मुझे दोनों ही बार खुद के गलत निकलने का अफसोस है! ऐसा इसलिए नहीं कि मैं हमेशा सही निकलता हूं, बल्कि इसलिए कि देश और समाज को आज जिस दिशा में ले जाया जा रहा है, उसे देख कर अपनी विफलता का अहसास बहुत मारक हुआ जाता है। हमारी विफलता की बड़ी कीमत देश को चुकानी पड़ रही है।

मैं नहीं चाहता था कि भारतीय जनता पार्टी का नरेंद्र मोदी गुट आगे आए और पार्टी तथा सरकार पर उसका वर्चस्व बने। मैं नहीं चाहता था और अपनी मर्यादा में मैंने इसकी कोशिश भी की थी कि नरेंद्र मोदी को चुनाव में सफलता न मिले। लेकिन मैं अपने प्रयास में विफल रहा और मेरा अनुमान भी गलत निकला। नरेंद्र मोदी ने सारी बाधाएं पार करते हुए लोकसभा का चुनाव ऐसे जीता जैसे किसी ने जीता नहीं था। फिर तो वह सब हुआ, जो उनके प्रधानमंत्री बनने के लिए जरूरी था।

मैंने अपनी विफलता को भुला दिया और मन से चाहा कि अब यह सरकार सफल हो। इसलिए नहीं कि नरेंद्र मोदी और रीढ़विहीन भारतीय जनता पार्टी से कोई बड़ी उम्मीद बनी थी, बल्कि इसलिए कि भारतीय मतदाता के मन में उन्होंने जितनी बड़ी उम्मीद जगा दी थी, मैं नहीं चाहता था कि वह टूटे! लोकतंत्र में आस्था बहुत बड़ी ताकत होती है। यह आधा-अधूरा लोकतंत्र ही तो था, जिसकी रक्षा के लिए हमने इंदिरा गांधी का अत्याचार, आपातकाल, कारावास सब झेला था; स्नेहलता रेड्डी की जिंदगी और जयप्रकाश नारायण की किडनी तक खोई थी। क्योंकि हमें पता है कि यह लोकतांत्रिक ढांचा भी, कहावत के उस हाथी की तरह है, जो मरा भी हो तो पचास लाख का होता है।

लोकतांत्रिक ढांचे की सबसे बड़ी ताकत उससे जनता की उम्मीद और उस पर जनता का भरोसा होता है। सरकारें जनता को छलें और निकम्मी साबित हों, यह बात अलग है, लेकिन लोकतांत्रिक ढांचा काम ही नहीं करता है, यह भाव जनता में बने, यह खतरनाक है। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनी कांग्रेस की दो सरकारों का पाप यही था कि उसने जनता में यह भाव पैदा किया कि कुशलता, कल्पनाशीलता और ईमानदारी से लोकतंत्र का कोई नाता नहीं होता है। दस सालों में सरकार नाम की संस्था का कोई चारित्रिक गुण मनमोहन-सोनिया-राहुल उभार नहीं सके और आखिरकार स्थिति ऐसी बनी कि मनमोहन सिंह हाशिए पर डाल दिए गए और सरकार का हर घटक दल अपनी-अपनी सरकार चलाने लगा।

कारण चाहे जो भी रहा हो, हमने देखा तो यही कि सोनिया गांधी दर्शक बन कर रह गर्इं और देखते-देखते राहुल गांधी एक ऐसे जोकर की भूमिका में आ गए, जिसे न केवल अपनी भूमिका मालूम नहीं थी, बल्कि संवाद भी याद नहीं थे। मनमोहन सिंह का दूसरा कार्यकाल देश के किसी अंधेरी सुरंग से गुजरने जैसा त्रासद रहा। अगर सोनिया-राहुल-मनमोहन की तिकड़ी अपने अंतिम दिनों में भी इस स्थिति को संभालने की मजबूत पहल करती तो नरेंद्र मोदी के लिए दिल्ली पहुंचना इतना आसान नहीं होता।

लेकिन फैसले के आखिरी दौर में आकर मनमोहन सरकार ने सरकार की भूमिका निभाना ही बंद कर दिया था और कांग्रेस में सब कुछ जमूरे के नाच में बदल गया था। ऐसे में अण्णा हजारे एक प्रतीक बन कर उभरे, और उनके अलग-बगल उभरी वह टीम, जो बाद में आम आदमी पार्टी में बदल गई।

अण्णा हजारे के कंधे पर इतिहास ने वह जुआ रख दिया कि जिसे उठाने और समझने का माद्दा उनमें नहीं था। कमी उनकी ईमानदारी और प्रतिबद्धता में नहीं थी; कमी उस प्रतिभा में थी, जो उस वक्त के लिए जरूरी थी। लेकिन इतिहास भी क्या करे, उसे भी तो आखिर उपलब्ध प्रतिभाओं के सहारे काम करना होता है। अण्णा जहां ठिठक गए वहां से आगे चलने के लिए, उनके ही युवा साथी आगे आए और आम आदमी पार्टी उभरी! उसकी चमक और गति ने परंपरागत राजनीति के कितने ही दिग्गजों को हतप्रभ कर दिया। लेकिन आम आदमी पार्टी यहीं मार खा गई।

उसकी सबसे अहम और प्राथमिक भूमिका यह थी कि वह वर्तमान राजनीति को हतप्रभ करती, लेकिन वह राजनीति के मामूली और खोखले लोगों को हतप्रभ करने का जश्न मनाने में लग गई। आम आदमी पार्टी की दूसरी त्रासदी यह थी कि उसमें कोई भी आम नहीं था। सब के सब इतने खास थे कि खाक बन गए और उन्हें पता ही नहीं चला!

यही तो लोकतंत्र की नजाकत है कि वह सबको तब तक लुभाता है जब तक दूसरों की कीमत पर चलता है। जब वही लोकतंत्र आपकी जिम्मेवारी पर चलना चाहता है और इसके लिए आपकी गर्दन मांगने लगता है, तब वह बोझ बन जाता है। आम आदमी पार्टी इसकी भी शिकार हुई। आम आदमी पार्टी के लिए जितना बड़ा जन समर्थन और जितनी व्यापक सहानुभूति पैदा हुई थी, उसने ही उसकी लोकतांत्रिक जिम्मेवारी भी तय कर दी थी। उसे सबको समेटने और सबके लिए खुलते जाने की भूमिका अपनानी थी। लेकिन वह तेजी से सिकुड़ती-बंद होती गई। उसने दूसरे सबको खारिज कर दिया और कुछ की जेबी पार्टी बनती गई और देखते-देखते काल की जेब में समा गई।

आज वह व्यक्तिपूजा और दिशाहीनता में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की बराबरी में खड़ी है। एक भिन्न राजनीतिक दल के रूप में आप अपनी सारी संभावनाएं खो चुकी है। इसका मतलब यह नहीं कि वह चुनाव लड़ और जीत नहीं सकती है! वह वह सब कुछ कर सकती है, जो राजनीतिक दल करते हैं, लेकिन वह राजनीति का वह विकल्प नहीं खोज सकती, जिसकी आज जरूरत है।

लोकतंत्र के संसदीय ढांचे के भीतर जब ऐसा शून्य पैदा होता है तब दो रास्ते खुलते हैं। एक रास्ता वह, जो एनार्की की तरफ ले जाता है और दूसरा वह जो तानाशाही की तरफ घूमता है: फिर वह तानाशाही व्यक्ति की हो कि पार्टी की किसी खास विचारधारा की! इंदिरा गांधी ने भी 1974-77 के दौर में देश को इसी कगार पर ला खड़ा किया था। इतिहास को उस वक्त में जयप्रकाश नारायण जैसा प्रौढ़ और समर्थ पात्र मिल गया था, जिसके सहारे उसने एनार्की और तानाशाही से दामन बचा कर, संसदीय लोकतंत्र का छूटा रास्ता पकड़ा था।

जयप्रकाश नारायण की उस ऐतिहासिक भूमिका को समझने और उसका आकलन करने में अभी हम समर्थ नहीं हुए हैं, क्योंकि हम इतिहास को घटनाओं का जोड़ मान कर देखते हैं, जबकि उसे एकाधिक प्रवाहों में से चयन करने वाली शक्ति के रूप में देखना चाहिए। गांधी, जयप्रकाश जैसे लोग इसी चयन में इतिहास की मदद कर कालजयी हो जाते हैं।

नरेंद्र मोदी ने सरकार और प्रशासनहीन तथा राजनीतिक दलों की शून्यवत स्थिति में अपने पांव जमाए। सन्नाटे में जैसे हर तरह की आवाज गूंजती है, नरेंद्र मोदी की आवाज भी गूंजी। इस बार का लोकसभा का चुनाव उन्होंने अपनी पूरी ताकत से लड़ा- फेफड़े की ताकत से भी और संगठन की ताकत से भी! लेकिन सामने कौन था? कांग्रेस नहीं, उसकी छाया थी!

आज, जबकि सरकार बने सात माह से ज्यादा हो रहे हैं, हम देख रहे हैं कि वही छायायुद्ध जारी है। न प्रधानमंत्री इससे आगे निकल पा रहे हैं और न सरकार कोई दिशा ले पा रही है। समस्याएं सब वहीं की वहीं हैं- किसानों की आत्महत्या, कुपोषण, बेरोजगारी, प्रशासन की अकुशलता भी और अहंकार भी, महंगाई!

नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही जो कुछ कर गुजरने का वादा किया था, अब कहीं वे उसकी चर्चा नहीं करते! विकास ही हमारा एकमात्र मुद्दा है, कहने वाले मोदी अब हमें ऐसे विकास की बात समझा रहे हैं, जिसका कोई आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक आयाम है ही नहीं! अगर होता तो हमें यह बताया जाता कि कितने नए रोजगार बने हैं, संसद और विधानसभाओं में काम और व्यवहार की क्या संस्कृति बनाई जा रही है, सार्वजनिक जीवन में शुचिता और संस्कार के क्या मानक तैयार किए जा रहे हैं? इन सबके बारे में मनमोहन सिंह सदृश्य वज्र गूंगापन ठोस बनता जा रहा है।

रेडियो पर व्यर्थ की बातों के अलावा नरेंद्र मोदी कुछ बोलते नहीं हैं; और उनकी तरफ से दूसरे जो बोलते हैं वे निम्नतम बौद्धिक और सांस्कृतिक प्रतिभा का परिचय देते हैं। टीवी पर आने वाले भाजपा के सारे प्रवक्ता चिल्लाने से हकलाने तक पहुंच गए हैं, लेकिन कह कुछ नहीं पा रहे हैं। ये सभी वे हैं, जो फेफड़े की ताकत से राजनीतिक बहसें जीतना चाहते हैं। नरेंद्र मोदी को सबसे पहले इनसे ही निजात पानी चाहिए।

अगर गिनें तो कानूनी जंगलों की थोड़ी सफाई, राज्यपालों समेत कुछ प्रशासनिक फेर-बदल के अलावा स्वच्छता अभियान, गुड गवर्नेंस डे, भारत रत्न, घर वापसी, हिंदू औरतों के लिए बच्चे पैदा करने का कोटा आदि ही हैं कि जिन्हें सरकार बता-दिखा सकती है। सरकार के जितने भी मंत्री हैं वे सब के सब अयोग्य से लेकर काम चलाऊ तक की श्रेणी में आते हैं। एक भी मंत्रालय या मंत्री ऐसा नहीं है जिसकी चमक अलग से देखी जा सकती हो। लोकसभा और राज्यसभा दोनों में जो नजारा दिखाई दिया, वह बताता है कि सरकार सदन में संख्या को भीड़ की तरह इस्तेमाल कर रही है और विपक्ष से दो-दो हाथ करने के बजाए अध्यादेशों का रास्ता चुन रही है।

जब सरकार ऐसी मानसिकता में आ जाती है तब लोकतंत्र और इसकी मर्यादाएं बाधा नजर आने लगती हैं। तब सरकार हर आवाज को दबाने, हर हाथ को झुकाने में लग जाती है। यह वह खेल है, जिसमें शुरू में सब कुछ मुट्ठी में लगता है, फिर मुट्ठी में हवा के अलावा कुछ बचता नहीं है। क्या यह उस दौर की शुरुआत है?

 

कुमार प्रशांत

 

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