बेमौसम कोई बादल नहीं फटा तो 11 मार्च को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विधानसभा में अपना बहुमत साबित कर देंगे और इसके साथ ही मांझी के हाथ में पतवार देने की उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक भूल का सदन के पटल पर वैधानिक पटाक्षेप हो जाएगा। लेकिन इसके साथ ही उनके सामने चुनौतियों का अंत हो जाएगा ऐसा नहीं है। इस बार मोदी का चेहरा उनको उतना नहीं सताएगा जितना खुद उनका पेश किया हुआ मांझी का चेहरा उनको सताएगा।

कई हफ्तों तक खुली लड़ाई के बाद भी नीतीश के शपथ ग्रहण समारोह में मांझी भी शरीक हुए तो वहां उनकी मौजूदगी कई राजनीतिक जानकारों को उनकी परिपक्वता और कइयों को उनकी मौकापस्ती का नमूना लगा। यह कुछ ऐसा ही था जैसे भाजपा को भी नहीं पता था कि वे सदन में जाने के पहले ही राज्यपाल को इस्तीफा सौंप आएंगे। इसकी तस्दीक पार्टी के कई नेता करते हैं, पर अपना नाम नहीं देना चाहते। मांझी ने ऐसा तब किया जब प्रधानमंत्री मोदी से लेकर भाजपा के कई मूर्धन्य नेताओं तक से मांझी ने अपनी मुलाकात में बार-बार समर्थन की गुपचुप अपील की और उसके बाद भाजपा ने घोषित तौर पर मांझी के पक्ष में अपने विधायकों के वोट करने का फैसला सुना दिया था। जाहिर है, मांझी न सिर्फ नीतीश के लिए अचंभा साबित हुए बल्कि उन्होंने एक जोर का झटका धीरे से उन्होंने भाजपा को भी दे दिया।

अब मांझी आजाद खड़े हैं। इस तरह से आजाद कि न सिर्फ बिहार में बादशाहत की उम्मीद पाले बैठी भाजपा उनको अपने पिंजड़े में कैद करने को पूरे तन मन धन से बहेलियों को ललचा रही है, बल्कि हाल ही में हार और तदनुसार हाशिए का स्वाद चखे कई नेता भी मांझी को अपने नाव की पतवार सौंपने को तैयार दिख रहे हैं। कुछ शर्तों के साथ।

लोकसभा के दौरान लालू यादव ने 22 से 24 सीटें जीतने का दावा किया था। पर उनकी पार्टी जीत पाई सिर्फ चार सीट। मोदी के साथ बैठ खाना खाने को मना कर चुके नीतीश दो पर सिमट कर रह गए। ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ के इस आगाज ने दोनों नेताओं को अपने अंजाम से डरा दिया।

लालू के जंगलराज के खिलाफ तीर चलाकर सत्ता तक पहुंचे नीतीश के सामने ऐसा राजनीतिक अंधकार पैदा हुआ कि वे भले ही बिहार के हर गांव को 2015 तक बिजली का वादा कर चुके हों पर उन्हें खुद इसी साल होने वाले विधानसभा चुनाव में अपने लिए लालटेन की रोशनी की जरूरत महसूस होने लगी। फिर लालू और नीतीश ने एक होने का संदेश दिया। पर क्या वे एक हो पाए हैं? लोकसभा चुनाव में हार के बाद और मांझी प्रकरण के पहले की स्थिति जो भी रही हो, लेकिन इन सब के बाद की स्थिति तो इसकी गवाही नहीं देती।

अप्रिय सत्य कहें तो माझी प्रकरण ने दोनों नेताओं के अपने-अपने बहाने दिए हैं एक दूसरे को निपटाने के, क्योंकि एक का राजनीतिक अस्तित्व दूसरे के विरोध पर ही पनपा। और अब दूसरा अगर उस विरोध को खत्म करना चाहेगा तो उसकी कीमत में भी अपनी जेब में सूद समेत वसूलना चाहेगा।

इसलिए लालू मांझी पर जुआ खेलना चाह रहे हैं। उनका फार्मूला सीधा है। 18 फीसद मुसलमान, 14 फीसद यादव जिन पर वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं, और मांझी के साथ 22 फीसद महादलितों का अति आत्मविश्वास जोड़कर एक नए राजनीतिक क्षितिज की तरफ निहार रहें हैं।

एम-वाई यानी मुस्लिम-यादव का अपने पुराने फार्मूले में वे एक और एम महादलित का जोड़ना चाह रहे हैं। दिलचस्प है कि इस 22 फीसद महादलित के साथ का भरोसा पालते हुए भी मांझी आखिरकार भाजपा के तकरीबन 30 फीसद के साथ तनकर खड़े होने का दुस्साहस नहीं दिखा पाए। वरना 52 फीसद में तो बिहार मो-मा मय हो जाता। मोदी-मांझी मय।

सूत्र बताते हैं कि लालू ने नीतीश को मांझी संकट से उबारने के एवज में अपनी बेटी मीसा को उप मुख्यमंत्री बनाने की शर्त रखी थी। पर कुछ कारणों से नीतीश ने उसे पूरा नहीं किया और अब लालू मीसा के लिए सिर्फ छह महीने से ज्यादा का सुरक्षित भविष्य तलाश रहे हैं। इसलिए भी वे मांझी की तरफ निगाह किए हुए हैं। लालू तकरीबन दशक भर तक खुद चुनावी लड़ाई लड़ नहीं सकते। लेकिन बदले हुए वक्त में अब राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर पत्नी राबड़ी को भी पेश नहीं कर सकते। ये या तो मीसा हो सकती हैं या फिर तेजस्वी नाम का उनका बेटा, जिसको नेता स्वीकारने में राजद के पप्पू यादव समेत कई नेताओं को वैसी ही समस्या हो रही है, जैसे राहुल गांधी को अपना नेता स्वीकारने में कांग्रेस के कई पुराने नेताओं को।

मांझी भाजपा से मुकरे नहीं तो मतवाले तो हुए ही हैं। एक तरफ मुख्यमंत्री की कुर्सी के साथ मीसा की महत्त्वाकांक्षा की आहट के साथ लालू यादव के उनकी चौखट पर खटखटाहट की खबर है, वहीं भाजपा उन्हें ज्यादा हरियाली वाले सत्ता के पार्क की चौहद्दी समझाने में लगी है। बीच में पप्पू यादव जैसे माली हैं जो भाजपा के दिखाए इस बाग (अगर सब्जबाग न भी कहें तो) में लगातार पानी पहुंचाने की कोशिश में नजर आ रहे हैं।

दरअसल पप्पू यादव लालू यादव या नीतीश कुमार दोनों के साए को ऐसा बरगदी समझते हैं जिसके नीचे उनकी अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा का पेड़ पनप नहीं सकता। भाजपा के सामने उनकी अपनी भी शर्तें हैं। वह इन दोनों को साधने में थोड़ी मुश्किल महसूस कर रही है।

बिहार में दिल्ली की तर्ज पर वह अपने प्रादेशिक नेताओं को ताक पर रखकर कोई किरण बेदी नहीं चाहती। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि सुशील कुमार मोदी के अलावा बिहार में उसके पास कोई ऐसा चेहरा है जो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपनी दावेदारी के साथ खड़ा हो सके। पर सुशील मोदी की संगठन पर पकड़ नहीं है। मोदी की सुनामी के बावजूद भागलपुर से हारे शहनवाज हुसैन की आकांक्षाएं भी बलवती हैं, पर वे सुषमा स्वराज से अपनी नजदीकी के चलते मोदी की गुडबुक में नहीं हैं। नेतृत्व की कमी या कमजोरी के चलते ही भाजपा मांझी का साथ साधने की कोशिश में लगी हुई है।

भाजपा को यह भी पता है कि देश के किसी भी कोने में उसका कुल वोट तकरीबन 30 फीसद के आसपास ही जाकर ठहरता है। इतने में ही उसे जीत हासिल करनी है। लेकिन ऐसा विपक्ष, जिसने अपने वोटों के समीकरण का आंकड़ा 40 से 54 फीसद तक लगा रखा हो, उसके लिए घातक साबित हो सकता है और ऐसे में उसे बांटना ही होगा। इसलिए भाजपा की रणनीति यह है कि मांझी को साथ लेने से 22 फीसद महादलित वोट बेशक भाजपा के साथ पूरी तरह न जुटे, पर वह नीतीश या नीतीश -लालू साथ के वोटों की गणना से अलग तो हो ही जाएं। लालू नीतीश के साथ के समीकरण को तोड़ने के लिए भाजपा के लिए यह जरूरी है।

यही वजह है कि मांझी के विश्वासमत के धोखे के बाद भी भाजपा मांझी को साधने की कोशिश में जुटी है। पर लालू का गणित मांझी को दुविधा में डाले हुआ है। ज्यादा खीर किधर है वे तय नहीं कर पा रहे। यह एक बाल सुलभ जिज्ञासा हो सकती है कि आखिर लालू मांझी को साथ क्यों लेना चाह रहे हैं जबकि राजद-जद (एकी) के विलय की बात चल रही है और दोनों मोदी से लड़कर खड़े होने की कोशिश में हैं।

लेकिन दोनों एकजुटता की बात करते हुए भी ऐसा खंजर लेकर चल रहे हैं जिसे मौका मिलते ही एक दूसरे की पीठ में घुसेड़ बिहार के राजनीतिक परिदृश्य से सदा के लिए खत्म कर देना चाहते हैं। तभी तो नीतीश कुमार भी लालू के सिहपसालार, लेकिन लालू से नाराज चल रहे अब्दुल बारी सिद्दीकी को साथ लेकर 18 फीसद मुसलमान को अपने साथ जोड़ना चाह रहे हैं। इसके जरिए वे न सिर्फ महादलित के छिटके वोट की भरपाई चाह रहे हैं बल्कि मोदी के खिलाफ अपनी रहनुमाई भी।

कहते हैं कि नीतीश की ऐसी ही कोशिश ने लालू को नाराज कर दिया है और बदले में वे मांझी को साधने की कोशिश में जुटे हुए हैं। इसमें नीतीश से खार खाए शरद यादव जैसे नेता भी मददगार हैं। हालांकि शरद भाजपा के भी नजदीकी बताए जाते हैं जो एनडीए के संयोजक भी रह चुके हैं और मोदी के मुद्दे पर भाजपा से नाता तोड़ने के नीतीश के फैसले को ठीक नहीं मान रहे थे। खबर तो यहां तक है कि शरद यादव मांझी को हटाने के पक्ष में नहीं थे और राजनीतिक हलकों में इसे शरद के नीतीश विरोध के रूप में भी देखा गया।

उमाशंकर सिंह, (टिप्पणीकार एनडीटीवी से संबद्ध हैं।)