ज्योति सिडाना

अब सार्वजनिक मंचों पर अक्सर कहते सुना जाता है कि लड़कियों के साथ भेदभाव गुजरे जमाने की बात हो गई। अब लैंगिक बराबरी का जमाना है। अब तो लड़कियां हर क्षेत्र में लड़कों को पीछे छोड़ कर आगे निकल गई हैं। पर सवाल है कि क्या सचमुच समाज में महिलाओं की स्थिति में कोई सकारात्मक और व्यापक बदलाव हुआ है। क्या उनके विरुद्ध होने वाली हिंसा, दुर्व्यवहार और सोच में परिवर्तन आया है।

अगर नहीं, तो फिर महिला सशक्तीकरण की बात करना बेमानी है। कहते हैं कि किसी राष्ट्र की प्रगति को मापने का उत्तम तरीका है यह जानना कि वहां की महिलाओं के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है। महिला सशक्तीकरण के बिना एक राष्ट्र की समृद्धि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की न्यायसंगत सहभागिता एक मजबूत और जीवंत समाज की स्थापना के लिए आवश्यक है।

इसके बावजूद इस वक्त भारत में कामकाजी उम्र की 43.2 करोड़ महिलाओं में से 34.3 करोड़ असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं। मैकिन्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट की एक रपट के अनुसार महिलाओं को समान अवसर प्रदान करके भारत 2025 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद में 770 अरब अमेरिकी डालर की वृद्धि कर सकता है।

फिर भी सकल घरेलू उत्पाद में महिलाओं का वर्तमान योगदान अठारह फीसद है, जबकि जनसंख्या में उनकी हिस्सेदारी अड़तालीस फीसद है। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं, जहां महिलाओं ने अपना परचम न फहराया हो। छोटे व्यवसायों से लेकर स्टार्ट-अप तक महिलाएं अपने-अपने उद्योगों में नवाचार और विकास को बढ़ावा दे रही हैं। विश्व आर्थिक मंच की वार्षिक ‘जेंडर गैप’ रपट 2023 के अनुसार लैंगिक समानता के मामले में भारत 146 देशों में से 127वें स्थान पर है, जो पिछले वर्ष से आठ स्थान का सुधार दर्शाती है।

जब आधी आबादी अर्थव्यवस्था में पूरी तरह भाग न ले रही हो, तो समावेशी और टिकाऊ विकास कठिन है। अगर लगभग पचास फीसद महिलाएं कार्यबल में शामिल हो जाएं, तो देश में विकास दर क्या होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। कई सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों ने एशिया में पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं के आधार पर औपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी को आकार दिया है।

देखभाल कार्य का असमान बोझ विकासशील और विकसित देशों में महिलाओं को औपचारिक कार्यबल में शामिल होने से रोकने वाली एक महत्त्वपूर्ण संरचनात्मक बाधा है। इसके अलावा, सार्वजनिक स्थानों पर सुरक्षा की कमी, देखभाल के बुनियादी ढांचे की अनुपलब्धता और भूमि, वित्त और डिजिटल प्रौद्योगिकी जैसे उत्पादक संसाधनों तक उनकी पहुंच में बाधा, उन्हें आर्थिक विकास की ओर बढ़ने से रोकते हैं।

भारत के औपचारिक कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी कम होने के बावजूद महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा कृषि, अनौपचारिक क्षेत्रों और छोटे व्यवसाय आधारित उद्यमों में लगा हुआ है। हालांकि यह उन्हें औपचारिक रोजगार से बाहर रखता है, जो लैंगिक समानता और सामाजिक-आर्थिक कल्याण के लिए हानिकारक है।

‘एनुअल स्टेटस आफ एजुकेशन रपट’ 2023 के अनुसार भारत में 43.7 फीसद लड़कों के पास स्मार्टफोन है, जबकि सिर्फ 19.8 फीसद लड़कियों के पास अपना स्मार्टफोन है। यह रपट कहती है कि एक चौथाई लड़के पढ़ाई इसलिए छोड़ देते हैं कि पढ़ने में उनका मन नहीं लगता और बीस फीसद लड़कियां इसलिए छोड़ देती हैं, क्योंकि परिवार उन्हें पढ़ने नहीं देता।

भारत में सिर्फ दस फीसद शिक्षित कामकाजी उम्र की महिलाएं ‘जाब मार्केट’ में हैं, जबकि शिक्षा में उनकी भागीदारी का आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है। पिता की संपत्ति में उनकी हिस्सेदारी आठ फीसद से भी कम है, जबकि भारतीय उत्तराधिकार कानून उन्हें यह हक काफी समय पहले दे चुका है। अगर लड़कियां अपने पिता की संपत्ति में हक मांगने का दुस्साहस करती हैं तो भाई-बहन के रिश्ते ही हाशिये पर चले जाते हैं।

वास्तविक दुनिया में तो महिलाएं दुर्व्यवहार और हिंसा का सामना करती आई हैं, लेकिन सूचना तकनीक के विकास ने आभासी दुनिया में भी महिलाओं के अस्तित्व को चुनौती दी है। हाल ही में ब्रिटेन में एक विचित्र मामला सामने आया। आभासी दुनिया में एक सोलह साल की लड़की से सामूहिक बलात्कार हुआ। एक ऐसी आभासी दुनिया, जहां कोई भी अपना एक आभासी अवतार बना सकता है।

लड़की ने बताया कि बलात्कार भले आभासी दुनिया में हुआ, उसके शरीर पर एक खरोंच तक नहीं आई, लेकिन उसके मन पर गहरा असर हुआ है। जब आभासी दुनिया में उसके काल्पनिक अवतार के साथ बलात्कार होने से ही वह बच्ची दर्द और सदमे में है, तो वास्तविक दुनिया में जिन बच्चियों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार होता है, वे किस पीड़ा का सामना करती होंगी।

ऐसा नहीं कि संविधान में महिलाओं को संरक्षण या बराबरी देने के लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया। समान कार्य के लिए समान वेतन, कार्यस्थल पर यौन शोषण/ उत्पीड़न के विरुद्ध कानून, सुरक्षित कार्य वातावरण, मातृत्व अवकाश की सुविधा, चाइल्ड केयर सुविधा आदि के कानून हैं, पर इन सबके बावजूद गैर-बराबरी बनी हुई है।

कानून तो बना दिए गए, पर उनका पूरी तरह पालन आज तक सुनिश्चित नहीं हो पाया, क्योंकि इन कानूनों का उल्लंघन करना पुरुष समाज की नजर में अपराध नहीं है। अनेक अध्ययन बताते हैं कि महिलाएं अनौपचारिक और असुरक्षित रोजगार में अधिक शामिल होती हैं। महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम वेतन दिया जाता है। वे अवैतनिक देखभाल और घरेलू कार्यों की जिम्मेदारी निभाती हैं, जिस पर लगभग ढाई गुना अधिक समय खर्च करती हैं।

डिजिटल साक्षरता में भी लैंगिक विभाजन देखा जा सकता है। कंपनियों के सर्वोच्च पदों पर केवल पांच फीसद महिलाएं हैं। इसी तरह महिला किसानों के पास अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में भूमि और उत्पादक संपत्तियों पर नियंत्रण और स्वामित्व बहुत ही कम (लगभग 12.8 फीसद) है। समाज वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों का कहना है कि अगर लैंगिक विभेद कम हो जाए तो जीडीपी में 15 फीसद की वृद्धि हो सकती है। इन नीतियों का सख्ती से पालन करने पर भारत की अर्थव्यवस्था विकसित राष्ट्रों में अग्रणी बन सकती है।

जब भी स्त्री मनुष्य की तरह व्यवहार करती है, तो उस पर पुरुष की नकल करने का आरोप लगाया जाता है। एक समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए बहुत जरूरी है कि स्त्री को भी मनुष्य के रूप में परिभाषित किया जाए। वर्तमान सदी ज्ञान की सदी है, जहां ज्ञान को शक्ति माना जाता है।

ऐसे में महिला को भी ज्ञान के क्षेत्र में इतने गहरे उतरना होगा कि वह न केवल हर तरह के भय का सामना कर सके, बल्कि इस सभ्य कहे जाने वाले समाज में एक शिष्ट जीवन जी सके। ज्ञान की इस शक्ति द्वारा ही महिला न केवल अपने शोषण से मुक्ति पा सकती, बल्कि शक्ति-संबंधों में भी अपना स्थान सुनिश्चित कर सकती है शायद तभी बराबरी का समाज उभार ले सके।