हरियाणा के सीएम मनोहर लाल खट्टर ने हाल ही में कहा कि मुसलमान भारत में रह सकते हैं, पर उन्हें बीफ खाना छोड़ना होगा। उन्होंने कहा कि चूंकि गोहत्या से हिंदुओं की भावनाएं आहत होती हैं, इसलिए मुसलमानों और इसाइयों को इससे दूर रहना होगा। खट्टर के विचारों का बचाव करते हुए भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने जम्मू-कश्मीर के विधायक शेख अब्दुल राशिद पर स्याही से किए गए हमले को उनकी बीफ पार्टी के विरोध में हुई ‘स्वाभाविक प्रतिक्रिया’ करार दिया। वह तो गोहत्या के जुर्म में सजा-ए-मौत तक का प्रावधान करने की बात कह गए। वेंकैया नायडू की यह बात जरूर ऐसे लोगों को नागवार गुजरी होगी जिसमें उन्होंने खट्टर के बयान से पार्टी को अलग रखते हुए कहा कि खान-पान की आदतों को किसी धर्म-संप्रदाय से जोड़ना सही नहीं होगा। इस बीच, भाजपा प्रमुख अमित शाह ने पार्टी के कई नेताओं को बुला कर सार्वजनिक रूप से भड़काऊ बयान देने के खिलाफ आगाह किया है।
भारतीयों के एक विशाल वर्ग ने भाजपा को इस उम्मीद के साथ वोट दिया था कि वह विकास और भ्रष्टाचार मुक्त भारत का अपना वादा पूरा करेगी। भाजपा ने भारत को नई बुलंदियों पर ले जाने का वादा किया था, ताकि देश दुनिया की बड़ी ताकतों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल सके। लेकिन आज वे समर्थक निराश हैं, क्योंकि देश को कई संकटों ने जकड़ा हुआ है। कुछ की नजर में ये संकट हालात की वजह से हैं, जबकि कई इसके लिए किसी और को जिम्मेदार मानते हैं। उनकी नजर में कांग्रेस/छद्म धर्मनिरपेक्ष, वामपंथी/बुद्धिजीवी/राष्ट्र विरोध/ हिंदू विरोधी तत्व प्रधानमंत्री की छवि खराब करने की साजिश के तहत ऐसा कर रहे हैं। पर क्या सच में ऐसा है?क्या भाजपा और पीएम का इससे कोई वास्ता नहीं है?
इसे समझने के क्रम में थोड़ा पीछे जाना होगा। भाजपा की स्थापना का संदर्भ समझना होगा। भाजपा के लिए एम.एस. गोलवलकर प्रेरणास्रोत रहे हैं, जो लगातार दलीलें देते थे कि हम: हमारी राष्ट्रीयता परिभाषित हो, भारत में रहने वाले विदेशी समुदाय के लोग हिंदू संस्कृति व भाषा अपनाएं, वे केवल उन्हीं विचारों को बढ़ावा दें जो हिंदू संस्कृति या हिंदू राष्ट्र को बढ़ावा देने वाले हों, वे अपना अलग अस्तित्व भुला दें, देश में रहें तो किसी अधिकार या सुविधा की बात नहीं करें। यहां तक कि नागरिक अधिकारों की भी नहीं। वी.डी. सावरकर के विचार भी ऐसे ही थे, जो हमेशा हिंदुत्व को अनिवार्य मानते थे और राष्ट्र की एकता को एक जैसे खून का बंधन के संदर्भ में ही देखते थे।
इस तरह के विभाजनकारी सिद्धांतों को भाजपा और आरएसएस के तमाम नेता लगातार प्रश्रय देते रहे और एनडीए सरकार इसी आधा पर नीतियां बनाती रही। बीफ पर बैन को ही लीजिए। मुस्लिमों और अनुसूचित जातियों के लोगों की खान-पान की आदत को अपराध की श्रेणी में लाने की शुरुआती कोशिश हुई। अगर गोहत्या से किसी समुदाय की भावना आहत होती है (जैसा खट्टर ने कहा) तो पोर्क और अन्य जानवरों के मांस और जड़ों वाली सब्जियों (जो जैनियों के लिए वर्जित है) के साथ भी यह तर्क क्यों नहीं लागू करते? हिंदू धर्म में तो हर देवी-देवता का वाहन कोई न कोई जानवर ही है। तो भाजपा हर तरह के मांस पर बैन क्यों नहीं लगा देती?
संस्कृति मंत्री महेश शर्मा के बयान (कि रात में लड़कियों, महिलाओं का बाहर जाना भारतीय संस्कृति के खिलाफ है) पर भी गौर कीजिए। या फिर ऐतिहासिक व सांस्कृतिक संस्थानों की इस तरह से ‘सफाई’ करने की एनडीए मुहिम है उससे यही लगता है कि इसे भारत के हिंदूकरण किए जाने की मुहिम से जोड़ कर किया जा रहा हो। असल में जनकल्याण के कार्यों पर खर्च में जिस तरह से कटौती की गई है उससे भी यही लगता है कि यह पार्टीगत सिद्धांतों से प्रभावित है।
ऐसा कैसे हो पा रहा है कि आरएसएस और इसके एजेंट्स संविधान पर हावी होते जा रहे हैं?और लोग इसे लेकर इतने बेफिक्र क्यों नजर आ रहे हैं? क्या बतौर नागरिक हम पर इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता? या फिर हम भारतीय यह मान कर चल रहे हैं कि जो कुछ हो रहा है वह स्वीकार्य और सही है? अगर ऐसा है तो यह और भी खतरनाक है।
(लेखक कांग्रेस पार्टी से जुड़े, विश्लेषक हैं। यहां लिखे विचार उनके निजी हैं।)
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