कभी-कभी ‘पागलपन’ का भी एक ढर्रा होता है। आम चुनाव से पहले सरकार अगले साल के अप्रैल से जुलाई की अवधि के लिए लेखानुदान के साथ एक अंतरिम बजट पेश करती है। वित्तमंत्री का भाषण सरकार के कामकाज पर नजर डालने और भविष्य का रास्ता तय करने का महत्त्वपूर्ण अवसर होता है। वित्तमंत्री ने थोड़ा-बहुत दोनों काम किया। हालांकि, उनका बजट कांग्रेस के ‘स्याह-पत्र’ और आठ फरवरी, 2024 को सरकार ‘श्वेत-पत्र’ से बर्बाद हो गया था।

लोगों को उम्मीद रही होगी कि भाजपा के दस साल के शासन के अंत में जारी श्वेत-पत्र उसके कार्यकाल पर आधारित होगा, पर आश्चर्य कि वह 2004 से 2014 के बीच यूपीए के कार्यकाल पर केंद्रित था। श्वेत-पत्र का मकसद उन दस वर्षों को एक रंग- काले- से पोतना था, मगर उसने यूपीए की उपलब्धियों को भी चर्चा में ला दिया। यूपीए और राजग की तुलना होने लगी। ऐसे में, कुछ मानकों पर तुलनात्मक रूप से राजग की अपेक्षा यूपीए का प्रदर्शन बेहतर साबित हुआ। इसीलिए मैंने कहा कि यह ‘पागलपन’ है, पर चतुर ‘फिरकी उस्तादों’ को कम करके नहीं आंका जा सकता।

बड़ा अंतर

एक संख्या, जो ध्यानाकर्षक रूप से उभरी, वह थी स्थिर कीमतों पर औसत सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर। यूपीए ने इस मानक पर अधिक अंक हासिल किया। पुराने आधार वर्ष 2004-05 के अनुसार, दस वर्षों में औसत जीडीपी वृद्धि दर 7.5 फीसद थी। 2015 में भाजपा सरकार ने यूपीए की संख्या को कम करने के लिए आधार वर्ष को 2011-12 में बदल दिया था; फिर भी औसत विकास दर 6.7 फीसद थी।

दस वर्षों में राजग की औसत विकास दर 5.9 फीसद थी। यह अंतर मामूली नहीं है। इस अवधि में प्रतिवर्ष 1.6 फीसद (या 0.8 फीसद) का अंतर सकल घरेलू उत्पाद के आकार, प्रति व्यक्ति आय, वस्तुओं और सेवाओं की मात्रा, निर्यात की मात्रा/मूल्य, वित्तीय, राजकोषीय घाटे और अन्य मानकों में बड़ा अंतर पैदा कर देता है। तुलना का खेल शुरू हो गया।

कई मानकों पर राजग का प्रदर्शन सबसे खराब निकला। मेरे विचार में, सबसे भयावह डेटा, जिससे एनडीए की गलत नीतियां और अर्थव्यवस्था का कुप्रबंधन उजागर हुए, वह था सकल राष्ट्रीय ऋण; घरेलू बचत में गिरावट; बट्टे खाते में डाले गए बैंक ऋणों में उछाल; स्वास्थ्य और शिक्षा पर व्यय; और केंद्र सरकार के कर्मचारियों की संख्या में गिरावट। बेशक, कुछ ऐसे मानक हैं, जिन पर राजग का प्रदर्शन बेहतर था।

सफेद झूठ

सरकार का श्वेत-पत्र कुछ ज्यादा ही श्वेत था। इसने यूपीए सरकार की कई उपलब्धियों को धुंधला कर दिया और राजग सरकार की बड़ी विफलताओं (नोटबंदी और सूक्ष्म व लघु क्षेत्र के विनाश सहित) पर सफेदी पोत दी। यह श्वेत-पत्र, सफेद झूठ-पत्र के तौर परविभूषित हो गया। श्वेत-पत्र स्वीकार करने में विफल रहा कि जन-धन (पहले ‘नो फ्रिल्स अकाउंट’ हुआ करता था), आधार और मोबाइल क्रांति के विचार और उत्पत्ति का पता यूपीए के दौर में तलाशा जा सकता है।

यूपीए के कथित कुप्रबंधन की अवधि (जैसा कि श्वेत पत्र में तालिकाओं और ग्राफ से देखा जा सकता है) मुख्य रूप से 2008-2012 की थी। सितंबर 2008 के मध्य में, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय बाजार ध्वस्त हो गए थे, जिससे वित्तीय सुनामी आई, जिसने हर देश को तबाह कर दिया। सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं द्वारा अपनाई गई ‘मात्रात्मक सहजता’ की नीति के तहत भारी उधार लेने और खर्च करने के कारण मुद्रास्फीति बढ़ गई।

जनवरी 2009 से जुलाई 2012 के दौरान प्रणब मुखर्जी वित्तमंत्री थे- वह मुद्रास्फीति और राजकोषीय घाटे का चरम दौर था। मुखर्जी के बचाव में मैं कहना चाहूंगा कि उन्होंने प्रचलित ज्ञान का उपयोग करते हुए विकास और नौकरियों का समर्थन किया, लेकिन इसकी कीमत राजकोषीय घाटे और मुद्रास्फीति के रूप में चुकाई।

विवाद राजनीतिक है

कांग्रेस का स्याह-पत्र भी एकतरफा था। इसमें कृषि क्षेत्र में गंभीर संकट, लगातार उच्च मुद्रास्फीति, बेरोजगारी की अभूतपूर्व दर और दोस्ताना पूंजीवाद पर केंद्रित बिंदु शामिल थे। अन्य बिंदु जांच एजंसियों की आक्रामकता, संस्थानों में तोड़फोड़, चीनी घुसपैठ और मणिपुर त्रासदी पर केंद्रित थे। यह शीर्षक के अनुरूप था- राजग के कामकाज पर स्याह-पत्र।

दोनों पत्रों का उद्देश्य आर्थिक से अधिक राजनीतिक था, हालांकि आर्थिक सच्चाई स्पष्ट थी। दोनों पत्रों में उठाए गए मुद्दों पर पिछले दस वर्षों में संसद के दोनों सदनों में चर्चा होनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि सरकार मूल मुद्दों पर बहस की अनुमति नहीं देती। हालांकि दोनों पत्रों ने चुनावी मैदान में बहस का एक मंच जरूर तैयार कर दिया है। यह तो वक्त बताएगा कि ऐसी कोई बहस हो भी पाएगी या फिर धन, धर्म, नफरती भाषण और सत्ता का दुरुपयोग चुनाव के नतीजे तय करेंगे।