राजनीति में कब क्या होगा कुछ भी तय नहीं रहता है। निष्ठाएं बदलती हैं तो पार्टी भी बदल जाती है। कुछ लोग पहले खुद की ताकत पर भरोसा करते हैं, बाद में उनकी जरूरत पार्टी के लिए होती है। ऐसा ही कुछ इन दिनों राजनीतिक दलों में चल रहा है। हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों के लिए सभी दलों ने तैयारियां तेज कर दी हैं। इसके साथ ही कुछ नेताओं को अपनी हैसियत बनाने के लिए नए रास्ते तलाशने पड़ रहे हैं तो कुछ को अपनों में ही अपनी जगह खोजनी पड़ रही है।
संघ की पूछ शुरू
अभी तक तो खबरें सोशल मीडिया पर ही ज्यादा चल रही थीं कि लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपना हस्तक्षेप बढ़ाया है। अब पार्टी में फैसले संघ की हरी झंडी मिलने पर ही होंगे। पार्टी अध्यक्ष का फैसला भी इसी वजह से लटका है। अब तो संघ के हस्तक्षेप का प्रमाण भी सामने आ गया है। संघ की पृष्ठभूमि वाले राम माधव को भाजपा ने जम्मू कश्मीर चुनाव का प्रभारी बनाया है। राम माधव कुछ साल पहले तक पार्टी के महासचिव थे। जम्मू कश्मीर में धारा-370 खत्म होने से पहले तक वही पार्टी के प्रभारी थे। इतना ही नहीं पीडीपी और भाजपा की साझा सरकार बनी तो उसके रणनीतिकार भी राम माधव ही थे। बाद में भाजपा को 2019 के चुनाव में बंपर बहुमत मिल गया और संघ के समर्थन की जरूरत खत्म हो गई तो राम माधव की भी छुट्टी कर दी गई। पर, अब भाजपा जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव जीतने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहती। राम माधव के जम्मू कश्मीर के कई मुसलमान नेताओं से अच्छे संबंध रहे हैं। कांग्रेस ने नेशनल कांफ्रेंस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया है। भाजपा पीडीपी के साथ तो जा नहीं सकती। ऐसे में राम माधव इन दोनों दलों से इतर दूसरे नेताओं का उपयोग करेंगे भाजपा के हित में। फिलहाल तो यही समझाया है संघ ने भाजपा के शिखर नेतृत्व को।
तलाश नए साथ की
घटक दलों के आंखें दिखाने से भाजपा परेशान तो जरूर है। लिहाजा पार्टी अब एक और भरोसेमंद सहयोगी की तलाश में जुट गई है। करुणानिधि के जन्म शताब्दी समारोह का चेन्नई में केंद्र सरकार ने आयोजन बिना मकसद तो किया नहीं। ऊपर से रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने करूणानिधि की याद में जमकर कसीदे पढ़े। इसी से इन कयासों को बल मिला कि भाजपा अब द्रमुक पर डोरे डाल रही है। द्रमुक की दिल्ली में कोई महत्त्वाकांक्षा न होना उसे एक टिकाऊ और भरोसेमंद सहयोगी की श्रेणी में रखता है। लेकिन, द्रमुक का कांग्रेस और वाम दलों से गठबंधन है। पिछले लोकसभा चुनाव में इस गठबंधन ने सूबे की सारी 39 सीटें जीती थी। इनमें 21 द्रमुक की हैं। भाजपा से हाथ मिलाने की अटकलों को हालांकि एमके स्टालिन ने खारिज किया है। पर राजनीति में नेता जो कहते हैं, हमेशा वैसा करते तो नहीं।
पोस्टर कुछ कहता है
दिल्ली विधानसभा चुनाव में हर दल नए चेहरे पर दांव लगाना चाहता है। विधानसभा चुनाव के लिए अभी औपचारिक घोषणा नहीं हुई है, लेकिन, जमीनी स्तर पर तैयारी हो चुकी है। आम आदमी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस तीनों ही नए चेहरे की चर्चा में जुटे हैं। इसकी धमक दिल्ली में 15 अगस्त, रक्षाबंधन और जन्माष्टमी जैसे मुख्य त्योहारों के साथ ही नजर आने लगी है। आम आदमी पार्टी के विधायकों के क्षेत्रों में नए नेता पोस्टर लगा रहे हैं, वहीं भाजपा के नेता भी सक्रिय हैं। जबकि कांग्रेस को पार्टी छोड़कर जाने वाले नेताओं की कमी को पूरा करने के लिए इस बार नए चेहरों के साथ चुनाव मैदान में उतरना होगा, जिसकी खोज जारी है। त्योहारी पोस्टर ही आने वाले समय का संकेत दे रहे हैं।
सीट पर सवाल
जाट नेता रणदीप सुरजेवाला और दलित नेता सैलजा को छोड़ दें तो हरियाणा में कांग्रेस पर मोटे तौर पर अब भूपिंदर सिंह हुड्डा का वर्चस्व दिखता है। किरण चौधरी पहले ही भाजपा में जा चुकी हैं। किरण चौधरी के पार्टी छोड़ने से सैलजा ने नुकसान होने की बात कही तो पार्टी के सूबेदार और हुड्डा के खास उदयभान ने फरमाया कि किरण चैधरी के तार लंबे समय से भाजपा से जुडे थे। उनको और उनकी बेटी को कांगे्रस ने क्या नहीं दिया। पर उन्होंने बदले में कांगे्रस को धोखा दिया। इससे पहले दलित नेता अशोक तंवर के पार्टी छोड़ने पर भी हुड्डा खेमे ने खुशी जताई थी। पर जजपा के दुष्यंत चौटाला ने तो हुड्डा पर ही भाजपा से अंदरखाने साठगांठ रखने का आरोप लगा दिया है। दुष्यंत ने हुड्डा को चुनौती भी दी है कि वे राज्यसभा की एक सीट के उपचुनाव में उम्मीदवार क्यों नहीं उतारते। भाजपा में गई किरण चौधरी को यह सीट थाली में सजाकर क्यों दे रहे हैं। एक तरफ वे भाजपा सरकार के बहुमत खो देने का दावा कर रहे हैं और दूसरी तरफ राज्यसभा उपचुनाव में उम्मीदवार भी नहीं उतार रहे। यह विरोधाभास ही उनकी हकीकत उजागर करता है। यह उपचुनाव हुड्डा के बेटे दीपेंद्र हुड्डा के लोकसभा सदस्य चुने जाने की वजह से हो रहा है। जाहिर है कि हुड्डा ने बेटे की जगह किसी और को राज्यसभा में भिजवाया होता तो यह सीट पार्टी के हाथ से कतई नहीं निकलती। अब देखते हैं इस सीट पर कौन काबिज होता है?
अधर में हसरत
चंपई सोरेन की जरूरत क्यों पड़ रही है भाजपा को झारखंड में? झारखंड में दो महीने बाद हो जाएंगे विधानसभा चुनाव। हेमंत सोरेन को जेल भेजने का भाजपा को सूबे में लोकसभा चुनाव में नुकसान उठाना पड़ा। यहां तक कि पार्टी के कद्दावर आदिवासी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा तक झामुमो उम्मीदवार से पिछला लोकसभा चुनाव हार गए। भाजपा ने हेमंत सोरेन की भाभी सीता सोरेन को झामुमो से तोड़कर लोकसभा चुनाव लड़ाया था। हेमंत सोरेन की पत्नी तो विधानसभा उपचुनाव जीत गईं पर सीता सोरेन हार गईं। जाहिर है कि भाजपा एक कद्दावर आदिवासी नेता के लिए हताश है। चंपई सोरेन झामुमो के पुराने नेता ठहरे। मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने से उनका आहत होना स्वाभाविक है। हेमंत सोरेन की सरकार में मंत्री होकर भी वे पार्टी नेतृत्व की खुली आलोचना कर रहे हैं। वे तीन दिन दिल्ली में भाजपा नेताओं से गुप्त बैठकें करके वापस झारखंड लौट गए। भाजपा का एक खेमा उन्हें पार्टी में लेने से कोई लाभ नहीं मिलने और उन्हें अलग पार्टी बनवाकर चुनाव में उतारने का पक्षधर है। पार्टी की इसी दुविधा ने चंपई को घर का छोड़ा न घाट का। उन्हें मुख्यमंत्री पद तो भाजपा भी देने को तैयार नहीं।
संकलन: मृणाल वल्लरी