प्रयागराज की जिस फूलपुर लोकसभा सीट को आगामी लोकसभा चुनाव की दृष्टि से नीतीश कुमार हलवा मान रहे हैं, उसका मिजाज नीतीश कुमार की सोच से फर्क है। ये वो लोकसभा सीट है, जहां की एक विधानसभा सीट है शहर उत्तरी। इस विधानसभा सीट की सबसे बड़ी खासियत यह है कि बंगलुरु कैंट के बाद यहां सबसे अधिक स्नातक और साक्षर हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय और उसमें पढ़ने वाले अधिकांश विद्यार्थी इसी विधानसभा क्षेत्र में निवास करते हैं।

पहले फूलपुर का सियासी मिजाज समझने की जरूरत है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का कभी संसदीय क्षेत्र हुआ करता था फूलपुर। उस वक्त इस सीट में आने वाला झूंसी क्षेत्र उतना विकसित नहीं था। आज झूंसी की आबादी पांच लाख के करीब है। केशव प्रसाद मौर्य ने वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में इस सीट को रेकार्ड तीन लाख से अधिक मतों के अंतर से जीत कर पहली बार फूलपुर में भाजपा का परचम लहराया था। हालांकि 2017 के विधानसभा चुनाव में उपमुख्यमंत्री बनने के बाद उन्हें इस सीट से त्यागपत्र देना पड़ा और उसके बाद हुए उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी को यहां समाजवादी पार्टी के हाथों करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा।

19 लाख 35 हजार 218 मतदाताओं के इस संसदीय क्षेत्र में 3 लाख 57 हजार दलित, 2 लाख 59 हजार पटेल, ढ़ाई लाख मुसलमान, सवा दो लाख ब्राह्मण, दो लाख दस हजार यादव, एक लाख चार हजार वैश्य, 97 हजार कायस्थ, 80 हजार क्षत्रिय और 45 हजार भूमिहार हैं। इनके अलावा मौर्य मतदाताओं की आबादी इस संसदीय क्षेत्र में 43 हजार है। पाल तीस हजार और अन्य पिछड़ी जातियां 45 हजार। इलाहाबाद शहर की उत्तरी विधानसभा भी फूलपुर लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है। यह वह विधानसभा है, जहां बंगलुरु कैंट के बाद सर्वाधिक स्रातक और साक्षर हैं।

फूलपुर छह दशकों से समुचित और सर्वांगीण विकास की बाट जोह रहा है। अधिकांश लघु व कुटीर उद्योग बंद हो चुके हैं। ऐसे उद्योगों की संख्या दो हजार है। बेरोजगारी चरम पर है। बाढ़ सालाना रिवाज की तरह इस इलाके पर काबिज है। बिहार के मुख्यमंत्री फूलपुर के जिन तीन लाख 57 हजार दलित, ढाई लाख मुसलमानों के भरोसे यहां से अपनी चुनावी नैया पार लगाने के सपने पाल रहे हैं, उन्हें साधना दरअसल इतना आसान नहीं है।अकेले जवाहरलाल नेहरू ही फूलपुर लोकसभा सीट को साध पाए। वे जीवनपर्यंत इस लोकसभा सीट से सांसद रहे।

वर्ष 1952 में पहली बार उन्होंने यहां से जीत हासिल की। फिर 1957 और 1962 के चुनावों में भी उन्हें यहां से जीत मिली। 1962 के चुनाव में फूलपुर से डा राममनोहर लोहिया भी चुनावी मैदान में उतरे थे। लेकिन, नेहरू ने उन्हें चुनावी मैदान में हरा दिया था। वर्ष 1964 में पंडित नेहरू के निधन के बाद उपचुनाव हुआ तो कांग्रेस ने पंडित नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित को चुनावी मैदान में उतारा और वे जीतीं।

फिर 1967 के आम चुनावों में भी वे उतरीं और जीत दर्ज करने में सफल रहीं। हालांकि, इस चुनाव के दो साल बाद 1969 में संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधि बनने के बाद उन्होंने सांसदी से इस्तीफा दे दिया। उनके बाद 1969 में हुए फूलपुर उपचुनाव में कांग्रेस को यहां की जनता ने झटका दे दिया। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार जनेश्वर मिश्र ने नेहरू की कैबिनेट के सहयोगी रहे केशवदेव मालवीय को हरा दिया। पहली बार इस सीट पर कांग्रेस का वर्चस्व टूट गया।

1971 के लोकसभा चुनाव में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस को यह सीट वापस दिलाई। 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की लहर के बीच राष्ट्रीय लोक दल की कमला बहुगुणा जीतीं। वहीं, 1980 में इंदिरा गांधी ने केंद्र में जोरदार वापसी की, लेकिन फूलपुर सीट पर जनता पार्टी (सेकु) के बीडी सिंह जीते। आखिरी बार 1984 के लोकसभा में कांग्रेस को यह सीट राम पूजन पटेल ने दिलाई। इसके बाद सीट पर सपा का कब्जा हो गया।

वर्ष 1996 से 2004 तक यहां पर सपा ने कब्जा बनाए रखा। चार नेता सांसद बने। वर्ष 2004 के चुनाव में फूलपुर से अतीक अहमद सांसद बने। 2009 के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के कपिल मुनी करवरिया ने इस सीट पर सपा के बर्चस्व को तोड़ा। फूलपुर का अब तक का इतिहास काफी उठा-पटक भरा रहा है। ऐसे में बिहार के मुख्यमंत्री का इस सीट से चुनाव लड़ना क्या गुल खिलाएगा? ये तो वक्त की बात है, लेकिन इतना तय है कि फूलपुर का साध पाना उतना आसान नहीं जितना कागज पर दिखता है।