मुंबई। भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझ रही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में सही वक्त का इंतजार कर रही है। राकांपा की कोशिश है कि अपने प्रभाव वाले क्षेत्र पश्चिम महाराष्ट्र समेत मराठवाड़ा और कोंकण पर जोर देकर ज्यादा से ज्यादा सीटें जीते और इसके दम पर सत्ता में भागीदारी हासिल करने की कोशिश करे। राकांपा की फितरत यह है कि वह सत्ता के बिना नहीं रह सकती।
अपनी स्थापना (25 मई, 1999) के डेढ़ दशक बाद राकांपा एक बार फिर अपने दम पर चुनाव लड़ने जा रही है। इससे पहले राकांपा ने अपने दम पर 1999 के विधानसभा चुनावों में 223 सीटों पर चुनाव लड़कर 58 स्थानों पर जीत हासिल की थी। 2004 में कांग्रेस पार्टी के साथ गठबंधन करके राकांपा ने 124 जगहों पर चुनाव लड़ा और उसके 71 उम्मीदवार विजयी रहे थे। 2009 में पार्टी ने 113 उम्मीदवार खड़े किए जिसमें से 62 जीते थे। इस विधानसभा चुनाव में राकांपा बिना किसी गठबंधन के चुनाव लड़ने जा रही है क्योंकि कांग्रेस के साथ उसकी गठबंधन टूट चुका है।
राकांपा का असर खास तौर पर पश्चिम महाराष्ट्र में है। पार्टी ने यहां विधानसभा की 58 सीटें जीती हैं। राकांपा को उम्मीद है कि उसके खेले मराठा और मुसलिम आरक्षण कार्ड का उसे फायदा मिलेगा। हालांकि लोकसभा में मराठा और मुसलिम वोटरों ने उसका साथ नहीं दिया था। विधानसभा चुनावों में वह आरक्षण का मुद्दा उठाकर मराठा वोट बैंक का ध्रुवीकरण करना चाहती है।
राकांपा को स्थानीय निकायों के चुनावों में अच्छी कामयाबी मिली है। नई मुंबई, पुणे, पिंपरी, चिंचवाड़ व मनपा में वह बहुमत से सत्ता में है। पुणे, बीड़, सांगली, सतारा, सोलापुर जिला परिषदों पर वह काबिज है। 11 जिला परिषदों में उसके अध्यक्ष हैं। इसी कामयाबी और ग्रामीण क्षेत्रों में अपने प्रभाव के दम पर राकांपा नेता उम्मीद कर रहे हैं विधानसभा चुनावों में पार्टी अच्छा प्रदर्शन करेगी।
पार्टी की चिंता का विषय यह है कि पिछले लोकसभा चुनाव में उसे करारी हार का सामना करना पड़ा। सिंचाई घोटाले में अजीत पवार समेत उसके कई प्रमुख नेताओं के नाम भ्रष्टाचार के मामलों में उछले, जिससे पार्टी की साख खराब हुई। उसके तीन मंत्री और आधा दर्जन विधायक पार्टी से बगावत कर दूसरी पार्टियों में जा चुके हैं।
पार्टी के सर्वेसर्वा शरद पवार कुशल संगठन व सामाजिक न्याय की राजनीति करने के लिए जाने जाते हैं। राजनीति और प्रशासन में उनका प्रभाव है। वह। मगर राकांपा की बागडोर अब सुप्रिया सुले, अजीत पवार जैसे नई पीढ़ी के नेताओं के हाथ में है।
राकांपा में ताकतवर नेताओं की भी कमी नहीं है। सुप्रिया सुले का ग्रामीण क्षेत्रों में अच्छा प्रभाव है और वे महिलाओं के लिए काम करती रही हैं। अजीत पवार महत्वाकांक्षी नेता हैं और पार्टी का विस्तार करना चाहते हैं। उनकी यही महत्त्वाकांक्षा गठबंधन की टूट का कारण बनी। अकेले चुनाव लड़ने की रणनीति उन्हीं की है। छगन भुजबल का पिछड़े वर्ग में प्रभाव है। प्रफुल्ल पटेल केंद्र में रहे हैं। अजीत पवार के वफादार सुनील तटकरे कई विभागों में मंत्री रहे हैं। मधुकर पिचड़ आदिवासी नेता हैं। गणेश नाइक की ठाणे और नई मुंबई में तूती बोलती है। जयंत पाटील ने वित्त मंत्री के तौर पर नौ साल काम किया है। पार्टी प्रमुख शरद पवार भारतीय राजनीति में चाणक्य की हैसियत रखते हैं।
इतने प्रभावशाली नेताओं के बावजूद राकांपा राजनीतिक बिखराव के दौर से गुजर रही है। अपने दम पर सत्ता पाने के बजाय उसके नेता यह उम्मीद लगाए बैठे हैं कि विधानसभा में किसी भी पार्टी को बहुमत न मिलने की दशा में उनकी पार्टी सबसे ज्यादा सीटें पानेवाली पार्टी को समर्थन देकर सत्ता में बनी रहेगी। राजनीतिक गलियारों में इस बात की चर्चा आम है कि पवार जरूरत पड़ने पर भाजपा या शिवसेना किसी को भी समर्थन दे सकते हैं। लिहाजा, इस समय शरद पवार साहेब की ‘घड़ी’ को सही वक्त का इंतजार है।