राहुल गांधी के छुट्टी पर जाने की बात ने कांग्रेस की स्थिति पर मंथन से ज्यादा राजनीतिक चुटकुले पैदा कर दिए हैं। आए दिन विदेशों में छुट्टी मनाने की खबरों के कारण यह कटाक्ष किया जा रहा है कि क्या छुट्टियों की भी अपनी थकान होती है जिसे मिटाने के लिए और छुट्टी चाहिए होती है! खैर, राहुल के छुट्टी पर जाने के फैसले ने कांग्रेस के सामने सवालों को ज्यादा गंभीर कर दिया है।
राहुल गांधी में काबिलियत नहीं है फिर भी सोनिया गांधी उन पर दांव खेल रही हैं क्योंकि वे पुत्र मोह में फंसी हैं। राहुल गांधी को लेकर सोनिया गांधी पर लगने वाला यह सबसे आम आरोप है। और यह बात सिर्फ कांग्रेस के आलोचक ही नहीं, दबे-छुपे सुर में कांग्रेस के कई दिग्गज भी कह जाते हैं। अपनी-अपनी कोटरी में बैठ कर। लेकिन शायद आपको यह जानकारी भौचक कर जाए कि राहुल नहीं प्रियंका थीं सोनिया की पहली पसंद। लेकिन कुछ कारणों से यह हो न सका।
इसलिए सोनिया गांधी पुत्र मोह में फंसी हैं, यह कहना और मान लेना कांग्रेस के अंदरूनी घेरों को अति सरलीकृत तौर पर देखना होगा। 129 साल पुरानी पार्टी के तीन गांधियों के आपसी रिश्तों की परतें प्याज के छिलके की तरह हैं। जितना मर्जी छीलते जाओ, अंत में छिलका ही हाथ लगेगा। इसी क्रम में आंखों से आंसू निकल आएगा, सो अलग। आइए थोड़ा सिलसिलेवार ढंग से समझने की कोशिश करते हैं।
पहले 2004 में चलते हैं। एनडीए छह साल के अपने शासन के बाद शाइनिंग इंडिया के स्लोगन के साथ चुनाव में उतर रही थी। कांग्रेस को तनिक भी उम्मीद नहीं थी कि चुनाव में कहीं से भी यूपीए की सरकार बनने की कोई गुंजाइश है। पर पार्टी चुनाव में टक्कर में रहना चाहती थी। पार्टी को सोनिया का साथ तो था ही, लेकिन सोनिया अंदर से चाहती थीं कि कमान गांधी परिवार की नई पीढ़ी को सौंपने का वक्त आ गया है। सुनने में यह अजीब लग सकता है कि जब पार्टी को जीत का भरोसा न हो तो फिर सोनिया अपनी संतान को क्यों दांव पर लगाना चाहेंगी। लेकिन तब सोनिया का सोच कुछ अलग था। उन्हें आगे के लिए कांग्रेस का नेतृत्व तैयार करना था। आम चुनाव किसी नए नेतृत्व को उभारने का सबसे बेहतरीन मौका होता है।
सोनिया इसी मौके का इस्तेमाल करना चाहती थीं। अटल-आडवाणी के बरखिलाफ अपनी अगली पीढ़ी को पेशकर वे एक मजबूत संदेश देना चाहती थीं।
गांधी परिवार के करीबी रहे एक सूत्र के मुताबिक, सोनिया गांधी ने प्रियंका गांधी को बुला अपने मन की बात बताई। सलाह-मशविरा किया और प्रियंका को मैदान में आने को कहा। लेकिन प्रियंका ने बहुत ही सोच कर मना कर दिया। प्रियंका के मना करने के बाद सोनिया ने और कोई चारा न देख राहुल गांधी के सामने चुनाव लड़ने का प्रस्ताव रखा। मां की इच्छा को राहुल टाल नहीं पाए।
वे आए और अमेठी से मैदान में उतार दिए गए। 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए वन बनना किसी चमत्कार से कम नहीं था। राहुल गांधी संसद में दस्तक दे चुके थे, लेकिन पूत के पांव अभी पालने से निकले ही थे। जाहिर है उनसे अभी ऐसी राजनीतिक परिपक्वता की उम्मीद बेमानी थी जिसको आधार बना कर उन्हें शासन सत्ता सौंप दी जाए। यह सोनिया के आसपास की मंडली को भी मंजूर नहीं होता। सोनिया राहुल पर एकदम से इतनी बड़ी जिम्मेदारी डालने की जोखिम भी नहीं लेना चाहती थीं। सोनिया पर खुद दबाव था प्रधानमंत्री बनने का। वे प्रधानमंत्री बनते-बनते क्यों रह गर्इं, यह एक सर्वविदित तथ्य है।
खैर। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने। यूपीए वन के बाद यूपीए टू भी बनी। पर राहुल सत्ता से दूर रहे। बीच-बीच में उन्हें सत्ता सौंपने का जिक्र उठता रहा। पर प्रधानमंत्री तो दूर, मंत्री तक बनने से बचते रहे। कई इसे 10 जनपथ के बलिदान की तरह पेश करने की कोशिश करते हैं। सोनिया से राहुल पर जिम्मेदारी डाली नहीं गई या राहुल ने जिम्मेदारी उठाने के लिए कोई भरसक कोशिश नहीं की। बड़ा सवाल गठबंधन दलों के नेताओं के बीच उनकी स्वीकार्यता का जितना था, उतना ही कांग्रेस के पुराने दिग्गजों के बीच भी उनको अपना समझे जाने का था।
इसके बाद आता है 2014 का चुनाव जहां राहुल का चेहरा आगे करने के बाद भी कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट कर रह जाती है। उसके पहले और बाद के विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस लगातार गोते लगाती गई है। पिछले 10 साल में राहुल की जो टीम बनी है, वह इस तरह की हार के लिए उस टीम पर उंगली उठाती रही है जो सोनिया गांधी के आसपास बनी है। बेशक सोनिया ने उसे नहीं बनाया हो, लेकिन सोनिया उस टीम के सुझाव और सहयोग के बिना चल भी नहीं सकती। टीम राहुल और टीम सोनिया के बीच के टकराव की यही स्थिति गहराती चली गई है। सोनिया के स्वास्थ्य और सक्रियता में कमी को आधार मान कर टीम राहुल हर बड़े फैसले राहुल के हाथों चाहती है, लेकिन दूरंदेशी पुराने सिपहसालार सोनिया को सजग रखने में एक हद तक अभी तक कामयाब रहे हैं।
एक वक्त राहुल के पीछे खुलकर खड़ी सोनिया समय-समय पर अपने मतभेद भी दिखाती रहीं हैं। वे एक तरफ जहां अपने पुराने गार्ड्स को राहुल के कोप से बचाती हुई चलती नजर आ रही हैं, वहीं दूसरी तरफ वे राहुल की काबिलियत पर खुद शक करती नहीं दिखना चाहती हैं। ऐसा नहीं है कि सोनिया ने राहुल को खुलकर फैसला लेने-देने की आजादी नहीं दी। लोकसभा चुनाव के चाहे 15 सीटों पर प्राइमरीज का प्रयोग हो या हाल के दिल्ली विधानसभा में अंतिम समय में अजय माकन का चेहरा आगे कर चुनाव लड़ने का फैसला, राहुल की पहल कहीं भी रंग लाती प्रतीत नहीं हुईं है। यही वजह है कि सांगठनिक चुनाव ‘लोकतांत्रिक’ तरीके से कराने के राहुल के आग्रह को अब जिद के तौर पर देखा जाने लगा है और पार्टी के भीतर इसे लेकर कोई उत्साह नजर नहीं आता। सोनिया को इस सच्चाई का बखूबी अहसास है।
एक मां के तौर पर बेशक उन्हें अपने बेटे में अपार संभावनाएं दिख रही हों, लेकिन एक राजनीतिक मां के तौर पर वे अपने बेटे को अच्छी तरह पढ़ चुकी हैं। लेकिन सोनिया के साथ मजबूरी यह है कि अब वे गोल पोस्ट नहीं बदल सकतीं। राहुल की जगह अब वे फिर से प्रियंका का दरवाजा नहीं खटखटा सकतीं। प्रियंका घोषित तौर पर बच्चों और परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का हवाला देकर बेशक राजनीति से दूर ही रहने की बात करती हों, लेकिन अंदरखाने की जानकारी यह है कि अब वे इसके लिए खुद को मानसिक तौर पर तैयार करने लगी हैं। समस्याएं दो हैं। न तो भाई का जूठन खाना चाहती हैं और न ही भाई की पूरी थाली ही छीनते दिखना चाहती हैं। यह भी कि जिस मां की शुरुआती पेशकश को ठुकरा दिया था, अब उस मां से मौका कैसे हासिल करना है। और प्रियंका की फितरत ऐसी है कि वे कुछ भी आधा-अधूरा नहीं चाहती हैं। साथ ही, वे किसी भी तरह से मां को नाराज कर या उनकी न सुनती नजर आकर भारतीय जनमानस में बनी मां की भरोसेमंद और कर्तव्यपालक बेटी की छवि को तोड़ भविष्य के लिए अपना नुकसान नहीं करना चाहतीं।
एक समस्या सोनिया के सामने भी है। प्रियंका के हाथ में कमान जाते ही 10 जनपथ पर ताला पड़ना तय है। सोनिया के अकेले पड़ने का खतरा होगा। पार्टी के वे तमाम दिग्गज जो अभी सोनिया के सामने शीश नवाते हैं, पार्टी की कमान खिसकते ही प्रियंका की जी हजूरी में लग जाएंगे। कुल मिलाकर माता-पुत्री के बीच उसी तरह की खींचतान हो सकती है जैसे राजनीति में अकसर पिता पुत्र के बीच देखने को मिलती रही है।
जबकि राहुल को पूरी कमान देकर भी सोनिया उन पर अपना एक स्वाभाविक दखल रख सकती हंै। उन्हें भरोसा है कि राहुल मां के तौर पर मार्गदर्शक की भूमिका में उन्हें हमेशा रखेंगे न कि आडवाणी की तरह की मार्गदर्शक की भूमिका में धकेल देंगे। इसलिए यह पुत्र-मोह नहीं है, राहुल सोनिया की मजबूरी का नाम है। इसलिए बेटे के छुट्टी से लौटकर आने का इंतजार है।
उमाशंकर सिंह, (टिप्पणीकार एनडीटीवी से संबद्ध हैं।)