मेरा अनुभव है कि जब औसत बुद्धि के सामान्य लोग अपनी सोच-समझ खो देते हैं, तो ऐसा व्यवहार करते हैं, क्योंकि यह उनकी सनक का एक ढंग होता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण भारत सरकार का आचरण है, जो जलते हुए मणिपुर के समय देखने को मिल रहा है। दिल्ली और मणिपुर की राजधानी इंफल में सरकार की बागडोर भाजपा के हाथ में है। पार्टी के भीतर संचार के चैनल हैं। राज्यपाल और सतर्कता ब्यूरो से लेकर नागरिक समाज संगठनों और मीडिया तक संचार के प्रशासनिक चैनल हैं।

जातीय संहार

मणिपुर में जो हो रहा है वह कभी-कभार होने वाला झगड़ा नहीं है; यह मौका पाकर पनपा अपराध नहीं है, ये हत्या या बलात्कार की आकस्मिक घटनाएं नहीं हैं; यह लूट और लाभ के लिए लूट नहीं है। यह- शब्दों को छोटा न करें- जातीय संहार की शुरुआत है।

यह खौफनाक मुहावरा भारत को परेशान करने लगा है। ‘जातीय संहार’ को एक सजातीय भौगोलिक क्षेत्र स्थापित करने की नीयत से एक अवांछित जातीय समूह के सदस्यों से (निर्वासन, विस्थापन या यहां तक कि सामूहिक हत्या के माध्यम से) छुटकारा पाने के प्रयास के रूप में परिभाषित किया गया है (हिस्ट्रीडाटकाम संपादक)। इतिहासकार प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान आर्मेनियाई लोगों के जनसंहार और उस सामूहिक संहार का उदाहरण देते हैं, जिसमें साठ लाख यूरोपीय यहूदी मारे गए थे। यूरोप में सर्बिया और कुछ अफ्रीकी देशों में जातीय सफाए भी इसका उदाहरण हैं।

संविधान में मणिपुर को एक परिभाषित क्षेत्र वाले राज्य के रूप में मान्यता दी गई थी, जिसमें तीन प्रमुख जातीय समूह रहते हैं। अपने स्तंभ (अयोग्यता, घाव और अपमान, जनसत्ता, 25 जून, 2023) में मैंने बताया था कि कुल मिलाकर, मैतेई घाटी (राज्य विधानसभा में चालीस सीटें) में रहते हैं, कुकी-जोमी चार जिलों (दस सीटें) और नगा चार पहाड़ी जिलों (दस सीटें) में रहते हैं। चाहे कोई भी राजनीतिक दल हो, विधायक की पहचान उसके गोत्र से होती है। प्रभावी रूप से, मैतेई राज्य पर शासन करते हैं।

आज मुझे जो भी रिपोर्टें मिली हैं या मैंने पढ़ी हैं, उनसे पता चलता है कि व्यावहारिक रूप से घाटी में कोई कुकी-जोमी नहीं है और कुकी-जोमी के प्रभुत्व वाले क्षेत्रों में कोई मैतेई नहीं है। मुझे बताया गया है कि इसमें सरकारी कर्मचारी भी शामिल हैं।

मणिपुर का दौरा करने वाले पत्रकार बाबू वर्गीज ने करण थापर को बताया कि ‘‘पहाड़ियों में कोई मैतेई और घाटी में कोई कुकी नहीं है और इसलिए, वहां प्रभावी जनसांख्यिकीय और भौगोलिक अलगाव है।’’ हिंसा ने सैकड़ों परिवारों को सुरक्षित जिलों/स्थानों पर पलायन करने को मजबूर कर दिया है। मुझे यह भी बताया गया है कि मुख्यमंत्री और उनके मंत्री अपने गृह कार्यालयों से बाहर काम करते हैं और प्रभावित क्षेत्रों की यात्रा नहीं करते- या नहीं कर सकते हैं।

यह स्पष्ट है कि उनका आदेश उनके घरों और कार्यालयों के पड़ोस से आगे नहीं चलता है। कोई भी जातीय समूह मणिपुर पुलिस पर भरोसा नहीं करता। केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल हाल तक कुछ प्रकार के नियंत्रण में थे। सेना को सीमित अधिकार दिए गए हैं।

नतीजतन, 3 मई के बाद कई हफ्तों तक हत्याएं जारी रहीं। हताहतों की आधिकारिक संख्या पर किसी को विश्वास नहीं है। महिलाएं सबसे ज्यादा पीड़ित हैं। बलात्कार और सामूहिक बलात्कार ऐसे हथियार हैं, जिनका उपयोग टकराव वाले क्षेत्रों में कमजोर लोगों को अपमानित और आतंकित करने के लिए किया जाता है। सैकड़ों लोगों को ऐसी हिंसा और अपमान सहना पड़ा है। उनमें से एक करगिल सेनानी की पत्नी भी थी।

बड़ा खतरा यह है कि एक बार जब जातीय सफाया शुरू हो जाता है, तो यह संक्रामक होता जाता है। पड़ोसी राज्य मिजोरम में रहने वाले मैतेई समुदाय को राज्य छोड़ने की चेतावनी दी गई है। छह सौ मैतेई अब तक कहीं और चले गए होंगे।

अज्ञान या निष्क्रियता

4 मई को दो महिलाओं के साथ हुई कथित छेड़छाड़ की घटना मणिपुर की भयावह स्थिति को दर्शाती है। एक महिला ने आरोप लगाया कि जब भीड़ महिलाओं को ले जा रही थी, तो पुलिस खड़ी होकर देखती रही। पीड़ित 18 मई को प्राथमिकी दर्ज करा पाए। एक और प्राथमिकी 21 जून को दर्ज कराई गई। महिला ने पुलिस को बताया कि उसने भीड़ के कुछ सदस्यों को पहचान लिया है, जिनमें ‘‘उसके भाई का एक दोस्त’’ भी शामिल था।

पचहत्तर दिनों तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। एसपी, डीजीपी और मुख्य सचिव ने कुछ नहीं किया। 4 मई की घटना के बारे में एक अमेरिकी मणिपुर एसोसिएशन से एक पत्र प्राप्त होने पर, राष्ट्रीय महिला आयोग ने 19 जून को मुख्य सचिव और डीजीपी को ‘सूचित’ किया, लेकिन इससे अधिक कुछ नहीं किया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कोई नोटिस नहीं लिया।

संचार के कई माध्यमों के बावजूद मुख्यमंत्री ने दावा किया कि उन्हें घटना की कोई जानकारी नहीं थी! सभी की नींद तब टूटी जब 19 जुलाई या उसके आसपास इस भयानक अपराध का एक वीडियो वायरल हुआ। अगर यह मणिपुर में संवैधानिक सरकार के पूर्ण पतन का उदाहरण नहीं है, तो हम संविधान के अनुच्छेद 355 और 356 को भी रद्द कर सकते हैं।

1983 के नेल्ली (असम) जनसंहार पर संसद में चर्चा हुई थी। फिर भी, 20 जुलाई के बाद से, ट्रेजरी बेंच और संसद में विपक्ष उस नियम पर सहमत नहीं हो सके, जिसके तहत मणिपुर संकट पर बहस होनी चाहिए। सरकार इस बात पर अड़ी हुई है कि माननीय प्रधानमंत्री संसद में बयान नहीं देंगे। यह गतिरोध इस निराशाजनक निष्कर्ष की ओर इशारा करता है कि संसद निष्क्रिय हो गई है और देश के लोगों को विफल कर दिया गया है।

खंडहरों का ढेर

एक निष्क्रिय संसद, एक राज्य सरकार का पतन, अनुच्छेद 356 के उपयोग की अनिच्छा, जातीय संहार, निरंतर हिंसा- यह देश इससे अधिक और क्या सहन कर सकता है? संविधान निर्माताओं की यह उम्मीद अब खंडहरों के ढेर में पड़ी है कि हम एक बहु-जातीय, बहु-धार्मिक, बहु-सांस्कृतिक और बहुभाषी राष्ट्र का निर्माण करेंगे, जहां स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व कायम रहेगा।