अंतत: हम भारत की पत्रकारिता की चुनिंदा और प्रतिष्ठा संपन्न शख्सियतों में से एक कुलदीप नैयर से भी महरूम हो गए। 95 साल की उम्र में वह हमारे बीच से चले गए। उनके अभाव को न सिर्फ देश, बल्कि सरहद पार का मीडिया जगत भी शिद्दत से महसूस कर रहा है। कुलदीप नैयर का महत्त्व इस अर्थ में पहले से ज्यादा है कि उनकी पत्रकारिता सरकार के प्रशस्ति गान में नहीं, बल्कि जनोन्मुखता में अपनी सार्थकता तलाशती थी। उनके मुताबिक किसी रिपोर्ट में समाचार उतना ही होता है, जितना लोग नहीं जानते और जिसे बताए जाने का उद्देश्य मानव चेतना का विस्तार है। सत्तारूढ़ दलों के अनेक नेताओं से उनके नजदीकी रिश्ते थे, फिर भी वे उन्हें आलोचना का पात्र ही मानते थे।

अरसा पहले हिंदी समाचारपत्र सम्मेलन की ओर से झांसी में आयोजित पत्रकारिता प्रशिक्षण कार्यक्रम में उन्होंने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद-19 में जिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रावधान है, उसे वृत्ति, व्यवसाय या आजीविका के बजाय सेवा ही माना जाएगा। चूंकि प्रशस्तियां सेवा नहीं हो सकतीं, इसलिए पत्रकारों को विचार, प्रचार और समाचार के अंतर को समझना चाहिए। विचारों में भी, खासकर संपादकीय लेखों की वैचारिक गवेषणाओं में खास ध्यान रखा जाना चाहिए कि वे राजनीतिक या वैयक्तिक प्रतिष्ठा के प्रचारक नहीं, बल्कि ऐसी कल्याणकारी व्यवस्था के हित चिंतक हों, लोकतांत्रिक भावना में जिसकी सदाशयतापूर्वक परिकल्पना की गई हो।

14 अगस्त, 1923 को अविभाजित भारत के सियालकोट में जन्मे नैयर की स्कूली शिक्षा सियालकोट में ही हुई थी। बाद में उन्होंने लाहौर से कानून की डिग्री ली और अमेरिका से पत्रकारिता की। फिर दर्शन शास्त्र में पीएचडी भी की। पत्रकारिता में आने से पहले वे भारत सरकार के प्रेस सूचना अधिकारी थे। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ व ‘स्टेट्समैन’ समेत कई प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबारों के संपादन के बाद वे ब्रिटेन में भारत के हाई कमिश्नर भी रहे। वे ऐसे पत्रकार थे, जिन्हें 1975 में देश पर संकटकाल थोपने वाली इंदिरा गांधी की सरकार ने इस आशंका में गिरफ्तार कर लिया था कि बाहर रहने पर वह उसके विरोध में कुछ भी कर सकते हैं। उसकी यह आशंका निराधार भी नहीं थी। नैयर लोकतंत्र में संकटकाल की अवधारणा के ही विरोधी थे और मानते थे कि दोनों परस्पर विरोधी हैं। इसलिए संविधान के संकटकाल की घोषणा के प्रावधान का प्रयोग राजनीतिक सुविधा के लिए नहीं, देश के लिए संकट की वास्तविक स्थितियों में ही किया जाना चाहिए।

इधर, वह पत्रकारिता के भविष्य और स्वरूप से जुड़े अंदेशों को लेकर खासे चिंतित रहने लगे थे। उनकी समझ थी कि पत्रकारिता का उपयोग आर्थिक स्वार्थों की साधना और लाभ के लिए होने लगेगा, तो न इसके गुणों व मर्यादाओं की रक्षा हो पाएगी और न वह अपनी भूमिका से लोकतंत्र को मजबूत कर पाएगी, क्योंकि पत्रकारिता को तभी दायित्व निर्वाह के प्रति गंभीर माना जा सकता है, जब वह आम लोगों के हितों के साथ खड़ी हो और ऐसी सामग्री प्रस्तुत करे, जिससे निरंकुश व्यवस्था पर अंकुश लगाया जा सके।
अपने पत्रकारीय दायित्वों के निर्वाह के क्रम में नैयर हर स्थिति व परिस्थिति में सत्ता के बजाय सत्य के साथ खड़े नजर आए। जनवरी 1966 में ताशकंद समझौते के वक्त भी, वह भारत के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के निधन के बाद उनके कमरे में जाने वाले पहले पत्रकार थे। उन्होंने सारी स्थितियों से अवगत होने के बाद उनकी मृत्यु के कारणों की जांच की जरूरत भी बताई थी। उर्दू से पत्रकारिता का आगाज कर उन्होंने पत्रकारिता जगत में अपनी ऐसी जगह बनाई कि उनके लेख अंग्रेजी व हिंदी समेत कई भाषाओं के 80 समाचारपत्रों में प्रकाशित हुआ करते थे।

राजनीतिक नेताओं के समर्थन या विरोध के फैसले में वह उनकी दलीय निष्ठाओं से ज्यादा निजी भूमिकाओं को महत्त्व देते थे। एक बार उन्हें ‘जनमोर्चा’ के स्थापना दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया तो भी उन्होंने इस आधार पर अपनी पसंद-नापसंद को छुपाया नहीं और पूछ लिया कि समारोह में अमर सिंह तो नहीं आ रहे? यह और बात है कि बाद में आश्वस्त होने, स्वीकृति देने और दिल्ली से चल देने के बावजूद वह ‘जनमोर्चा’ के उक्त समारोह में पहुंच नहीं पाए क्योंकि लखनऊ पहुंचते-पहुंचते उनकी तबीयत खराब हो गई।

अयोध्या के राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद मामले में भी नैयर की गहरी दिलचस्पी थी। मस्जिद के ध्वंस से पहले एक बार उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक से यह जानना चाहा था कि विवाद के शांतिपूर्ण समाधान के रास्ते में कौन-कौन सी कठिनाइयां हैं? उनसे अवगत होने के बाद उन्होंने अयोध्या आने और घटनास्थल देखने की इच्छा जताई। इन पंक्तियों के लेखक ने उन्हें अयोध्या लाकर विवादित ढांचा दिखाया तो उन्होंने पूछा कि क्या इस स्थल का बंटवारा विवाद के समाधान का आधार हो सकता है? उन्हें बताया गया कि ऐसा एक प्रयोग अंग्रेजों के काल में हो चुका है। तब इसी मस्जिद के दायरे में राम चबूतरा नामक पूजास्थल बनाया और स्वीकार किया गया था। बाद में तत्कालीन जिला और चीफ कोर्ट ने इस चबूतरे पर मंदिर निर्माण की अनुमति नहीं दी, क्योंकि यह विवाद को बढ़ाने वाला ही होता। उन्होंने विवादित परिसर में सीता रसोई और राम चबूतरे के रास्ते के बारे में जानने की जिज्ञासा जताई और जब उन्हें बताया गया कि मस्जिद और इन स्थलों का द्वार एक ही है और उसका उपयोग बिना कठिनाई के दोनों पक्ष करते हैं, तो वे किसी वैकल्पिक समाधान के बारे में चिंतित हो गए।

नैयर को जब भी हिंदी समाचारपत्र सम्मेलन के किसी पत्रकारिता प्रशिक्षण कार्यक्रम में बुलाया गया, वह तैयार मिले। क्योंकि उनका मानना था कि पत्रकारिता का स्तर उन्नत करने के लिए सतत चिंतन और विभिन्न स्थितियों में कर्तव्य निर्वाह के मानक तैयार होते रहने चाहिए। इसके लिए नए पत्रकारों को तैयार करना वह अपना भी कर्तव्य मानते थे। उन्होंने जो कुछ किया और जैसी जिंदगी जी, उससे पत्रकारिता के गौरव में उल्लेखनीय अभिवृद्धि हुई। इसलिए उनके विरोधी भी उनके पत्रकारीय गुणों की प्रशंसा करते हैं।
जैसा पहले बताया गया है, नैयर ने अंग्रेजी पत्रकारिता में अपनी लोकप्रियता बढ़ाई तो उन्हें हिंदी समेत अन्य भाषाओं में छापने की भी इच्छा जाहिर की गई।

एक वक्त जब उन्होंने पाया कि लेखन से होने वाला अर्जन उनकी आवश्यकताओं से अधिक है तो उन्होंने अपना कार्यालय बनाकर उसमें अन्य जानकार लोगों को भी शामिल किया, जिससे अनुवाद के फलस्वरूप विसंगतियां न पैदा हों और जो कुछ वह कहना चाहते हैं या जो उनकी मान्यता है, वह सारे प्रकाशनों में एक जैसी दिखे। भले ही उसमें भाषागत वैभिन्य का प्रभाव झलकता हो। इसी लक्ष्य को सामने रखकर उनका लेखन अंतिम दिनों तक चलता रहा। वह उसमें विचारों के अलावा पुरानी यादें और जानकारियां भी देते थे। पत्रकारिता में भी कई लोग विभिन्न घटनाक्रमों को लेकर अपना नजरिया इस आधार पर तय करते थे कि उनके बाबत कुलदीप नैयर क्या सोचते हैं?