जोखिम क्यों उठाएंगे? बेशक अलग पार्टी बनाने की सूरत में अगर वे 15-20 सीटें जीत गए और विधानसभा त्रिशंकु रही तो जरूर सौदेबाजी की उनकी क्षमता बढ़ जाएगी।

पर मुख्यमंत्री पद तो फिर भी शायद ही मिल पाए। कहने वाले जरूर कह रहे हैं कि कांग्रेस में अपनी दाल गलती न देख हताशा में अंतत: सचिन अपनी पार्टी ही बनाएंगे। वे हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी, मायावती की बसपा और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के साथ मिलकर तीसरा मोर्चा बना लें तो अचरज नहीं होना चाहिए।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)