पुरुषों और महिलाओं ने ‘राज्य’ या ‘सरकार’ की अवधारणा के अस्तित्व में आने से बहुत पहले से सहवास किया है। किसी भी कानून से पहले से यह चला आ रहा है। विभिन्न कानूनों ने सहवास को मान्यता दी और इसे विभिन्न नाम दिए। व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाने वाला नाम ‘विवाह’ है। विभिन्न कानून विवाहित जोड़ों को कुछ अधिकार और विशेषाधिकार प्रदान करते हैं।

मानव जीवन और व्यवहार के बारे में हमारे वर्तमान ज्ञान – और अल्फ्रेड किन्से के समय से शुरू होने वाले सर्वेक्षणों द्वारा लगाए गए अनुमान को देखते हुए – यह तार्किक है कि पुरुष के साथ पुरुष और महिला के साथ महिला भी रिश्तों में रहते थे।‘गे’ और ‘लेस्बियन’ अब अउल्लेखीय शब्द नहीं हैं। महिला समलैंगिक (लेस्बियन), पुरुष समलैंगिग (गे), उभयलिंगी, ट्रांसजेंडर, क्विर, इंटरसेक्स, अलैंगिक और अन्य (एलजीबीटीक्यूआइए+) हैं। वे मनुष्य हैं और, अन्य मनुष्यों की तरह, वे प्यार करते हैं। वे यौन संबंध बनाते हैं।

जब एलजीबीटीक्यूआइए+ समुदाय विवाहित जोड़ों के समान अधिकार और विशेषाधिकार मांगता है, तो राज्य का जवाब क्या है? भारतीय संसद ने ऐसा कोई कानून नहीं बनाया है जो एलजीबीटीक्यूआइए+ के बीच किसी भी संबंध को मान्यता देता हो। इसके उलट, भारतीय दंड संहिता की धारा 377 अभी भी अस्तित्व में है और ‘अप्राकृतिक संभोग’ को दंडित करती है। यह केवल 2018 में हुआ, नवतेज सिंह बनाम भारत संघ मामले में पांच जजों की बेंच ने दो जजों की बेंच (2013) के फैसले को पलट दिया और सहमति से समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया।

कई सवाल और जवाब

पांच साल बाद, सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एलजीबीटीक्यूआइए+ समुदाय द्वारा बड़े सवाल उठाए गए, विशेष रूप से एलजीबीटीक्यूआइए+ के नागरिक अधिकारों को लेकर, जिसमें उनके बीच ‘विवाह’ को मान्यता देना शामिल है। जवाब 17 अक्तूबर, 2023 को आया। पांच माननीय न्यायाधीशों ने कुछ मुद्दों पर सहमति व्यक्त की और अन्य पर असहमति व्यक्त की। अंतत: न्यायमूर्ति रवींद्र भट द्वारा दिया गया निर्णय देश के कानून के मुताबिक ही रहा, जिसमें न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा ने सहमति व्यक्त की।

स्वाभाविक रूप से राजनीतिक दल फैसले पर कोई रुख अपनाने में हिचकिचा रहे हैं। एक राजनीतिक दल सैकड़ों हजारों व्यक्तियों से बना होता है और, एक ऐसे मामले पर जो इतना अंतरंग और निजी है, दूरगामी परिणामों को देखते हुए आम राय तैयार कर पाना आसान नहीं है। यहां तक कि लोग भी इस मामले में उठने वाले सवालों पर दृढ़ रुख अपनाने में संकोच करेंगे। मैं यही कह सकता हूं कि मुद्दों को लेकर बात हो और आशा है कि एक तर्कसंगत बहस होगी।

अदालत : विवाह केवल विषमलैंगिकों का वैधानिक अधिकार है

एक बार जब न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंच गया, तो सर्वसम्मति से, अधिकांश अन्य निष्कर्ष भी सटीक रहे। शादी अलग-अलग लैंगिकता वालों में होनी चाहिए। इसलिए, विषमलैंगिक संबंधों में ट्रांसजेंडर को शादी करने का अधिकार है, समलैंगिकों को नहीं। गेंद विधायिका के पाले में फेंक दी गई है। मुझे नहीं लगता कि संसद जल्द ही समान-लिंगी ‘विवाह’ को मान्यता देने के लिए एक कानून पारित करेगी – यहां तक कि विशेष विवाह अधिनियम के तहत भी।

हालांकि, ‘संबंध का अधिकार’ एक मौलिक अधिकार है

माननीय न्यायाधीशों को विवाह को लेकर अपने निष्कर्ष पर पहुंचने में परेशानी हुई होगी। उन्होंने बंधनों को तोड़ा और साहसपूर्वक घोषणा की कि एक व्यक्ति को लैंगिकता से इतर एक साथी चुनने का अधिकार है। वे स्वतंत्रता, पसंद, गोपनीयता और गरिमा के दृढ़ता से निहित सिद्धांतों के तहत अपने निष्कर्षों तक पहुंचे।

जस्टिस रवींद्र भट ने ‘संबंध का अधिकार’ के बारे में बताया : ‘यह एक साथी चुनने, सहवास करने और शारीरिक अंतरंगता का आनंद लेने का अधिकार है … वे, सभी नागरिकों की तरह, स्वतंत्र रूप से जीने के हकदार हैं, और समाज में निर्विवादित रूप से अपनी इस पसंद को व्यक्त कर सकते हैं। राज्य उन्हें संरक्षण प्रदान करने के लिए बाध्य है।’

लेकिन यह ‘नागरिक संघ का अधिकार’ नहीं है

जस्टिस चंद्रचूड़ और कौल समलैंगिक जोड़ों के बीच ‘संबंध का अधिकार’ को ‘नागरिक संघ का अधिकार’ कहने के लिए तैयार थे, लेकिन जस्टिस भट, कोहली और नरसिम्हा उस हद तक जाने के लिए तैयार नहीं थे। इसलिए, अभी के लिए समलैंगिक जोड़ों के पास ‘संबंध का अधिकार’ होगा, और कुछ नहीं। नैतिक कानूनों के पर्याप्त आत्म-धर्मी प्रवर्तनकर्ताओं वाले देश में वे ‘निर्बाध’ होंगे या नहीं, यह अनिश्चित है। कुछ तरह के कपड़ों, भोजन, मान्यताओं, धार्मिक प्रतीकों और पूजा की पद्धतियों के प्रति दिखाई जा रही अत्यधिक असहिष्णुता को देखते हुए राज्य उन्हें ‘संरक्षण’ प्रदान करेगा या नहीं, यह भी अनिश्चित है।

विद्वानों का मानना है कि ‘संबंध का अधिकार’ व्यावहारिक नहीं है

तीनों माननीय न्यायाधीश इस बात से सहमत नहीं थे कि समलैंगिक जोड़ों को बच्चे गोद लेने का अधिकार है क्योंकि ‘इसके विनाशकारी परिणाम होंगे क्योंकि कानून का पारिस्थितिकी तंत्र मौजूद है’, लेकिन माननीय न्यायाधीशों ने उसी पारिस्थितिकी तंत्र की अवहेलना की जब उन्होंने ‘संबंध के अधिकार’ की घोषणा की। विद्वानों का मानना है कि उन्हें अगले तार्किक कदम उठाने चाहिए थे – गोद लेने का अधिकार, रखरखाव का अधिकार, और विरासत और उत्तराधिकार का अधिकार।

एलजीबीटीक्यूआइए+ समुदाय के बीच नाराजगी है

स्वाभाविक रूप से, एलजीबीटीक्यूआइए समुदाय के बीच गुस्सा, निराशा और उदासी है। विवाहित जोड़े तबाह हो गए हैं; उन्हें उम्मीद थी कि अदालत उनके रिश्ते को सभी कानूनी उद्देश्यों के लिए मान्यता प्राप्त ‘नागरिक संघ’ (यदि विवाह नहीं) के रूप में घोषित करेगी।

लेकिन व्यापक समाज में खतरे की घंटी नहीं है

मेरा मानना है कि किसी भी समय, बड़ा समाज न्यायालयों या विधायिका से कई कदम आगे होता है। इस फैसले को लेकर आम लोगों में सुगबुगाहट कम है।

वास्तविकता की पहचान हो रही है

न्यायालय ने जीवन की वास्तविकताओं को पहचाना है और एक अध्याय लिखा है। जिस तरह सेक्स, कंडोम और समलैंगिकता अब अउल्लेखीय शब्द नहीं हैं, उसी तरह समलैंगिक जोड़ों की समाज में स्वीकृति बढ़ेगी और यह ज्यादा से ज्यादा दिखेगा। हम चाहें तो फैसले के पन्ने पलट दें और उस दिन का इंतजार करें जब अदालत या संसद अगला अध्याय लिखेगी।