MP Assembly Election 2023: मध्य प्रदेश विधानसभा का चुनाव इस बार कई मायनों में काफी अहम होने वाला है। एक ओर जहां सभी राजनीतिक पार्टियां दलित और ओबीसी को लुभाने की कोशिश कर रही हैं तो वहीं ऊंची जातियां (सवर्णों) भाजपा के इस कदम को लेकर खासा नाराज हैं। इस बात का असल पता उस वक्त चला, जब मुरैना के दिमनी विधानसभा क्षेत्र के बड़ोखर गांव में एक खाद की दुकान के सामने जोरदार बहस चल रही थी।
उसी वक्त सुनील दंडोतिया नाम के एक व्यक्ति ने कहा, ‘हमारे मन में भाजपा के खिलाफ कुछ भी नहीं है, हमने हमेशा बीजेपी का समर्थन किया है, लेकिन अब बीजेपी ने समाज में जातिवाद ला दिया है। ब्राह्मणों ने अब तक बीजेपी को वोट दिया है, लेकिन इस बार नहीं देंगे।
ब्राह्मणों पर बहुत अत्याचार होते हैं, FIR तक नहीं होती
ग्रुप में सबसे मुखर दंडोतिया पूछते हैं कि मुरैना लोकसभा क्षेत्र के छह विधानसभा क्षेत्रों में एक भी ब्राह्मण विधायक क्यों नहीं है। वो कहते हैं, “हमें भाजपा सरकार पसंद है, लेकिन हम बलबीर दंडोतिया को अपना विधायक चाहते हैं… ब्राह्मण अपना सुख-दुख किसके पास रखेंगे? ब्राह्मणों पर बहुत अत्याचार होते हैं, लेकिन एफआईआर तक दर्ज नहीं होती।’
पूर्व कांग्रेस नेता बलबीर दंडोतिया बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। दंडोतिया कहते हैं, फिर भी, वह मुरैना के मौजूदा सांसद नरेंद्र सिंह तोमर से बेहतर हैं। बता दें, नरेंद्र सिंह तोमर केंद्रीय मंत्रियों में से एक हैं, जिनको बीजेपी ने केंद्र से हटाकर राज्य की राजनीति में एंट्री कराई है।
जातीय हिंसा के केंद्र में रहा मुरैना
बता दें, 2018 में मुरैना जातीय हिंसा के केंद्र में था, जो इस आशंका पर भड़की थी कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के परिणामस्वरूप एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम को कमजोर किया जा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप मध्य प्रदेश में सात मौतें हुईं। इसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी थी।
कांग्रेस ने ग्वालियर-चंबल क्षेत्र की 34 सीटों में से 26 पर जीत हासिल की, जिसमें मुरैना आता है। इसने राज्य की कुल अनुसूचित जाति-आरक्षित 35 सीटों में से 17 सीटें भी जीतीं थी। शेष भाजपा के खाते में चली गईं। 17 सीटों में से एक मुरैना की अंबाह थी, जिसके विधायक बाद में कांग्रेस से भाजपा में शामिल हो गए थे।
इस बार कांग्रेस को अपने कुछ वोट बसपा, सपा और आम आदमी पार्टी को जाते दिख रहे हैं, क्योंकि ये तीनों पार्टियां इस बार चुनाव लड़ रही हैं। कुछ दिन पहले, कांग्रेस ने मुरैना की सुमावली सीट पर अपना उम्मीदवार बदल दिया था, जिसे उसने 2018 में पिछली सूचियों के बाद विद्रोह की संभावना के बाद जीता था।
दलितों को लुभाने की कोशिश कर रही बीजेपी
इस बीच, भाजपा कई परियोजनाओं और योजनाओं के माध्यम से दलितों को लुभाने की कोशिश कर रही है, जो राज्य की आबादी का लगभग 16 फीसदी है। इसकी एक पहल उस वक्त देखने को मिली, जब सीएम शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने बुंदेलखंड क्षेत्र में 100 करोड़ रुपये के रविदास स्मारक की घोषणा की। रविदास दलित समुदाय के पूजनीय व्यक्ति हैं।
भाजपा की इस काट के खिलाफ कांग्रेस ने अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे पर दांव खेला है, जो दलित समुदाय हैं। इस साल की शुरुआत में खड़गे ने चौहान सरकार के खिलाफ पार्टी की जन आक्रोश बैठकें शुरू की हैं। जिसको दलित वोट साधने के रूप में देखा जा रहा है।
दंडोतिया, उनके दोस्त और समुदाय के कुछ अन्य लोग, जो उनकी चर्चा में शामिल होने के लिए रुके थे, गुस्से में अब भाजपा के “दलितों और ओबीसी पर जोर” का उल्लेख करते हैं। गौरव शर्मा नौकरी के घटते अवसरों और कीमतों में वृद्धि के बारे में शिकायत करते हैं, लेकिन ब्राह्मणों को दरकिनार करने को वो सबसे बड़ा मुद्दा मानते हैं। वो कहते हैं, ‘बीजेपी में किसी ब्राह्मण की उतनी अहमियत नहीं रह गई, जो किसी वक्त थी या फिर होनी चाहिए। हम बीजेपी से कैसे संतुष्ट रह सकते हैं।”
जोरदार बहस में हरिओम शर्मा एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं, जो कहते हैं कि वह कांग्रेस को वोट देंगे, क्योंकि वो राज्य में परिवर्तन चाहते हैं। उन्हें यह भी लगता है कि कांग्रेस को केवल 15 महीने सत्ता में रहने के बाद 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व वाले विद्रोह के कारण अपनी सरकार गवानी पड़ी।
अबांह सीट का क्या है समीकरण
दिमनी के पड़ोसी अंबाह (सुरक्षित) निर्वाचन क्षेत्र में, जाति पर बातचीत बहुत कम है। हालांकि, सीट की वफादारी मौजूदा विधायक कमलेश जाटव के प्रति रही है, चाहे वह किसी भी पार्टी से चुनाव लड़ें।
यह सीट 2013 (दो दशकों) तक भाजपा का गढ़ रही, जाटव ने 2013 में बसपा के टिकट पर इसे जीता। 2018 में वह कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में खड़े हुए और फिर से जीत हासिल की, जबकि भाजपा तीसरे स्थान पर सिमट गई। 2020 में जाटव, सिंधिया के साथ कांग्रेस से बीजेपी में चले गए और इस सीट से इस्तीफा दे दिया। लेकिन, उपचुनाव में उन्होंने भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा और फिर से जीत हासिल की।
अंबाह कस्बे में सैलून चलाने वाले मनोज श्रीवास का कहना है कि जाटव को इस बार भाजपा सरकार से मोहभंग की कीमत चुकानी पड़ सकती है। श्रीवास इस बारे में बात करते हैं कि कैसे वह कोविड लॉकडाउन के दौरान अहमदाबाद से छह दिन पैदल चलकर वापस आए। जहां वह एक पांच सितारा होटल में काम कर रहे थे। वो पूछते हैं कि चौहान अपनी “योजना मशीन” को कैसे वित्तपोषित कर सकते हैं।
चुनावों से पहले, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, जिनकी स्थिति जनता के बीच लोकप्रिय होने के बावजूद भाजपा के भीतर अस्थिर मानी जाती है। उन्होंने कई योजनाओं की घोषणा की है। साथ ही पुरानी योजनाओं के विस्तार को लेकर भी बात की है।
वास्तविक मुद्दों पर बात नहीं करतीं पार्टियां
बहस में गिरिराज उचारिया, जोकि एक पशु चिकित्सक हैं। वो वास्तविक मुद्दों पर पार्टियों द्वारा बात न करने और जाति-धर्म के मुद्दों पर बात करने को लेकर पार्टियों की आलोचना करते हैं, जबकि, जाति और धर्म इन दोनों मुद्दों का इस बार बीजेपी और कांग्रेस ने सहारा लिया है। वो कहते हैं कि हमने महसूस किया है कि राजनीतिक नेताओं के इन स्टंट के अलावा भी जीवन है।
वहीं बीजेपी की राजनीति से नाराज ब्राह्मण अकेले नहीं हैं। गुर्जर, जो भाजपा समर्थक भी रहे हैं, शिकायत करते हैं कि सरकार में सभी पसंदीदा पोस्टिंग और नियुक्तियां क्षेत्र के ठाकुरों को मिलती हैं।
मुरैना शहर में फूल विक्रेता रघुराज कुशवाह कहते हैं कि वे अब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चाहते हैं, लेकिन राज्य में भाजपा को नहीं। वो कहते हैं कि उनके लोगों ने हमारे लिए कुछ भी नहीं किया है।
चंबल इलाके में बसपा भी दर्ज करा चुकी है मौजूदगी
वहीं राज्य का चंबल ऐसा इलाका है, जहां दलिता आबादी की ठीकठाक है। चंबल राज्य के उन कुछ क्षेत्रों में से एक रहा, जहां बसपा ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। बसपा ने 1993 में अविभाजित मध्य प्रदेश में 10, 1998 में 8, 2003 में 2 सीटें जीतीं, लेकिन 2008 और 2013 में क्रमशः 7 और 4 सीटें जीतीं। इसका वोट शेयर 2018 विधानसभा में 9.1% और 5.01% के बीच रहा है। अम्बाह में दिहाड़ी मजदूर सुरेंद्र कहते हैं, ‘नेताओं के दलबदल से बसपा की साख खत्म हो गई है। वो कहते हैं कि हमें बसपा उम्मीदवारों को वोट क्यों देना चाहिए, क्या इसलिए कि वे बाद में अन्य दलों में शामिल हो जाएं?