पिछले हफ्ते, मैंने भाजपा और आइएनडीआइए के बीच तलवारें खिंच जाने का उल्लेख किया था। मैंने एनडीए शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था क्योंकि वर्तमान में किसी भी महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दल ने यह घोषणा नहीं की है कि वह भाजपा की सहयोगी है। वर्ष 2019 के चुनाव में एनडीए के महत्त्वपूर्ण सहयोगी रहे – शिवसेना, अकाली दल, जनता दल (एकीकृत) और हाल ही में, एआइएडीएमके – भाजपा से अलग हो गए हैं। दूसरी ओर, 2019 का यूपीए एक बड़े गठबंधन में बदल गया है। इसे आइएनडीआइए कहा जाता है, जो मजबूत प्रतीत होता है।

प्रतिद्वंद्वी की मारक क्षमता

जैसे कि मैंने उम्मीद की थी, भाजपा ने सनातन धर्म, धर्मांतरण, लव जिहाद, महिला आरक्षण विधेयक, नए संसद भवन और जी 20 नेताओं के शिखर सम्मेलन के परिणामों जैसे मुद्दों के इर्द-गिर्द अपनी ताकत झोंकी है। माननीय प्रधानमंत्री ने छह दिनों में चार राज्यों में आठ जनसभाओं को संबोधित किया है। गैर-भाजपा शासित राज्यों में, उन्होंने प्रदेश की सरकार (और उसके मुख्यमंत्री) को सभी राज्य सरकारों में सबसे भ्रष्ट बताया है।

भाजपा शासित राज्यों में, उन्होंने हमेशा राज्य सरकार (और उसके मुख्यमंत्री) को सभी राज्य सरकारों में सबसे अच्छा बताया है। मोदी कम बोलने में विश्वास नहीं करते। आइएनडीआइए के नेताओं ने अपनी मारक क्षमता को मुद्रास्फीति और बेरोजगारी पर केंद्रित कर दिया है। पिछले हफ्ते में, उन्होंने अपने लक्ष्यों का विस्तार किया है, जिसमें शामिल हैं – घृणा भाषण (रमेश बिधूड़ी सांसद), स्वतंत्रता पर अंकुश (न्यूजक्लिक और इसके संपादक), राज्यों को बकाया देने से इंकार करना।

(पश्चिम बंगाल को मनरेगा फंड), राज्यों के अधिकारों पर अतिक्रमण (तमिलनाडु में कोई नया मेडिकल कालेज या सीटें नहीं), न्याय प्रक्रिया को कमजोर करना (कालेजियम की 70 सिफारिशों का लंबित होना), चीनी घुसपैठ (निरंतर चुप्पी), आतंकवादी घटनाएं (कश्मीर), आर्थिक वृद्धि का कम होना (2022-23 में 7.2 फीसद जीडीपी वृद्धि के बाद, 2023-24 में अनुमानित वृद्धि 6.3 फीसद), खुफिया और जांच एजंसियों का दुरुपयोग (केवल विपक्षी नेताओं के खिलाफ मामले) और बढ़ता व्यक्तिवाद (मोदी पांच राज्यों के चुनावों में पार्टी का चेहरा होंगे)।

किसी ने अनुमान नहीं लगाया था कि उनके लिहाज से कोई बड़ी अप्रत्याशित बात होने वाली है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार में कराए गए जातिगत जनगणना (सर्वेक्षण) के परिणामों का खुलासा कर देश को आश्चर्यचकित कर दिया। आश्चर्य की बात नहीं है कि राज्य की आबादी में ओबीसी की हिस्सेदारी 63 फीसद है। एक देश एक चुनाव और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दे जाति के ज्वार में बह गए।

कर्नाटक ने घोषणा की कि उसके जाति सर्वेक्षण के परिणाम ‘सही समय आने पर’ प्रकाशित किए जाएंगे। ओड़ीशा ने खुलासा किया कि वहां जाति सर्वेक्षण चल रहा है। उत्तर प्रदेश में भाजपा के सहयोगियों ने देश के इस सबसे जाति-जागरूक राज्य में जाति की गिनती की मांग की। आइएनडीआइए ने महिला आरक्षण विधेयक को ‘ओबीसी विरोधी’ करार दिया और पहली बार में कानून में संशोधन करने का वादा किया। राहुल गांधी ने ‘जाति जनगणना’ को आइएनडीआइए के एजंडे में सबसे ऊपर रखा।

जवाब की तलाश

नोटबंदी के बाद से भाजपा कभी इतनी परेशान नहीं हुई है। पार्टी के नेता (जिन्हें सोचने या बोलने से मना किया गया है) मोदी से संकेत की प्रतीक्षा कर रहे हैं। मोदी को एहसास हो गया है कि मुस्लिमों, इसाइयों और अन्य अल्पसंख्यकों के खिलाफ ‘हिंदू’ को एक अखंड वोट बैंक बनाने की उनकी परियोजना खतरे में है। ओबीसी अधिकारों का नायक होने का उनका दावा चुनौती के घेरे में है।

उनका यह दावा कि देश के संसाधनों पर पहले दावे के हकदार ‘गरीब’ हैं, औंधे मुंह गिर गया, क्योंकि उनकी सरकार ने गरीबों की उपेक्षा की। इसके अलावा, इस सवाल का जवाब नहीं मिला कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्लूएस) के लिए 10 फीसद के आरक्षण में एससी, एसटी और ओबीसी में गरीबों को शामिल क्यों नहीं किया गया। मोदी अभी भी ओबीसी के नाम पर पेश की जा रही चुनौती का प्रभावी जवाब ढूंढ रहे हैं।

मोदी एक और समस्या का सामना कर रहे हैं। अखिल भारतीय जातिगत जनगणना का विरोध भाजपा की बिहार इकाई की ओर से नहीं बल्कि उसके केंद्रीय नेतृत्व की ओर से किया जा रहा है। मोदी के सामने बिहार (और शायद उत्तर प्रदेश) में अपने कुनबे को एकजुट रखते हुए राष्ट्रव्यापी जातिगत जनगणना की मांग का विरोध करने की कठिन चुनौती है।

आर्थिक हिस्सेदारी

कांग्रेस के नेताओं – मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी ने जाति के आधार पर गणना का पुरजोर समर्थन किया है। यह याद रखना अच्छा है कि ओबीसी एक अखंड ब्लाक नहीं है। कुछ राज्यों में इसे पहले ही ओबीसी और एमबीसी (सर्वाधिक पिछड़ा वर्ग) या ओबीसी और ईबीसी (अत्यंत पिछड़ा वर्ग) में विभाजित किया जा चुका है।

शुरुआती वर्षों में, द्रविड़ आंदोलन ने ‘तमिल पहचान’ के आसपास और ‘गैर-ब्राह्मण’ के बड़े खेमे के तले ओबीसी को एकजुट करके इस बाधा को पार कर लिया। आखिरकार, जैसे ही कुछ ओबीसी ने राजनीतिक शक्ति और प्रभाव प्राप्त किए, एम करुणानिधि एमबीसी को मान्यता देने के लिए बाध्य हो गए। इस उप-वर्गीकरण को चरम पर ले जाने का खतरा ओबीसी के ‘परमाणुकरण’ से होगा।

जाति एकजुट भी होती है और विभाजित भी। यदि ओबीसी को अपने वैध अधिकारों को जीतना है, विशेष रूप से आर्थिक बाजार में – आय, पूंजी, ऋण, अनुबंध, लाइसेंस, नौकरियों और आर्थिक अवसरों का उनका हिस्सा – तो उन्हें जहां तक संभव हो एकजुट रहना चाहिए। लेकिन, अधिक वंचित एमबीसी या ईबीसी के बारे में क्या? कोई एक समाधान नहीं है जो सभी स्थितियों में सटीक बैठे।

एक संभावित समाधान ओबीसी के बीच आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्लूएस) के लिए उप-आरक्षण के साथ ओबीसी आरक्षण है। बेशक, इस सुझाव को आगे बहस और सुधार की आवश्यकता होगी।बिसात बिछ गई है। भाजपा और आइएनडीआइए के बीच आकर्षक द्वंद्व होगा। वर्तमान में, संख्या और रुझान आइएनडीआइए के पक्ष में प्रतीत हो रहे हैं।