राकेश सिन्हा

कभी-कभी किसी व्यक्ति का सम्मान के अभिप्राय का फलक बड़ा हो जाता है। वह व्यक्तिगत नहीं होकर अनेक कालजयी यथार्थ का सारगर्मित स्वरूप के रूप में सामने आता है। यही बात कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिए जाने में स्पष्ट है। आखिर क्या विशेषताएं थी जिसके कारण उन्हें मरणोपरांत राष्ट्र का सर्वोच्च सम्मान मिला और वे क्या कारण रहे कि उन विशेषताओं के बावजूद उनके विचारों के समर्थक उनकी उपेक्षा करते रहे?

इन दोनों प्रश्नों का उत्तर समकालीन भारतीय राजनीति के यथार्थ को भी उजागर करता है। उनकी वैशिष्ट्य को समझने का एक अवसर उनकी चल रही सौवीं जयंती भी है। बिहार के बेगूसराय से 18 किलोमीटर दूर मंझौल में ठाकुर के समानधर्मी और सहकर्मी राजनेता रामजीवन सिंह रहते हैं। लोगों के साथ उनके घर जयंती मानने पहुंचे। रामजीवन सिंह में कर्पूरी ठाकुर का प्रतिविंब है। वे 93 वर्ष के हैं, परंतु सार्वजनिक जीवन के प्रति उनका आग्रह जीवंत और ताजा है।

उनके संस्मरणों से कर्पूरी ठाकुर के जीवन मूल्यों और जीवन दृष्टि की व्यापकता को समझना आसान हो गया। वे कहते थे कि राजनीतिक जीवन में पैसे कमाने या अपने परिवार को समृद्ध करने के लिए नहीं आना चाहिए। एक बार पार्टी ने उनके पुत्र को विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार बनाना चाहा। जब उन्हें पता लगा तो वे हतप्रभ हो गए और अपनी पूरी ताकत लगा कर इस निर्णय को पलट दिया।

सार्वजनिक जीवन का आदर्श बनना आसान नहीं होता। पद, प्रसिद्धि बढ़ने से जीवन दर्शन को पहले की तरह बनाए रखना चुनौती होती है। जो इसे पार कर जाते हैं वे कालजयी बन जाते हैं। कर्पूरी ठाकुर उसी परंपरा के नायक हैं। वे 1952 में पहली बार विधायक बने और दो बार मुख्यमंत्री परंतु उनकी आर्थिक हालत जस की तस रही।

पद दायित्व होता है और प्रसिद्धि बेचने की चीज नहीं बल्कि प्रेरित करने की चीज होती है। वे अंतिम व्यक्ति के हितों की चिंता और उसके लिए बिना कटुता पैदा किए संघर्ष करते है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस प्रभावकारी रास्ते को अपने शासन दर्शन से जोड़ते हुए लिखा है कि ‘कर्पूरी ठाकुर के विजन से प्रेरित होकर हमने सामाजिक न्याय को एक प्रभावी गवर्नेंस माडल के रूप में लागू किया। मैं विश्वास और गर्व के साथ कह सकता हूं कि भारत के 25 करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर निकालने की उपलब्धि पर आज जननायक कर्पूरी ठाकुर जरूर गौरवान्वित होते।’ मोदी ने परिवारवाद को लोकतंत्र के लिए मीठा जहर मानकर इसे समाप्त करने का आह्वान किया है।

रामजीवन सिंह ने कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिए जाने पर कहा है कि ‘मोदी जी को धन्यवाद देता हूं कि उन्होंने हीरा को पहचाना है।’ लेकिन उनके समर्थक उनको हीरा क्यों नहीं मानते और क्यों सम्मान नहीं दिया। सामाजिक न्याय का जो तर्क उनके छद्म समर्थकों ने गढ़ा है वह कर्पूरी ठाकुर के आदर्श की अवहेलना है। सामाजिक न्याय सत्ता में पहुंचने, सत्ता में परिवार विशेष का एकाधिकार बनाए रखने और वैसा सफलता पूर्वक करने के लिए जातीय कटुता बनाए रखने का उपक्रम करते रहे।

कर्पूरी फूल माला चढ़ाने के लिए उनके लिए सिर्फ एक प्रतिमा बनकर रह गए। वे सामंतवाद से लड़ने के लिए सामाजिक-आर्थिक बदलाव को कारगर समाधान मानते थे। उनके समर्थक समस्या को बनाए रखने में अपने हित को सुरक्षित मानते रहे। कर्पूरी ठाकुर का जन्म जिस जाति में हुआ उसकी संख्या के आधार पर एक पंचायत या वार्ड का चुनाव भी नहीं जीता जा सकता है। पर वे सदैव विधायक या सांसद का चुनाव जीतते रहे। जाति बाधक नहीं बनी। सर्वसमावेशी और सर्वप्रिय बने रहे।

वे आज की राजनीति के लिए बीज के समान हैं। व्यवहारिकता के नाम पर धन बटोरने, सामान्य लोगों के हितों की बलि चढ़ाकर स्वयं को समृद्ध करने की राजनीतिक संस्कृति लोगों में राजनीति के प्रति अनास्था पैदा करती रही है। यही कांग्रेस संस्कृति है। इससे लड़ना आसान नहीं है।