आरएसएस के लंबे समय तक प्रचारक रहे भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष दिलीप घोष ने पिछले दिनों विवाह किया। जिसको लेकर खूब चर्चा हुई। दरअसल इस शादी की चर्चा इस वजह से हुई क्योंकि 61 वर्षीय दिलीप कुंवारे थे। वहीं उनकी पत्नी रिंकू मजूमदार की पहले से शादीशुदा थी लेकिन उनके पति के देहांत के बाद उन्होंने दिलीप का हाथ थामा।
संघी मोशाय
पश्चिम बंगाल के सियासी हलकों में इन दिनों दिलीप घोष के खूब चर्चे हैं। भाजपा के सूबे के कद्दावर नेता रहे हैं घोष। आरएसएस के प्रचारक थे। इसके बाद भारतीय जनता पार्टीमें आए। पार्टी के सूबेदार भी रह चुके हैं। इस समय लोकसभा के सदस्य हैं। सुर्खियों में पहले तो वे तब आए जब पिछले दिनों उन्होंने 61 साल की उम्र में विवाह किया। वह भी पार्टी की ही एक कार्यकर्ता रिंकू मजूमदार से। पत्रकारों ने इस उम्र में शादी करने की वजह पूछी तो बेबाकी से बोल दिया कि अपनी मां के आदेश पर लिया उन्होंने यह फैसला।
ममता बनर्जी ने दीघा में जगन्नाथ मंदिर का उद्घाटन किया तो भाजपा का एक भी नेता वहां नहीं पहुंचा। इकलौते घोष गए और पूजा भी की। हालांकि पार्टी के सूबेदार ने इसे घोष का निजी फैसला करार दिया। घोष ममता बनर्जी से मुलाकात के कारण भी पार्टी नेताओं के निशाने पर चल रहे हैं। दीघा में तो वे फट ही पड़े। फरमाया कि उनके अध्यक्ष रहते पार्टी का विस्तार हुआ था। लेकिन बाहर से आए लोगों के नेतृत्व ने असर घटाया है पार्टी का। जाहिर सी बात है कि नाम लिए बिना संकेत सुवेंदु अधिकारी की तरफ था। चर्चा है कि घोष जल्द ही तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो सकते हैं। अपने से जूनियर सुकांत मजूमदार को केंद्र में मंत्री पद देने के पार्टी के फैसले के कारण भाजपा से मन उकता रहा है उनका।
बीएमसी की बारी
बृहन्न मुंबई महानगर पालिका यानि बीएमसी के चुनाव का रास्ता सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है। ओबीसी आरक्षण के कारण तीन साल से लटका था देश के सबसे बड़े स्थानीय निकाय का चुनाव। पिछले 25 साल से बीएमसी पर शिवसेना का कब्जा था। अब शिवसेना विभाजित है। उसके चुनाव निशान की कमान एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना के पास है। विरोधाभास यह है कि शिंदे का मुंबई में खास प्रभाव नहीं। मुंबई में तो प्रभाव भाजपा या उद्धव ठाकरे की शिवसेना का ही ठहरा। चर्चा है कि भाजपा बीएमसी चुनाव अकेले लड़ेगी। उद्धव ठाकरे समझ नहीं पा रहे कि बीएमसी चुनाव का नतीजा लोकसभा चुनाव की तर्ज पर आएगा या विधानसभा की तर्ज पर। लोकसभा में महाविकास अघाड़ी को बढ़त मिली थी पर विधानसभा में उसका सूपड़ा साफ हुआ था। इस बीच उद्धव और राज ठाकरे के मिलाप की अटकलें भी लग रही हैं।
टीवी का सायरन और सतर्कता
भारत-पाकिस्तान के बीच चल रहे युद्ध जैसे हालात के बीच देश के टीवी चैनलों पर लगातार हमले से सतर्क रहने वाला सायरन बजाया जा रहा था। सरकारी एजंसियां लोगों को इस सायरन का मतलब समझाने की कोशिश कर रही हैं। हर जगह इसके लिए प्रशिक्षण दिया जा रहा है।बार-बार टीवी पर बज रहा यह सायरन आम जनता को असमंजस में डाल सकता है। हरियाणाा के नेता अनिल विज ने इस पर तीखा व्यंग्य किया। उन्होंने ‘एक्स’ पर लिखा कि सभी चैनलों से प्रार्थना की जाती है कि वह अपने चैनल पर बार-बार खतरे का सायरन न बजाएं। अगर कभी असली सायरन बज गया तो लोग इसे भी टीवी का सायरन समझ कर सुरक्षा के जो कदम उठाने हैं वह नहीं उठा पाएंगे।
कद्र-ए-अनुभव
बसपा प्रमुख मायावती पिछले मंगलवार को पहली बार दिल्ली के चुनाव आयोग दफ्तर पहुंची। बहिनजी कोई शिकवा शिकायत लेकर नहीं गई थी। वे तो बाकायदा चुनाव आयोग के बुलावे पर पहुंची थी। साथ में पार्टी महासचिव सतीश मिश्र और कोषाध्यक्ष श्रीधर भी थे। आयोग ने देश के सबसे बड़े सूबे की चार बार मुख्यमंत्री रही दलित नेता को सुझाव के लिए बुलाया था। बसपा 1984 में बनी थी। चुनाव आयोग ने 1997 में इसे राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिया था। लेकिन 2012 के बाद से पार्टी का दूसरे राज्यों में ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश में भी जनाधार लगातार और तेजी से गिरा है।
इस समय तो हालत यह है कि न तो संसद के किसी सदन में बसपा का कोई सदस्य है और न ही उत्तर प्रदेश विधान परिषद में। हां, 2022 में पार्टी का एक विधानसभा सदस्य जरूर जीत गया था। हालांकि वोट पार्टी फिर भी 12.88 फीसद पा गई थी। बसपा देश की छह राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों में अभी भी शामिल है। हालांकि चुनाव आयोग के नियमों के हिसाब से उसकी राष्ट्रीय स्तर की मान्यता खटाई में है। गनीमत है कि पड़ताल की तरफ अभी आयोग का ध्यान गया नहीं। मायावती के राजनीतिक अनुभवों और सुझावों कोमुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार के साथ-साथ दोनों चुनाव आयुक्त सुखवीर सिंह संधू और विवेक जोशी ने गौर से सुना। देश की राजनीति व अस्मितावादी विमर्श में मायावती के राजनीतिक अनुभव एक आख्यान तो रचते ही हैं।
अधूरी गारंटी, शर्तें लागू
महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनाव में भाजपा का नारा था-मोदी की गारंटी का मतलब है गारंटी पूरी होने की गारंटी। लेकिन महाराष्ट्र में सत्ता हासिल करने के बाद भी भाजपा ने लाड़की बहन योजना की लाभार्थियों से किए वादे को पूरा नहीं किया है। योजना के तहत लाभार्थी को 1500 रुपए माहवार मिल रहे थे। भाजपा ने वादा किया था कि सत्ता में आते ही इस राशि को बढ़ाकर 2100 किया जाएगा। आठ माह बीत चुके हैं, पर यह वादा पूरा नहीं हुआ है। अब तो आसार भी नजर नहीं आते।
उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने बजट पेश किया, तभी संकेत नजर आ गए थे। योजना का आबंटन उन्होंने बढ़ाया ही नहीं था। ऊपर से सूबे की सरकार के मंत्री संजय शिरसाट ने बयान दे दिया कि अब लाड़की बहन योजना की राशि बढ़ाई नहीं जाएगी। राशि बढ़ाना तो दूर अब तो सूबे की सरकार किंतु-परंतु और नई शर्तें लागू कर योजना के लाभार्थियों की संख्या में ही कटौती करने पर उतारू है। वहीं झारखंड में हेमंत सोरेन ने चुनाव बाद सरकार बनते ही मइया योजना का पैसा वादे के मुताबिक 1100 रुपए माहवार से बढ़ाकर पहली ही कैबिनेट बैठक में 2100 रुपए कर दिया था।