One Nation One Election: केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार वन नेशन वन इलेक्शन (One Nation One Election) को कैबिनेट की मंजूरी दे दी है। कोविंद कमेटी ने इस पर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी जिसे बुधवार को कैबिनेट से मंजूरी मिल गई। सरकार इसी शीतकालीन सत्र में इसे लेकर संसद में बिल ला सकती है। सरकार ने इसे लेकर एक कमेटी का भी गठन किया था। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को इस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया है। बता दें कि 2018 में पहली बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक देश एक चुनाव को लेकर बात सामने रखी थी। इसे लेकर कई सवाल सामने आए हैं कि आखिर सरकार इसे लेकर क्यों आगे बढ़ रही है। एक देश एक चुनाव की आखिर जरूरत क्यों पड़ी है। इन सभी सवालों का जवाब विस्तार से समझते हैं।

एक साथ चुनाव की क्यों पड़ी जरूरत?

एक देश एक चुनाव को लेकर केंद्र सरकार की ओर से पिछले काफी समय से प्रयास किया जा रहा है। इसके पीछे एक वजह भी है। दरअसल किसी भी जिले में सामान्य तौर पर चार बार आचार संहिता लगती है। लोकसभा चुनाव, विधानसभा चुनाव, नगर निगर और पंचायत चुनाव के समय आचार संहिता लगती है। जब आचार संहिता लगती है तो इसका सीधा असर विकास योजनाओं पर पड़ता है। देश में लगातार चुनाव की स्थिति रहने से सरकार को नीतिगत और प्रशासनिक फैसले लेने में परेशानी का सामना करना पड़ता है। कई जरूरी काम इससे प्रभावित रहते हैं।

अब क्या कहता है कानून?

केंद्र और राज्य सरकारों में चुनाव को लेकर संविधान में इनके कार्यकाल से लेकर अन्य बातों का वर्णन किया गया है। अगर सरकार को इस दिशा में आगे बढ़ना है तो संसद में इसके लिए संविधान संशोधन बिल लाना होगा। इसकी मंजूरी के बाद दी इस दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। बता दें कि यह पहली बार नहीं है जब यह मामला सामने आया है। 1999, 2015 और 2018 में तीन बार लॉ कमीशन ने इस पर अपनी रिपोर्ट दी। वहीं, इससे पूर्व 2016 में संसदीय समिति भी अपनी अंतरिम रिपोर्ट दे चुकी है। जब 2018 में यह मामला सामने आया था तो केंद्र ने विधि आयोग को पूरा मामला सौंप दिया था। विधि आयोग की ओर से इस पर पूरा रोडमैप तैयार किया गया है।

2018 में विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि ऐसा माहौल है कि देश में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराने की जरूरत है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में माना था कि मौजूदा नियमों के मुताबिक, एक साथ चुनाव संभव नहीं हैं कि इसलिए संविधान में कुछ संशोधनों की जरूरत है। इस रिपोर्ट में कहा गया कि अगर सरकार को इसे लागू कराना है तो संविधान में कम से कम 5 संशोधन करने होंगे।

क्या संभव हैं एकसाथ चुनाव?

सबसे बड़ा सवाल है कि क्या देश में एक साथ लोकसभा और राज्यसभा का चुनाव संभव है। इसका जवाब है हां। ऐसा पहले भी कई बार हो चुकी है। आजादी के बाद केंद्र और राज्यों के चुनाव एकसाथ ही हुए थे। इसके बाद केंद्र और राज्यों में सरकारों के गिरने से इनके चुनाव में अंतर आ गया है। अगर 2024 में लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव होते हैं तो उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, पंजाब, गुजरात और गोवा जैसे राज्यों की सरकारें बहुत कम समय में ही बर्खास्त करनी होंगी।

इस चुनौती का करना होगा सामना

एक देश एक चुनाव में सरकार के सामने एक समस्या देश के राजनीतिक सिस्टम को लेकर भी है। दरअसल केंद्र में जहां बीजेपी और कांग्रेस जैसे दो प्रमुख राष्ट्रीय दलों में टक्कर रहती है वहीं राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा देखने को मिलता है। कई बार राज्यों में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति सामने आती है। ऐसे में गठबंधन की सरकार बनती है। ऐसे में अगर सरकार गिरी तो एक देश एक चुनाव का क्रम टूट जाएगा।

पहले एकसाथ होते थे केंद्र और राज्यों के चुनाव

एक देश एक चुनाव को लेकर आज भले ही देश में बहस जारी हो लेकिन आजादी के बाद देश में केंद्र और राज्यों के चुनाव एक साथ ही होते थे। 1952 में जब देश में पहली बार आम चुनाव हुए तो उसके बाद राज्यों का चुनाव भी साथ ही कराया गया। इसके बाद 1957, 1962, 1967 में भी केंद्र और राज्य सरकारों के चुनाव एक साथ ही कराए गए। 1967 में उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह की बगवात के चलते सीपी गुप्ता की सरकार गिर गई और यहीं से एकसाथ चुनाव का गणित भी खराब हो गया। इसके बाद साल 1968 और 1969 में भी कुछ राज्यों की सरकारें समय से पहले ही भंग हो गई। 1971 की जंग के बाद लोकसभा चुनाव भी समय से पहले करा दिए गए। इससे चुनावी गणित बिगड़ गया। 2019 के लोकसभा चुनाव में ओडिशा में एकसाथ चुनाव ही हुए थे।

कितना बड़ा होगा एक देश-एक चुनाव?

एक देश एक चुनाव के लिए चुनाव आयोग को बड़ी तैयारी करनी होगी। देश में लोकभा की 543 सीटें हैं। सभी पर एक साथ चुनाव होते हैं। इसके अलावा सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की 4126 सीटों पर चुनाव कराने होंगे। समस्या यह है कि कई राज्यों में कुछ समय पहले ही विधानसभा गठित हुई है। कई में अगले साल चुनाव होने हैं। ऐसे में कुछ विधानसभाओं का कार्यकाल समय से पहले खत्म करना पड़ सकता है तो कुछ का कार्यकाल आगे बढ़ाना होगा। चुनाव आयोग के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनाव में कुल 91 करोड़ मतदाता थे। इस बार इनकी संख्या बढ़कर 101 करोड़ हो सकती है। इसने वोटरों के लिए इंतजाम करना बड़ी चुनौती होगी।

चुनाव पर कितना आता है खर्च?

चुनाव चाहे केंद्र का हो या विधानसभाओं का, इसका सीधा असर सरकारी खजाने पर पड़ता है। लोकसभा चुनाव में केंद्र और राज्य सरकारें खर्च को आधा-आधा बांटती है। दूसरी तरफ विधानसभा चुनावों के दौरान होने वाले खर्च हो राज्य ही उठाते हैं। ऐसे में राज्यों पर दोहरी मार पड़ती है। ऐसे में केंद्र सरकार का कहना है कि केंद्र और राज्यों में एक साथ चुनाव कराए जाएं। इस पर जो भी खर्च आए उसे केंद्र और राज्य बराबर उठाएं। सरकारी खजाने के हिसाब से अच्छा कदम माना जा सकता है।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक केंद्र सरकार ने 2014 से 2020 तक चुनाव के लिए 5794 करोड़ रुपये जारी किए हैं। इस दौरान देश में 2 बार लोकसभा चुनाव और अलग-अलग राज्यों में 50 बार विधानसभा चुनाव हुए हैं। एक सर्वे के अनुसार 2019 के लोकसभा चुनाव में करीब 60 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे। इनमें से भी सरकार और चुनाव आयोग की ओर से करीब 9 हजार करोड़ रुपये खर्च किए गए। आंकड़ों के मुताबिक 1952 में चुनाव पर 10 करोड़ 45 लाख रुपये खर्च हुए थे। अगर आंकड़ों की बात करें तो उस दौरान प्रति वोटर खर्च सिर्फ 60 पैसे था जो 1991 में बढ़कर 359 करोड़ रुपये हो गया और प्रति वोटर 7 रुपये खर्च आया। इसके बाद 2014 में यह खर्च बढ़कर 3870 करोड़ हो गया और प्रति वोटर 46.40 रुपये का खर्च आया।

चुनाव में कहां-कहां होता खर्च?

चुनाव के दौरान चुनाव आयोग और केंद्र ईवीएम से लेकर वोटर लिस्ट की तैयारी, पोलिंग पार्टियों की ट्रेनिंग, पोलिंग पार्टियों के आवागमन, उनके खानपान और केंद्रीय बलों की नियुक्ति पर खर्च किया जाता है। वहीं प्रत्याशियों और राजनीतिक दलों की ओर से प्रचार पर भारी खर्च किया जाता है। एक सर्वे के मुताबिक किसी भी चुनाव में होने वाले कुल खर्च का 15 फीसदी सरकार और चुनाव आयोग, 40 फीसदी उम्मीदवार, 35 फीसदी राजनीतिक दल, 5 फीसदी मीडिया और 5 फीसदी द्वारा खर्च किया जाता है।