इस लेख को लिखने से पहले दिल्ली आना हुआ मुंबई से। विमान पर मेरे बगल में एक नौजवान कारोबारी बैठा था। उसकी अंगुली पर मतदान का निशान देखा तो बातचीत शुरू हुई। मैंने कहा कि उसे बुरा न लगे तो पूछना चाहूंगी कि उसने वोट किसको दिया। थोड़ी झिझक के बाद उसने कहा, ‘मोदी को दिया, बावजूद इसके कि मुंबई में जहां मेरा वोट है, वहां शिवसेना का प्रत्याशी था’।

मैंने पूछा कि मोदी ने क्या किया है पिछले दस वर्षों में, जो उसको अच्छा लगा है। उसने जवाब दिया कि जितनी नई सड़कें, नए हवाईअड्डे और नया विकास का काम हुआ है इस बीते दशक में, उतना विकास का काम पहले कभी नहीं दिखा है। आगे उसने यह कहा, ‘मेरी राय में काम तो बहुत हुआ है, लेकिन मुझे ये हिंदू-मुसलिम प्रचार जो मोदीजी ने किया है, बिल्कुल पसंद नहीं है। इसकी क्या जरूरत थी?’ मेरे पास इस सवाल का जवाब नहीं था।

लेकिन इस बातचीत के बाद मैं सोचने लगी कि क्या मोदी के राज में वास्तव में वे अच्छे दिन आए हैं, जिसके वादे के साथ मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने थे। क्या खोया है भारत ने क्या पाया है हमने मोदी के शासनकाल में? किसके लिए अच्छे दिन आए हैं? कौन हैं वे लोग जिन्होंने अभी तक अच्छे दिन दूर क्षितिज पर भी नहीं देखे हैं? सोचने बैठी तो याद आया कि मेरे अपने छोटे समुद्रतटीय गांव में पिछले पांच वर्षों में कैसा बदलाव देखा है।

मैं इस गांव में कई महीने लगातार रही थी, जब मोदी ने चार घंटों की मोहलत देकर पूर्णबंदी लगाई थी, 2020 में जब कोविड आया था। हम न कहीं जा सके अगले कुछ महीनों तक और न ही हमारे गांव में पर्यटक आ सके। याद है मुझे कि इतना अकेला पड़ गया था हमारा गांव कि एक गरीब आदिवासी बस्ती में हम खाने-पीने का बंदोबस्त करते थे। पूर्णबंदी का नुकसान ज्यादा हुआ था और कोविड का कम।

इसी गांव में थी जब 2021 की गर्मी में कोविड के दूसरे भयानक दौर में लाखों भारतीय मरने लगे थे और मालूम हुआ कि भारत सरकार ने टीकों का इंतजाम तक नहीं किया था। ये वे दिन थे जब देश को ऐसा लगा जैसे मोदी शासन संभाल नहीं पाए हैं, लेकिन कुछ ही महीनों में टीकों की व्यवस्था इतनी अच्छी हो गई थी कि दुनिया के लोग भारत की तरफ इज्जत से देखने लगे थे। मोदी अचानक फिर से खलनायक से नायक बन गए थे। यहां तक कि सर्वेक्षण बताते हैं कि जो लोग मोदी को एक बार फिर वोट देने वाले हैं, उनका कहना है कि मोदी की उपलब्धियों में सबसे ऊपर है कोविड के टीकों का मुफ्त इंतजाम।

तो क्या परिवर्तन देखा है मैंने अपने गांव में और बाकी देश में, जिसका श्रेय मोदी को जाता है? गांव में अभी भी पानी की गंभीर समस्या है, लेकिन पिछले कुछ महीनों से घरों तक पानी पहुंचाने के लिए पाइपें बिछाई जा रही हैं। तकरीबन हर घर में शौचालय आ गए हैं और मुफ्त अनाज आता है सबके लिए, लेकिन आदिवासी बस्ती में अभी तक आवास नहीं आए हैं और न ही उज्ज्वला योजना का असर दिखता है। कुछ परिवर्तन लोगों के अपने परिश्रम से भी आया है। हर दूसरे-तीसरे घर में छोटे होटल बन गए हैं, रेस्तरां खुल गए हैं गांव के अंदर और समंदर के तट पर पर्यटकों के लिए कई सारी सुविधाएं आ गई हैं।

रही बात देश में परिवर्तन के आने की, तो जिस रफ्तार से हवाईअड्डे, सड़कें, अस्पताल और मेडिकल कालेज बने हैं, उनको देख कर मैं हैरान रह गई हूं। ऐसा कहना गलत न होगा कि जिस रफ्तार से मोदी ने विकास के काम किए हैं, शायद ही पहले किसी प्रधानमंत्री ने किए होंगे। साथ में लेकिन यह भी कहना जरूरी है कि हिंदू-मुसलिम तनाव जो बढ़ गया है पिछले दशक में, वह भी पहले कभी नहीं देखा है मैंने।

सच पूछिए तो समझना मुश्किल है कि प्रधानमंत्री भी प्रकारांतर से इस तनाव को बढ़ाने में क्यों लगे रहे, जबसे लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार शुरू हुआ है। इससे नुकसान उन्होंने अपना तो किया ही है, साथ में कांग्रेस को फायदा भी दिलाया है। आज अगर राहुल गांधी की तरफ कुछ मतदाता उम्मीद की नजरों से देख रहे हैं तो इसलिए कि आम भारतीय इस हिंदू-मुसलिम तनाव से बिल्कुल खुश नहीं है।

मुसलमानों के लिए तो पिछले दशक में इतना नुकसान हुआ है कि मैं एक भी ऐसे मुसलिम मतदाता को नहीं जानती हूं जो मोदी के लिए इस बार वोट करने वाला है। गोहत्या के नाम पर कइयों की दुकानें बंद हुई हैं, उनके रोजगार के अवसर कम हुए हैं और नुकसान उन किसानों का भी हुआ है जो पशुपालन पर निर्भर थे। ऊपर से मोदी के दौर में हमने देखा है बुलडोजर न्याय की शुरुआत। बुलडोजर ऐसा न्याय दिलाते हैं जो घर गिराते हैं सिर्फ मुसलमानों के। इस नए किस्म के न्याय से बदनाम मोदी भी हुए हैं और भारत भी। इससे मौका मिला है राहुल गांधी को अपनी ‘मोहब्बत की दुकान, नफरत के बाजार’ में खोलने का।

इतना फायदा हुआ है कांग्रेस का कि जहां कभी माना जाता था कि मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने से कोई नहीं रोक सकता है, अब प्रचार के इन अंतिम दिनों में लगने लगा है कि विपक्ष में एक नई ऊर्जा दिखने लगी है। यहां तक कि विदेशी अखबारों में भी इसका जिक्र होने लग गया है और राहुल गांधी में निजी तौर पर इतना आत्मविश्वास आ गया है कि चुनौती दे रहे हैं प्रधानमंत्री को उनसे टीवी पर बहस करने के लिए, जैसे कि अभी से बन चुके हैं देश के अगले प्रधानमंत्री।