भारत में आधुनिक कारागार व्यवस्था ब्रिटिश शासन की देन है। यह उपयोगितावाद सिद्धांत के प्रवर्तक जर्मी बेंथम द्वारा विकसित पद्धति पर आधारित है। इसमें कैदियों को कम से कम खर्च में इस प्रकार रखे जाने की बात कही गई, जिससे ब्रिटिश हुकूमत को ज्यादा से ज्यादा लाभ हो सके। उस समय के विधिमंत्री ने भी महसूस किया था कि कारागार व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता है। इसके समांतर सरकार ने एक आदर्श कारागार अधिनियम 2023 तैयार किया है। यानी कारागार प्रशासन के संदर्भ में सुधार के लिए किए गए प्रयासों का लगभग दो सौ वर्षों का इतिहास हमारे सामने है। इसमें कारागार के लिए क्या कारगर होगा और किन उपायों को अपना कर हम उद्देश्य की प्राप्ति कर सकते हैं, यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

कहते हैं कि ‘जेल में व्यक्ति दंडित होकर जाता है, दंडित होने के लिए नहीं।’ यह कथन प्रेरित करता है कि अब हमें जेलों के संदर्भ में ऐसे कौन से प्रयास करने चाहिए, जो नवोन्मेषी हों और जिनमें यह संभावना छिपी हो कि अगर इन उपायों पर गौर किया जाएगा, तो निश्चित ही कुछ सकारात्मक परिणाम दिखाई देंगे। पूर्व प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने कार्यकाल के दौरान ऐसे फैसले दिए, जो आपराधिक न्याय प्रशासन एवं सामान्य समाज व्यवस्था में सुधार की दृष्टि से मील का पत्थर माना गया। इसी प्रयास में उनकी पहल पर तैयार की गई जेल सुधार रपट (मैपिंग आफ प्रिजन मैनुअल, 2024) भी उल्लेखनीय है।

जेल के प्रति लोगों के विचार नकारात्मक

अब आवश्यकता इस बात की है कि नवंबर 2024 को अस्तित्व में आई इस सुधार रपट का ज्यादा से ज्यादा प्रचार हो ताकि जेल के प्रति जनमानस के नकारात्मक विचारों को बदला जा सके। वहीं जिन कैदियों को तुलनात्मक रूप से अधिक सुरक्षित ढंग से रखना है, उस उद्देश्य की भी पूर्ति होगी। फिलहाल जेलों में बढ़ती भीड़ सबसे बड़ी समस्या है। इसमें बिना बिना दोषसिद्धि के, मामूली अपराधों के दोषी और गरीबी की मार झेल रहे कैदियों की संख्या अधिक है। यह समझने की कोशिश होनी चाहिए कि जेल में विचाराधीन कैदियों को कैसे अभियोजन पक्ष के साथ समझौते के लिए तैयार किया जा सकता है? जेल में जाति आधारित श्रम विभाजन को कैसे दूर किया जा सकता है?

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जेल में भीड़ को कम कैसे किया जाए और सजा के उद्देश्य भी पूरे हों, इन दोनों प्रश्नों का उत्तर कारागार के विकल्प में विद्यमान व्यवस्था पर विश्वास में दिखाई देता है। न्यायपालिका ने तो पहले भी सामुदायिक सेवा की सजा पर विचार व्यक्त किया था, पर वर्तमान भारतीय न्याय संहिता में लगभग छह अपराधों में इस सजा का जिक्र है। चूंकि अपराध, समाज के विरुद्ध होता है, इसलिए जब अपराधी सामुदायिक सेवा करेगा, तो दंड के उद्देश्य की पूर्ति होगी। इसके अतिरिक्त परिवीक्षा पर छोड़े जाने के विकल्प पर भी विचार करना चाहिए।

एआई से कारागार के विकल्प में भी तलाशा जाना चाहिए

अब बदलते दौर में कृत्रिम मेधा तक अपराध में सहायक हो रही है। ऐसे में एआइ का उपयोग कारागार के विकल्प में भी तलाशा जाना चाहिए। ‘ई-प्रिजन’ की संकल्पना एक ऐसी आनलाइन व्यवस्था को दर्शाती है, जिसमें भारत की सभी जेलों और उसमें रहने वाले कैदियों को कानूनी सहायता, चिकित्सा सहायता और आनलाइन मुलाकात की व्यवस्था के साथ कैदियों द्वारा तैयार विभिन्न सामानों की सूची एक मंच पर उपलब्ध करा दी जाती है। इस व्यवस्था की मुख्य बात यह है कि इसमें अधिकारियों को इस बात की त्वरित सूचना मिल जाती है कि किस व्यक्ति को जमानत पर छोड़े जाने का आदेश जारी हो चुका है, पर जमानत पत्र जमा न होने के कारण वह छूट नहीं पाया है। आनलाइन सूचना उपलब्ध होना और उसका उपयोग करना न्याय को त्वरित बनाने में अहम भूमिका निभा सकता है।

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इसी तरह ईएमपी व्यवस्था इलेक्ट्रानिक तौर पर कैदियों की निगरानी की बात करती है। तमाम समितियों ने कैदियों के अनुपात में जेलों की संख्या कम होने की बात स्वीकार की है। विदेशों की तरह भारत में पहली बार ‘मानक जेल एवं सुधारात्मक सेवा अधिनियम, 2023’ की धारा 29 में कहा गया है कि यदि कैदी चाहें तो ‘इलेक्ट्रानिक ट्रैकिंग डिवाइस’ पहनने की शर्त पर जेल से छुट्टी पाने की अपनी इच्छा जाहिर कर सकते हैं। अगर उनके द्वारा किसी शर्त का उल्लंघन किया जाएगा, तो फिर भविष्य में उन्हें किसी भी प्रकार की छूट नहीं दी जाएगी।

जेलों में भीड़ जेल प्रशासन के लिए सबसे बड़ी और गंभीर चुनौती

अब यह आवश्यक है कि विधिक संस्थाएं सभी चुनौतियों और संभावनाओं पर गहराई से विमर्श करें। वहीं जमानत के संबंध में विधि आयोग की 268वीं रपट को संज्ञान में लेना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि किन कैदियों पर नई व्यवस्था लागू करने की पहल की जा सकती है? वे कैदी कौन होंगे? इसके आधार क्या होंगे? वह चरण कौन-सा होगा? न्यूनतम सुरक्षा मानक कौन-से होंगे, जिनके आधार पर इस व्यवस्था पर काम होगा। ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनका उत्तर हमें ढूंढ़ना है। यह भी उल्लेखनीय है कि अन्य देशों की तरह केवल वयस्क अपराध के मामले में नहीं, बल्कि किशोर अपराधियों, युवा अपराधियों तक को इसके दायरे में लेने की संभावना तलाशनी होगी। प्रयोग के तौर पर कम जोखिम वाले विचाराधीन कैदियों पर इसका इस्तेमाल करना होगा।

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अभिरक्षा निगरानी की व्यवस्था के संबंध में यूरोपीय परिषद का मानना है कि जेलों में भीड़ जेल प्रशासन के लिए सबसे बड़ी और गंभीर चुनौती है। ऐसे में, कारागार प्रशासन हो या आपराधिक न्याय प्रशासन या फिर अपराधियों को दंडित करने के तौर-तरीके, इनकी सफलता सुनिश्चित करने के लिए दोषी की अपने दोष के प्रति स्वीकार्यता और सुधार के प्रति आतुरता आवश्यक है। यदि व्यक्ति यह नहीं स्वीकार कर पाता कि उससे गलती हुई है या उसने किसी के हितों को चोट पहुंचाई है, तो सजा चाहे कितनी ही गंभीर क्यों न हो, वह अपने उद्देश्य की प्राप्ति में सफल नहीं हो सकती।

मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए लोगों को विधिक रूप से जागरूक किया जाना चाहिए

यह भी आवश्यक है कि राज्य सरकार अपनी कारागार नियमावली को ‘आनलाइन ई-प्रिजन’ पर अपलोड करें। यह भी अनुशंसा की गई कि ऐसे रुढ़िवादी शब्दों को हटाया जाए जो मानवीय गरिमा के विरुद्ध हैं। इसके साथ ही, यह भी सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी राज्य की कारागार नियमावली में ऐसे प्रावधान न हों, जिनमें जाति, लिंग या सामाजिक परिस्थिति के आधार पर विभेद को बढ़ावा मिलता हो, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था बनाई जाए जिसमें हर व्यक्ति को हर काम करने का अवसर उपलब्ध हो।

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इसके साथ ही कैदियों की दिहाड़ी मजदूरी को भी बढ़ाने पर विचार किया जाना चाहिए। नशा मुक्ति केंद्रों का गठन, खुली जेल एवं अर्ध खुले कारागार के प्रति भी प्रशासन का रुख और उदार होना चाहिए, ताकि इसके लिए जो अहर्ता मानक है, वह और ढीले और विस्तृत किए जा सकें। महिलाओं को भी इस व्यवस्था के लिए पात्र माना जाना चाहिए। ऐसे गरीब कैदी जो अपनी जमानत देने की की स्थिति में नहीं हैं, उनकी मदद की जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए लोगों को विधिक रूप से जागरूक किया जाना चाहिए।