एक देश एक चुनाव, इस मुद्दे पर सालों से चर्चा की जा रही है, कई बार कमेटियां बनाकर मंथन हुआ है, लेकिन निष्कर्ष कभी नहीं निकल पाया, सहमति नहीं बन पाई। अब एक बार फिर जब देश लोकसभा चुनाव के करीब है, जब मोदी को हराने के लिए पूरा विपक्ष एकजुट हुआ पड़ा है, जमीन पर एक बड़े दांव की तैयारी है। इस दांव की कोई घोषणा नहीं की गई है, लेकिन माना जा रहा है कि संसद के विशेष सत्र में एक देश एक चुनाव को लेकर बिल पेश किया जा सकता है। अब इस चुनावी प्रक्रिया का क्या मतलब है, संविधान इस बारे में क्या कहता है, ये सभी को पता चल चुका है, गूगल कई तरह के आर्टिकल से पटा पड़ा है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये कि इस कदम के सियासी मायने क्या रहने वाले हैं? इस कदम से किसे फायदा और किसे नुकसान होने वाला है? देश की जनता पर इस कदम का क्या असर रहने जा रहा है?

अब इस पूरे विश्लेषण के तीन पहलू हैं- क्षेत्रीय पार्टियों पर एक देश एक चुनाव का क्या असर रहेगा, बीजेपी इस दांव में अपने लिए क्या उम्मीद देख रही है और तीसरा ये कि वोटिंग पैटर्न पर कितना फर्क पड़ सकता है।

क्षेत्रीय पार्टियां

देश में दो तरह की पार्टियां सक्रिय रहती हैं- एक राष्ट्रीय और दूसरी क्षेत्रीय। कई ऐसे राज्य हैं जहां पर राष्ट्रीय पार्टियों की कोई दखल नहीं हो पाई है और मुकाबला हमेशा क्षेत्रीय पार्टियों के बीच में ही रहता है। लेकिन उन राज्यों में अब राष्ट्रीय पार्टियां घुसने की कोशिश कर रही हैं, माना जा रहा है कि अगर एक देश एक चुनाव लागू हो गया तो इन राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों की चुनौती बढ़ जाएगी। इसे ऐसे समझने की कोशिश कीजिए कि विधानसभा का चुनाव लोकल मुद्दों पर लड़ा जाता है, वहीं लोकसभा के चुनाव के दौरान राष्ट्रीय मुद्दे हावी हो जाते हैं। लेकिन अगर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ में ही होने लगे, उस स्थिति में लोकल और राष्ट्रीय मुद्दों की खिचड़ी बन जाएगी। तब जो राष्ट्रीय पार्टी होगी, उसकी नेशनल मुद्दों पर अच्छी पकड़ रहेगी, वहीं क्षेत्रीय पार्टी स्थानीय मुद्दों को उठाने की कोशिश करेगी।

लेकिन वहां भी राष्ट्रीय पार्टी के पास फायदा ये रहने वाला है कि वो राष्ट्रीय के साथ-साथ लोकल मुद्दों पर भी खेल सकती है, लेकिन क्षेत्रीय पार्टियां खुद को सिर्फ लोकल मुद्दों तक पर सीमित रख पाएंगी। अगर वो राष्ट्रीय मुद्दों पर बोलेंगी भी तो उसका प्रभाव उतना नहीं रहेगा जितना किसी राष्ट्रीय पार्टी के कहने पर होगा। अब क्षेत्रीय पार्टियों को इस प्रक्रिया से एक और बड़ा नुकसान हो सकता है। ये नहीं भूलना चाहिए कि देश की तमाम पार्टियां खुद को हर कीमत पर एक्सपैंड करना चाहती हैं, वो खुद को एक राज्य तक सीमित नहीं रखना चाहती हैं। फिर चाहे बात ममता बनर्जी की टीएमसी की हो या बात को तमिलनाडु की डीएमके की, सभी को अपना विस्तार करना है। लेकिन जब दोनों लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ होंगे, क्षेत्रीय पार्टियों के सामने पहली चुनौती अपनी सत्ता को बचाने की होगी, यानी कि उन्हें लोकसभा से ज्यादा विधानसभा पर ध्यान देना पड़ेगा।

इस स्थिति में जब ध्यान बंट जाएगा तो ना विधानसभा चुनाव की पूरी तैयारी हो पाएगी और ना ही लोकसभा चुनाव में उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन देखने को मिलेगा। वहीं जो राष्ट्रीय पार्टी होगी, उसके पास संगठन के साथ-साथ संसाधन भी इतने रहेंगे कि वो दोनों चुनावों के लिए साथ में जमकर प्रचार कर सके। ऐसे में अगर एक देश एक चुनाव लागू होता है तो उस स्थिति में क्षेत्रीय दलों को नए सिरे से अपनी रणनीति पर काम करना होगा।

राष्ट्रीय पार्टियां

अब क्षेत्रीय दलों के लिए अलग एक देश एक चुनाव चुनौती लेकर आता है, तो ये भी कहना गलत नहीं होगा कि राष्ट्रीय पार्टियों के लिए नए राज्यों में विस्तार के विकल्प भी खुल जाते हैं। यहां भी बीजेपी अपने लिए एक बड़ी उम्मीद देख रही है। जिन राज्यों में पार्टी ने लोकसभा में तो अच्छा प्रदर्शन किया है, लेकिन विधानसभा में फेल हुई हैं, वहां पर इस नए कन्सेप्ट के बाद समीकरण बदल सकते हैं। उदाहरण के लिए लोकसभा चुनाव चल रहे हैं, साथ में बंगाल में भी चुनाव है। अब होगा ये कि LOCAL और NATIONAL मुद्दों की खिचड़ी बन जाएगी। एक ही रैली में पीएम मोदी राष्ट्रवाद का एंगल भी खेंलेगे और सेम ही टाइम पर एक काद लोकल मुद्दे भी उठा देंगे। दूसरी तरफ ममता बनर्जी लोकल मुद्दों पर सारा फोकस रखेंगी क्योंकि उन्हें तो अपनी सीएम कुर्सी बचानी है, यानी कि बीजेपी दोनों राष्ट्रीय और लोकल मुद्दों पर आराम से खेल जाएगी, लेकिन ममता बनर्जी को सारा जोर विधानसभा चुनाव पर लगाना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में बीजेपी के पास एक EDGE रह सकती है।

एक चीज ये समझना भी जरूरी रहता है कि लोकसभा के चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर ज्यादा लड़े जाते हैं। इसी वजह से कई राष्ट्रीय पार्टियां लोकसभा में अच्छा प्रदर्शन कर जाती हैं, लेकिन विधानसभा में फिसड्डी साबित होती हैं। लेकिन जब दोनों चुनाव साथ में होंगे, राष्ट्रीय मुद्दों का स्थानीय मुद्दों पर हावी होना काफी मुमकिन है। उस स्थिति में बीजेपी और कांग्रेस जैसी पार्टियां उन राज्यों में भी अपने लिए उम्मीद देख सकती हैं जहां पर उनका पिछला प्रदर्शन ज्यादा खास ना रहा हो।

वोटर का वोटिंग पैटर्न

देश के वोटर का मिजाज चुनाव के हिसाब से बदलता रहता है। उसे पता होता है कि लोकसभा का चुनाव किन मुद्दों पर लड़ा जाना है और विधानसभा में कौन से डिसाइडिंग फैक्टर रहने वाले हैं। इसी वजह से मोदी मौजिक भी लोकसभा में तो सिर चढ़कर बोलता दिख जाता है, लेकिन विधानसभा के कई चुनावों में वो फैक्टर बीजेपी को फायदा नहीं दे पाता। कर्नाटक में हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव इस ट्रेंड का सटीक उदाहरण हैं। बीजेपी ने पीएम मोदी से कितनी रैलियां करवाईं, हर बार उनके चेहरे को आगे किया, लेकिन जनता ने लोकल मुद्दे, लोकल चेहरे और लोकल समीकरणों को समझते हुए वोट डाला और बीजेपी का राज्य से सफाया हो गया।

लेकिन जब देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ में करवाए जाएंगे, तो ये समझदार वोटर भी कन्फ्यूज हो सकता है। नेरेटिव का खेल इस तरह सेट किया जा सकता है कि राष्ट्रीय मुद्दे ही सबकुछ बन जाएं, लोकल मुद्दें कहीं पीछे छूट जाएं।

टाइमिंग का खेल, INDIA गठबंधन पर क्या असर?

अब अभी तक एक देश एक चुनाव वाले दांव को लेकर कोई औपचारिक ऐलान नहीं किया गया है, लेकिन मुंबई में हुई इंडिया गठबंधन की बैठक में ये मुद्दा भी छाया रहा। इस बात की अटकलें हैं कि समय से पहले ही चुनाव करवा दिए जाएं। ये भी कहा जा रहा है कि एक साथ चुनाव करवाने के चक्कर में कई राज्यों के चुनाव अगले साल के लिए पोस्टपोन कर दिए जाएं। अब उस स्थिति में इंडिया गठबंध के नेताओं की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं। ये बात किसी से नहीं छिपी है कि लोकसभा चुनाव के लिए साथ आए कई दल विधानसभा चुनाव के दौरान अभी भी एक दूसरे के खिलाफ ही लड़ने वाले हैं।

ऐसे में अगर साथ में लोकसभा और विधानसभा चुनाव हो गए, जनता के सामने विपक्षी पार्टियों को अपना स्टैंड बताने में कई दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा। उनकी विचारधारा भी ज्यादा कन्फ्यूज दिखाई पड़ेगी जिसका असर वोटर पर भी सीधा पड़ सकता है।