शीतलहर बढ़ने के साथ ही राजधानी के विभिन्न अस्पतालों में लकवा (ब्रेन स्ट्रोक) व दिल का दौरा (हार्ट अटैक) के मरीजों की तादात 15 से 20 फीसद बढ़ गई है। दिल्ली ही नहीं आसपास के दूसरे राज्यों से भी मरीजों का आना जारी है, जिनके लिए संसाधन कम पड़ रहे हैं। अस्पतालों में मरीजों को सबसे ज्यादा मुश्किल जीवन रक्षक प्रणाली (वेंटीलेटर) व गहन चिकित्सा कक्ष (आइसीयू) में बिस्तर मिलने में आ रही है। चिकित्सकों की राय है कि स्ट्रोक या हार्ट अटैक के मामलों में मरीजों को जल्द से जल्द प्राथमिक उपचार मिलना चाहिए। अगर इलाज में देरी हो गई तो बड़े से बड़ा अस्पताल भी कुछ नहीं कर सकता।
दिल्ली के एम्स, सफदरजंग, जीबीपंत, जीटीबी सहित तमाम अस्पतालों में दिल के मरीजों व दिमाग की नस फटने या लकवे का शिकार हुए मरीजों का आना बढ़ गया है। चिकित्सकों के मुताबिक 50 साल से अधिक उम्र के लोगों में मधुमेह, थाइरायड या दमे,बीपी व एनीमिया के मरीजों अथवा किसी तरह की गर्भनिरोधक दवा लेने वालों को यह खतरा अधिक रहता है। एम्स के हृदयरोग विशेषज्ञ डॉ राकेश यादव ने बताया कि मरीजों की संख्या इन दिनों बढ़ गई है। कोई गणना तो नहीं है लेकिन अनुमानत: इन दिनों हृदयरोग के मरीजों की तादात 15 से 20 फीसद बढ़ जाती है।
उन्होंने बताया कि ठंड के कारण लोग पानी पीना कम कर देते हैं जिससे पेशाब भी कम बनती है। इससे जहां एक ओर खून गाढ़ा हो जाता है। वहीं, शरीर का अतिरिक्त नमक निकल नहीं पाता। ठंड से लोगों के शरीर की खून की आपूर्ति करने वाली नसें सिकुड़ जाती हैं। जिससे मरीज का रक्तचाप अनियंत्रित हो जाता है। वहीं, ठंड से शरीर को बचाने के लिए और शरीर का तापमान बनाए रखने के लिए भी हार्ट को ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। जिससे हार्ट अटैक का खतरा बढ़ जाता है। उन्होंने कहा कि जिन लोगों को ठंड खुले में काटनी पड़ती है उनको यह खतरा अधिक होता है। इस तरह से मजदूर तबके के लोग ज्यादा प्रभावित होते हैं।
उन्होंने कहा कि हार्ट अटैक के ऐसे मामलों में कम से कम 50 फीसद मरीज लक्षण दिखने पर भी यह मानने को तैयार नहीं होते कि उनको हार्ट अटैक हुआ है। खासतौर से महिलाओं में यह गलती अक्सर देखी जाती है। वे इसे गैस या दूसरी दिक्कत मानते हुए इनका अपने मन से इलाज करने या टहलने लगती हैं। जिससे यह दिक्कत जानलेवा साबित हो जाती है, जबकि ऐसे में एक घंटे के अंदर प्राथमिक उपचार भी शुरू हो जाए तो 80 फीसद मामले में मरीजों की जिंदगी बचाई जा सकती है। तीन घ्ांटे के अंदर इलाज शुरू होने पर 50 फीसद मरीज बच पाते हैं जबकि 12 घंटे के बाद मरीज को बचा पाना या अटैक के प्रभाव को ठीक कर पाना मुश्किल होता है। डॉ यादव ने कहा कि इसलिए इस तरह के मामलों में तुरंत डिस्प्रिन देकर मरीज को नजदीकी अस्पताल में ले जाने की दरकार होती है। जीबी पंत अस्पताल के मस्तिष्क रोग विभाग के प्रमुख डॉ देबाशीष चौधरी ने बताया कि इन दिनों ब्रेन स्ट्रोक के मरीजों की संख्या बढ़ गई है।