प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 से 2024 के बीच में कई बार कह चुके हैं कि यह देश अब एक मजबूत सरकार चाहता है मजबूर सरकार नहीं। यह बोलने के पीछे मकसद भी एकदम साफ समझ आता है। वे हमेशा से ही गठबंधन वाली राजनीति को ज्यादा समर्थन नहीं देते हैं, किसी एक दल को स्पष्ट जनादेश मिले, ऐसी स्थिति ही उनकी राजनीति को सूट कर जाती है। लेकिन जो सूट करे, हर बार वैसा ही माहौल मिल जाए, यह जरूरी नहीं। 2024 के लोकसभा चुनाव ने सारे समीकरण बदल डाले हैं। मजबूत सरकार की वकालत करने वाले अब मजबूर सरकार चलाने को बाध्य दिखाई दे रहे हैं। जिस नेता ने अपने पूरे सियासी जीवन में पूर्ण बहुमत वाला सुख भोगा है, अब समझौता, आपसी सहमति जैसे सिद्धातों को अपनी राजनीतिक डिक्शनरी का हिस्सा बनाना पड़ रहा है।
आक्रमक तेवर अब नहीं दिखते
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का तीसरा कार्यकाल बड़े परिवर्तन वाला साबित हो रहा है। चुनावी प्रचार के दौरान ही कहा गया था कि ‘मोदी का तीसरा टर्म बड़े रीफॉर्म वाला रहेगा’। अब रीफॉर्म होंगे या नहीं, यह समय बताएगा, लेकिन परिवर्तन जरूर दिखने लगा है, नीयति में बदलाव है, नीति भी बदली है और अब का मिजाज पिछले 10 साल की तुलना में कुछ अलग दिखाई पड़ता है। जो पीएम मोदी पहले अपनी सरकार में ज्यादा ही सशक्त दिखाई पड़ते थे, जो पीएम मोदी कई मौकों पर विपक्ष की तमाम आपत्तियों को भी दरकिनार कर बड़े फैसले लिया करते थे, अब उन्हें ही हर बार, हर मौके पर बातचीत की टेबल पर आना पड़ रहा है। यह बताता है कि गठबंधन पॉलिटिक्स का असर पीएम मोदी पर समय से पहले और जरूरत से ज्यादा होने लगा है। अगर पीएम मोदी के तीसरे कार्यकाल के शुरुआती दिनों को ही देखा जाए, पता चलता है कि सरकार की अप्रोच आक्रमक होने के बजाय अब डिफेंसिव रूप ले चुकी है।
बजट की सियासी रेवड़ियां
इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो इस साल के बजट में दिखाई दे गया था। जिन दो दलों के सहारे एनडीए को इस बार बहुमत मिला है, बजट में उनका ध्यान भी उतना ही ज्यादा रखा गया है। इस बार के बजट में बिहार और आंध्र प्रदेश पर जरूरत से ज्यादा कृपा बरसी है। यह कृपा बरसाने वाला कॉन्सेप्ट ही पीएम मोदी की विचारधारा से मेल नहीं खाता है क्योंकि इससे पहले तक वे तो कड़वी दवाई देने में विश्वास रखते थे, वे तो तत्कालीन राहत से ज्यादा दूर्गामी परिणामों के बारे में सोचते थे। लेकिन इस बार सीएम नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू को खुश करने के लिए कई बड़े ऐलान किए गए। बिहार को इस बार 4 नए एक्सप्रेस वे की सौगात दी गई है, इसके साथ पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए बड़े ऐलान हुए हैं। विकास के लिए विशेष पैकेज की घोषणा भी इसी बजट में की गई है।
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इसी तरह आंध्र प्रदेश के लिए इस बार सरकार ने दिल खोलकर बड़े ऐलान किए हैं। बजट में 15 हजार करोड़ का प्रावधान अकेले चंद्रबाबू नायडू के राज्य के लिए किया गया है। पोलावरण सिंचाई योजना को भी पूरा करने के लिए सरकार ने इस बजट में अच्छा खासा निवेश किया है। अब यह बताने के लिए काफी है कि पीएम मोदी को सरकार तो चलानी है, लेकिन उसके लिए अपने सहयोगियों को खुश रखना भी जरूरी है। कुछ जानकार तो इसे भी एक तरह की रेवड़ी मान रहे हैं क्योंकि इससे मुंह मीठा कर पांच साल के लिए बिना रुकावट वाला समर्थन दोनों पार्टियों से मांगा जा रहा है। यानी कि परिवर्तन नंबर तो यही दिख रहा है कि पीएम मोदी अब अपने सहयोगियों को सियासी रेवड़ियां देकर खुश करने की कोशिश में लगे हैं।
बहुमत नहीं तो महत्वकांक्षी बदलाव भूल जाइए!
एक दूसरा बड़ा परिवर्तन जो देखने को मिल रहा है वो नीतियों से जुड़ा हुआ है। जिस मोदी सरकार ने अपनी प्रचंड बहुमत के दम पर अनुच्छेद 370 को खत्म किया, तीन तलाक का खात्मा किया और महिला आरक्षण बिल भी भी पारित करवाया, अब तीसरे कार्यकाल में उसी सरकार को अपना एक साधारण सा बिल पारित करवाने के लिए खूब मशक्कत करनी पड़ रही है। हाल के दिनों में ही एनडीए सरकार वक्फ बोर्ड में बदलाव वाला बिल लेकर आई थी। खूब बहस हुई, पक्ष-विपक्ष के तर्क हुए, लेकिन सरकार इसे पारित नहीं करवा पाई। इस समय इस बिल को जेपीसी के पास भेज दिया गया है जहां कई पहलुओं पर फिर चर्चा की जाएगी। माना जा रहा है कि जेडीयू और टीडीपी भी इसी बात का समर्थन कर रही थी, उसे भी कुछ बदलाव उस बिल में चाहिए थे।
अब यह परिवर्तन इसलिए है क्योंकि सरकार को पहले इतना सोचना नहीं पड़ता था, अगर विरोध हुआ भी तो उसके सुर दबाने में ज्यादा देर नहीं लगती थी। लेकिन इस गठबंधन पॉलिटिक्स ने उस विरोध की आवाज को ही निर्णायक बना दिया है। इसका एक और उदाहरण ब्रॉडकास्ट बिल में भी देखने को मिला जिसे सरकार तो गेमचेंजर बता रही थी, लेकिन समाज के ही कई धड़े इसका विरोध भी करते दिख गए। विपक्ष के साथ-साथ डिजिटल न्यूज पब्लिशर्स और इंडिविजुअल कॉन्टेंट क्रिएटर्स ने इस बिल का स्वागत नहीं किया। नतीजा यह हुआ कि सरकार को बिल ही वापस लेना पड़ गया। इसी तरह लॉन्ग टर्म कैपिटल बिल को लेकर भी काफी विवाद देखने को मिल। जब बजट में इसका ऐलान हुआ, बाजार ने तुरंत ही अपना निगेटिव फीडबैक जता दिया। बाद में सरकार को इसमें संशोधन करना ही पड़ा और फिर जनता के बीच लाया गया।
लेटरल एंट्री पर कदम खींचे पीछे
हाल ही में लेटरल एंट्री वाले विवाद में भी सरकार को ही अपने कदम पीछे खींचने पड़े। जो सरकार पहले तमाम विरोध के बाद भी तीन कृषि कानूनों को लेकर कई महीनों तक अपने स्टैंड पर कायम रही, लेटरल एंट्री वाले विवाद पर उसने कुछ ही दिनों में अपने कदम पीछे खींच लिए। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि जब यूपीएसी ने लेटरल एंट्री के जरिए भर्तियां निकालीं, पीएम मोदी को निर्देश देना पड़ा कि इस प्रकार की भर्तियों पर भी रोक रहेगी। बताया गया कि पिछड़ों के आरक्षण पर कोई असर ना पड़ जाए, इस वजह से कदम पीछे खीचे गए। यानी कि सरकार गिर ना जाए, सहयोगी नाराज ना हो जाए, यह तमाम फैक्टर भी अब पीएम मोदी के मन में चलते हैं।
मोदी की भाषण शैली बदल गई
अब यह बताता है कि बहुमत ना होने की वजह से कई बड़े रीफॉर्म पीएम मोदी के बीच मझधार में फंसने जा रहे हैं। अभी तक एक देश एक चुनाव, यूनिफॉर्म सिविल कोड जैसे महत्वाकांक्षी विधेयक भी बचे हुए हैं जो बीजेपी के भी कोर एजेंडे का हिस्सा हैं। ऐसे में गठबंधन राजनीति में राह आसान नहीं और ज्यादा मुश्किल रहने वाली है। वैसे यह सारे परिवर्तन तो सरकार की कार्यशैली से ज्यादा जुड़े हुए हैं, अगर सिर्फ पीएम मोदी की बात हो तो वहां भी बड़े बदलाव देखने को मिल गए हैं। जानकार मानते हैं कि 2014 के बाद से ही पीएम मोदी ने खुद भी अपने चेहरे को ही सबसे आगे रखा। उन्हें भी ऐसा ही मैसेज मिला था कि पार्टी से बड़ा उनका कद हो चुका है, ऐसे में अगर वे खुद भी अपने नाम की ही ब्रॉन्डिंग करेंगे तो ज्यादा फायदा रहने वाला है।
स्वतंत्रता दिवस की स्पीच बदली-बदली सी
2014 से 2024 तक तो बीजेपी को इसका कई राज्यों में फायदा हुआ, लेकिन लोकसभा चुनाव में माना जा रहा है कि उसी फॉर्मूले की जरूरत से ज्यादा डोस ने बीजेपी का खेल बिगाड़ दिया। अब जब बहुमत भी अपने दम पर नहीं मिला है, पीएम मोदी को भी अपनी भाषण शैली में बड़ा परिवर्तन करना पड़ा है। इस परिवर्तन की झलक सबसे पहले 4 जून को ही शाम को मिल गई थी जब चुनावी जीत के बाद पीएम मोदी ने अपना भाषण दिया था। जब उन्होंने बीजेपी कार्यकर्ताओं को संबोधित किया, उनकी तरफ से 8 बार भाजपा, 10 बार एनडीए का जिक्र हुआ। लेकिन एक बार भी उन्होंने अपना नाम नहीं लिया, उन्होंने खुद को आगे करने की कोशिश नहीं की। कुछ ऐसा ही हाल इस बार की स्वतंत्रता दिवस वाली स्पीच के वक्त भी देखने को मिला। पीएम मोदी ने कहने को सरकार की उपलब्धियां फिर बताईं, कहने को उन्होंने फिर विपक्ष पर निशाना साधा, लेकिन उनकी तरफ से एक बार भी बीजेपी का जिक्र नहीं हुआ, उनकी तरफ से ‘मोदी की गारंटी’, ‘मोदी है तो मुमकिन’ है जैसे नारों का इस्तेमाल नहीं हुआ। यह बताने के लिए काफी रहा कि गठबंधन वाली राजनीति ने पीएम मोदी को भी अपने तेवर बदलने में मजबूर कर दिया है।