कोविड-19 के संकट के साथ पूरी दुनिया में एक विमर्श ने जोर पकड़ा कि महामारी का यह संकट हमारे लिए सेहत या सुरक्षा से जुड़ा मसला भर नहीं है बल्कि यह संकट हमारी सभ्यतागत समझ और विकास के साथ एक निर्णायक नौबत बनकर आया है। जिस आधुनिकता ने दो विश्व युद्धों के उन्माद से भी सबक नहीं लिया, उसके लिए बीते तीन दशक मन माफिक विस्तार के रहे हैं। दुनिया एक छतरी के नीचे हो तो विकास और आधुनिकता के साझे प्रयोग के लिए सहूलियतें काफी बढ़ जाती हैं। वैश्वीकरण की जिस प्रक्रिया से यह अनुकूलता सुलभ हुई, आज उस प्रक्रिया के आगे का रास्ता किसी के भी सामने साफ नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि कोविड-19 का संकट अभी निपटा नहीं है। दवा की खुराक और टीके से इसका मुकाबला तो खैर हम जब करेंगे तब करेंगे लेकिन एक बात तो अभी से तय है कि कोरोना पूर्व और बाद की दुनिया एक जैसी नहीं रहने वाली है।
यही नहीं, इस महामारी के बीच समाज और संवेदना की जो भयावह स्फीति हमने देखी है, वह कहीं न कहीं हमें आगाह कर रही है कि मैत्री, सौहार्द और सहयोग जैसे मूल्य अगर इसी तरह तिरोहित होते गए तो आने वाले दुनिया में निश्चित तौर पर मानवता अपने सबसे कठिन दिनों में होगी।
भय, हिंसा और नफरत
बीते कुछ महीनों में भय, हिंसा और नफरत के नस्लीय और लैंगिक अनुभव काफी सघनता के साथ दुनिया के तमाम हिस्सों से हमारे सामने आए हैं। ये अनुभव हमारे लिए एक तरह से मुठभेड़ है उन तमाम दावों के साथ जिनके बूते विकास और सभ्यता की उत्तर आधुनिक समझ और चमकदार दावे हम अपने लिए और अपने देशकाल के लिए गढ़ते रहे हैं।
यह समझ सच और विगत अनुभवों से कितनी बड़ी मुंहचोरी है, इसकी मिसाल है दुनिया के सिरमौर देश अमेरिका में कोरोना संकट के बीच नस्लीय मानसिकता और हिंसा की खबरें। बीते कुछ समय में वहां की सड़कों पर जो इसका विरोध दिखा, वह उम्मीद से ज्यादा धिक्कार है उन तमाम राजनीतिक-सामाजिक सत्ता प्रतिष्ठानों के लिए जो संवेदनहीनता पर क्षोभ के बजाय अब भी आत्मरति में सराबोर हैं। दिलचस्प है कि यह स्थिति तब है जब हम तारीख के कुछ बड़े सबक से ज्यादा दूर नहीं खड़े हैं।
महात्मा और मंडेला
सत्य, प्रेम और करुणा की सीख देने वाले गांधी को देखने वाली आंखें ही नहीं उनकी पीढ़ी भी अभी बची है। इसी तरह नस्लवाद के खिलाफ संघर्ष के सबसे बड़े नायक नेल्सन मंडेला 2013 के आखिर तक हमारे बीच थे। दिलचस्प यह कि मंडेला गांधीवादी परंपरा के भी बड़े नायक थे। यह बात समझनी इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि भारत सहित पूरी दुनिया में ‘गांधी 150’ का आयोजन महोत्सवी तौर पर चल रहा है। सत्याग्रह से लेकर ट्रस्टीशिप के उनके सिद्धांत-आदर्श सामयिक संदर्भ और व्याख्या के साथ हर जगह दोहराए जा रहे हैं।
मौजूदा चुनौतियों और सवालों के बीच गांधी और मंडेला के साझे जिक्र के जरिए हम कुछ बातों को नए सिरे से समझ सकते हैं। पहली बात तो यह कि नस्लवाद साम्राज्यवाद का ऐतिहासिक तौर पर सबसे कारगर औजार रहा है। जब गांधी दक्षिण अफ्रीका में थे तो रंगभेदी घृणा के वे खुद शिकार हुए। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए इस घृणा और हिंसा के खिलाफ लोगों को जागरूक करने और संगठित संघर्ष शुरू करने का पहला श्रेय गांधी को ही है। बाद में संघर्ष की इस विरासत ने वहां एक राष्ट्रीय आंदोलन का रूप लिया।
संघर्ष के तीन दशक
मंडेला का संघर्ष नस्लवाद के खिलाफ तीन दशक से भी लंबा है। उन्हें इस बात का श्रेय जाता है कि दबे-सताए लोगों को संघर्ष की राह पर आगे बढ़ाने और फिर निर्णायक सफलता हासिल करने तक धैर्य और संयम बनाए रखना कितना जरूरी है, यह सीख उन्होंने अपने आचरण से दी। इस तरह का सकर्मक नायकत्व हासिल करना बड़ी उपलब्धि है। मंडेला आज अगर पूरी दुनिया में अन्याय और मानवीय दुराव के खिलाफ संघर्ष करने वालों के हीरो हैं तो अपनी इसी धैयर्पूर्ण शपथ के कारण ही। 27 साल का जीवन जेल की सलाखों के पीछे बिताने के बावजूद अपने संघर्ष की अलख को जलाए रखना कोई मामूली बात नहीं है। 1990 में जब वे जेल से रिहा हुए तो देखते-देखते दुनिया के हर हिस्से में अन्याय के खिलाफ संघर्ष और क्रांतिकारी-वैचारिक गोलबंदी के जीवित प्रतीक बन गए।
तुलना और तारीख
मंडेला ने अपने जीवन में गांधी का स्मरण कई मौकों पर किया है। वे महात्मा को एक शक्ति देने वाले प्रेरक व्यक्तित्व के तौर पर देखते थे। पर खुद मंडेला ने भी अपने को ‘दूसरा गांधी’ कहे या माने जाने के नजरिए को एक भावुक सोच भर माना। उनके कई संस्मरणों में ऐसा जिक्र आता भी है। गांधी की लीक को आगे बढ़ाने वाले दक्षिण अफ्रीका के इस महान सपूत ने तारीख के उन हर्फों को लिखा है, जिससे दुनिया के सामने यह जाहिर हुआ कि मानवीय दुराव का हर तर्क न सिर्फ एक क्रूर हठ है बल्कि इस हठ को डिगाया भी जा सकता है।
संघर्ष को चाहिए नायक
एक ऐसे दौर में जब दुनिया भले कहने को एक छतरी में खड़ी हो पर लैंगिक और नस्लीय विभेद से लेकर मानवाधिकार हनन के तमाम मामले हमारी अब तक की तरक्की और उपलब्धि को सामने से मुंह चिढ़ा रहे हैं। ऐसे में संघर्ष के प्रतीक और नायक का बने और टिके रहना बहुत जरूरी होता है। आज अगर मंडेला हमारे बीच नहीं हैं तो सबसे बड़ा संकट यही है कि संघर्ष और व्यक्तित्व के करिश्माई मेल को देखने के लिए अब हमारी आंखें कहां टिकेगी। नस्लभेद के खिलाफ संघर्ष में पूरी दुनिया को ‘हम होंगे कामयाब’ जैसे भरोसे से भर देने वाली टेर और मार्टिन लूथर किंग जैसा रहनुमा देने वाले देश में आज अगर चालीस से ज्यादा शहरों में पुलिस को रातोंरात अपने ही नागरिकों के खिलाफ दमनात्मक कार्रवाई पर उतारू होना पड़ता है, तो यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। यह ऐसी स्थिति भी नहीं है जिसे ग्लोब के एक कोने पर निशान बनाकर हम देखें और कहें कि इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ता।
अनुभव और सबक
सच कहें तो कोरोना संकट के बीच जॉर्ज फ्लायड के खिलाफ अमेरिकी पुलिस की दमनात्मक कार्रवाई ने पूरी दुनिया के समाज और सरकार के उस आचरण को चर्चा में लाया है, जो भेद और कटुता से लड़ती नहीं, उनके खिलाफ कोई संघर्ष नहीं करती बल्कि उसे बढ़ावा देते हुए अपनी व्यवस्थागत और ढांचागत स्थिति को मजबूत करती है। इस अमानवीय स्थिति के खिलाफ अगर कुछ उम्मीद बची है तो वह उन मोमबत्तियों की रोशनी के बीच जो इस तरह के आचरण और करतूत के खिलाफ पूरी दुनिया में विरोध की दरकार को शिद्दत से रेखांकित करती हैं। यह रोशनी कम हो सकती है लेकिन कमजोर नहीं, यह आशा नहीं बल्कि अनुभव है गांधी और मंडेला जैसे युगपुरुषों का।
आघात एक अध्याय दो
जिस तरह महात्मा गांधी को भारत में राष्ट्रपिता कहते हैं, उसी तरह नेल्सन मंडेला को लोग मदीबा (पिता) कहते हैं। यही नहीं, जिस दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ मंडेला ने तारीखी संघर्ष किया, वहीं गांधी को भी हिंसक रंगभेदी दुराव के कारण ट्रेन से बाहर फेंका गया। यह घटना गांधी के जीवन में निर्णायक मोड़ लेकर आती है। ‘द स्ट्रगल इज माइ लाइफ’ में मंडेला ने भी अपने साथ ऐसी ही दो घटनाओं का जिक्र किया है।
जब वकालत करने के बाद मंडेला एक कंपनी में बतौर वकील काम शुरू करते हैं हुए तो वहां एक गोरे टंकक ने कहा कि उनकी कंपनी रंगभेद में यकीन नहीं करती और जब कोई बैरा (अश्वेत व्यक्ति) चाय लेकर आता है तो खुद ही जाकर उससे चाय लेनी होती है। इसके बाद टंकक का कहना था- हमने दो नए कप चाय मंगवाई है। एक तुम्हारे लिए और दूसरा तुम्हारे अफ्रीकी अश्वेत साथी गोर राडिक के लिए। दूसरा वाकया भी उसी कंपनी से जुड़ा है। कंपनी की एक श्वेत टंकक जब भी फुर्सत में होती थी तो मंडेला से कुछ काम मांग लेती थी। एक बार वे उसे कुछ डिक्टेशन दे रहे थे कि एक अंग्रेज दफ्तर में आया। उसे देखकर महिला झेंप गई और तुरंत मंडेला से बोली, ‘नेल्सन ये लो पैसे और मेरे लिए बाजार से शैंपू लेकर आओ।’ जाहिर है कि इन घटनाओं का मंडेला के मन पर गहरा असर हुआ होगा और ऐसे ही कुछ अनुभवों से रंगभेद के खिलाफ संघर्ष का उनका इरादा भी पुख्ता हुआ होगा।
दिलचस्प है कि रंगभेद के खिलाफ लड़ने वाले इस महान योद्धा की पहली राजनैतिक पारी महज अठारह वर्ष की है। 1944 में उन्होंने अफ्रीका नेशनल कांग्रेस की सदस्यता ली थी। 1952 में वे इसकी एक शाखा के अध्यक्ष और फिर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष चुने गए। 1953 में वे पहली बार जेल गऐ। फिर आंदोलनों की वजह से उन पर देशद्रोह का मुकदमा चला और 1956 में उन्हें पांच साल की सजा सुनाई गई। पांच अगस्त, 1962 को देशव्यापी हड़ताल और राजद्रोह के जुर्म में उन्हें दोबारा गिरफ्तार किया गया और फिर वे 27 साल तक जेल में रहे। जेल के दौरान ही मंडेला न सिर्फ अफ्रीका महाद्वीप में बल्कि पूरी दुनिया में रंगभेद के खिलाफ लड़ने वाले सबसे बड़े नेता बन गए थे।