लोकसभा चुनाव के बाद देश की राजनीति में काफी बदलाव आया है। एक तरफ जहां केंद्र में सहयोगी दलों की भूमिका में इजाफा हुआ है, वहीं विपक्ष भी संसद में मजबूती के साथ अपनी आवाज रखने में सक्षम हुआ है। इसका असर राज्यों पर भी पड़ा है। कई राज्यों में बीजेपी की ताकत घटी है तो कई जगह कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल मजबूत हुए हैं।

दिल्ली-लखनऊ

उत्तर प्रदेश में भाजपा की गुटबाजी जारी है। एक तरफ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पार्टी के नेताओं को इलाकेवार बुलाकर उनसे मुलाकात का सिलसिला शुरू कर दिया है और मंशा असंतोष कम करने की है। दूसरी तरफ उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य के साथ उनके रिश्तों की तल्खी बरकरार है। प्रदेश कार्यसमिति की बैठक के बाद से मौर्य ने न तो योगी की बुलाई किसी बैठक में हिस्सा लिया है और न ही किसी कैबिनेट बैठक में। अलबत्ता दिल्ली दरबार से उनके तार बदस्तूर जुड़े हैं।

मौर्य के हाव-भाव से झलकता है कि सूबे में सत्ता और संगठन दोनों में ही बदलाव होगा। योगी को हटाने की मुहिम 2021 में कोरोना काल में हुई थी। तब वे बच गए थे। पांच साल राज करने के बाद एक तो 2022 में विधानसभा में पार्टी की सीटें घटी, ऊपर से लोकसभा चुनाव में सूबे ने आलाकमान के मंसूबों पर पानी फेर दिया। समर्थक भले दलील दें कि योगी को हटाने से सूबे में भाजपा को नुकसान होगा। पर आलाकमान के लिए वे अपरिहार्य नहीं हैं।

केशव मौर्य की राजनीतिक जमीन उतनी नहीं है जितना आलाकमान ने उन्हें सिर पर बिठा रखा है। वे 2012 में केवल एक बार विधानसभा और 2014 में लोकसभा चुनाव जीते। बाकी चुनाव वे हारते ही रहे। और तो और 2022 में भी वे पल्लवी पटेल से चुनाव हार गए। अखिलेश यादव ठीक ही कह रहे हैं कि झगड़ा दिल्ली और लखनऊ का है, केशव मौर्य तो सिर्फ मोहरे हैं।

बनर्जी का बदलाव

अभिषेक बनर्जी ने बजट पर चर्चा के दौरान लोकसभा में जो तेवर दिखाए उससे संकेत मिल गया कि वे अब रक्षात्मक छवि से निकलना चाहते हैं। अभी तक तो ईडी और सीबीआइ जैसी केंद्रीय एजंसियां ही पीछा नहीं छोड़ रही थी पर भाजपा कमजोर हुई तो अभिषेक बनर्जी ने सुर मजबूत किया। लोकसभा अध्यक्ष पर पक्षपातपूर्ण व्यवहार का आरोप लगाया। बिरला की तरह बनर्जी भी लोकसभा में लगातार तीसरी बार चुनकर आए हैं। पहली बार जब 2014 में ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक ने पश्चिम बंगाल की डायमंड हार्बर सीट से चुनाव जीता तो वे 16वीं लोकसभा के सबसे युवा सदस्य थे। तीसरी बार तो उन्होंने सात लाख से अधिक वोट के अंतर से हराया है भाजपा उम्मीदवार को। इस बार लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांगे्रस की पिछली बार से सात सीटें ज्यादा आई हैं। भाजपा को झटके के बाद अभिषेक मजबूत दिख रहे।

अस्तित्व को लेकर सक्रिय

बहिनजी बसपा के अस्तित्व को लेकर सक्रिय हुई हैं। सत्ता से बाहर रहने पर भी सूबे की दस विधानसभा सीटों के अगले महीने संभावित उपचुनाव में भी उम्मीदवार उतारने का एलान कर दिया है। उत्साह में हरियाणा में अभय चौटाला के इनेलोद से मिलकर लड़ेंगी विधानसभा चुनाव। बसपा 37 और इनेलोद 53 सीटों पर। यह बात अलग है कि उत्तर प्रदेश में जो हालत बसपा की है, हरियाणा में इनेलोद की भी उससे बेहतर नहीं। कांशीराम ने अपने संगठन कौशल से मध्यप्रदेश में अर्जुन सिंह और हरियाणा में सूरजभान को अपने उम्मीदवारों से हरवा दिया था। वे खुद लोकसभा में दोनों बार सामान्य सीट से चुनकर गए थे। पर बहिनजी संगठन कौशल का वह हुनर कहां सीख पाईं।

व्यवहार की व्यथा

नीतीश कुमार के व्यवहार में पिछले कुछ वर्षों के दौरान आए बदलाव को देख उनके शुभचिंतक भी चिंतित हैं। विधानसभा में राजद की विधायक रेखा पासवान पर इस तरह गुस्साए कि हर कोई हैरान रह गया। जातीय सर्वेक्षण और आरक्षण पर बोल रहे नीतीश को रेखा पासवान टोक रही थी। नीतीश आपा खो बैठे और महिला विधायक पर लाल-पीला होते हुए बोले-महिला हो, कुछ जानती हो। फिर खुद ही संभले और लगे सफाई देने कि उनकी सरकार ने महिलाओं के लिए सबसे ज्यादा काम किया है। यह बात अलग है कि बुधवार के अपने इस आचरण के लिए अगले दिन बिहार के मुख्यमंत्री को विधानसभा में महिलाओं का अनादर करने के लिए काले झंडों का सामना करना पड़ा।

इससे पहले परिवार नियोजन पर सदन में बोलते हुए नीतीश ने अमर्यादित भाषा का तो इस्तेमाल किया ही था, हाथ से आपत्तिजनक संकेत भी कर दिए थे। विधानसभा में पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी पर हमलावर होते समय उनकी उम्र तक का लिहाज नहीं किया। मार्च 2021 में राजद के विधायक मुकेश रोशन नीतीश पर वार करने के लिए सदन के भीतर रक्तचाप मापने की मशीन ही लेकर आ गए। कहा था कि वे मुख्यमंत्री का रक्तचाप जांचेंगे, जो मामूली बात पर आपा खो बैठते हैं। कभी लालू, पासवान और शरद यादव की तुलना में नीतीश की चर्चा शांत स्वभाव को लेकर होती थी। पर, बढ़ती उम्र और घटते जनाधार ने बदल दिया है उनका मिजाज।

अधर में इस्तीफा

यह तो तय है कि यूपीएससी में सब कुछ सामान्य नहीं है। और, इस असामान्य का पूजा खेडकर से कोई लेना-देना नहीं है। यूपीएससी अध्यक्ष मनोज सोनी अपनी नियुक्ति के दिन से विवादों में रहे। उनकी सरकार से निकटता की चर्चा भी होती ही रहती है। लेकिन, पिछले एक अरसे से जबसे सोनी यूपीएससी के अध्यक्ष बने उनकी यूपीएससी के कामकाज और उससे जुड़ी कई संस्थागत बातों को लेकर अपनी अवधारणाएं रहीं। सूत्रों की मानें तो वे खुद भी बहुत अशक्त महसूस कर रहे थे।

जब बतौर अध्यक्ष मौखिक तौर पर की गई शिकायतों का कोई असर नहीं हुआ तो आखिर चार जुलाई को उन्होंने अपना इस्तीफा सरकार के शीर्ष को भेज दिया। अध्यक्ष के नजदीकी लोगों का दावा है कि इन्होंने पहले भी मेल पर अपनी तमाम आपत्तियों और उसे लेकर अपने नजरिए का ब्योरा दिया था। पर, जब कोई कार्रवाई नहीं की गई तो इससे आहत अध्यक्ष ने अपना इस्तीफा सौंप दिया। इस्तीफा अभी अधर में ही है। शायद इन हालात में इसकी मंजूरी या नामंजूरी पर भी खासी दुविधा है। बहरहाल, फैसले का इंतजार सबको है।